धर्म निरपेक्ष :-
राज्य धर्मनिरपेक्षता की एक अवधारणा है,जिसके तहत एक राज्य या देश स्वयं को धार्मिक मामलों में आधिकारिक तौर पर, न धर्मऔर न ही अधर्म का समर्थन करते हुए, तटस्थ घोषित करता है।
परंतु भारतीय वाङ्मय में धर्म शब्द का अर्थ अत्यंत व्यापक है। कर्तव्य, आचार संहिता, नियम, रीति, रस्म, सांप्रदायिक आचार विचार, नैतिक आचरण, शिष्टाचार आदि का समावेश एक शब्द "धर्म" में ही हो जाता है। धर्म का अर्थ जीवनप्रणाली भी माना गया है। सेक्युलर शब्द का हिंदी अनुवाद करना दुष्कर प्रतीत होता है, तथापि उसके लिए कोई शब्द रखना अत्यावश्यक है।सेक्युलर शब्द का कुछ मिलता-जुलता या अनुवाद "लौकिक" हो सकता है। सेक्युलर के लिए लौकिक शब्द हिंदी में प्रचलित है। वास्तव में सेक्युलर शब्द के लिए हिंदी में अभी कोई उपयुक्त शब्द नहीं निकल पाया है। कालांतर में शब्द अपना रूप तथा भाव पकड़ लेते हैं। अतएव धर्मनिरपेक्ष तथा लौकिक शब्द का प्रयोग सेक्युलर के लिए यहाँ किया गया है।
परिचय धर्मनिरपेक्षता, पंथनिरपेक्षता या सेक्युलरवाद (secularism) एक आधुनिक राजनैतिक एवं संविधानी सिद्धान्त है। धर्मनिरपेक्षता के मूलत: दो प्रस्ताव [1] है 1) राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में मजहब (रेलिजन) का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये। 2) सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है धर्मनिरपेक्ष किं लौकिक राज्य में ऐसे राज्य की कल्पना की गई हैं, जो सभी धर्मों तथा संप्रदायों का समान आदर करता है। सबको एक समान फलने और फूलने का अवसर प्रदान करता है। राज्य किसी धर्म अथवा संप्रदाय विशेष का पक्षपात नहीं करता। वह किसी धर्मविशेष को राज्य का धर्म नहीं घोषित करता।
प्राय: विश्व के सभी मुसलिम राज्यों ने अपने आपको इस्लामिक राज्य घोषित किया है। बर्मा ने अपना राजधर्म बौद्धधर्म घोषित किया है।किसी देश में प्राय: किसी धर्मविशेष के मानने वालों का बहुमत रहता है। हिंदुस्तान में हिंदू, पाकिस्तान मे मुसलमान, इसरायल में यहूदी, बर्मा, श्रीलंका, स्याम आदि में बौद्ध बहुसंख्यक हैं। इसी तरह ब्रिटेन, यूरोप उत्तरी और दक्षिण अमरीका, आस्ट्रेलिया आदि में ईसाई धर्म के अनुयायियों का बहुमत है। बहुमत के कारण वहाँ के सांस्कृतिक वातावरण में, वहाँ के धर्म की छाप लगना स्वाभाविक है। किंतु कोई भी राज्य, राज्य के रूप में, किसी धर्मविशेष से अलग रह सकता है। भारत का वर्तमान संविधान तथा लोकतंत्रीय प्रणाली इसके ज्वलंत उदाहरण है।ब्रिटेन जैसे देश में वहाँ के संविधान के अनुसार राज्य का एक धर्मविशेष से संबंध है। वह ईसाई धर्म के एक संप्रदाय "चर्च ऑव इंग्लैंड से" संबंधित है। फिर भी वहाँ के लोग धर्मनिरपेक्ष भाव से अपना लोकतंत्र तथा शासन चलाते हैं।
भारतीय संविधान सभा ने विश्व के सम्मुख संविधान की जो प्रस्तावना रखी गई वह धर्मनिरपेक्ष राज्य के मौलिक सिद्धांतों के मत पर आधारित थी।संविधान के अनुच्छेद 29 पर बोलते हुए लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री अनंतशयनम् आयंगर ने कहा था- "हम वचनबद्ध हैं कि हमारा राज्य धर्मनिरपेक्ष होगा। शब्द धर्मनिरपेक्ष से हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि हम किसी धर्म में विश्वास नहीं रखते और हमारे दैनिक जीवन में इससे कोई संबंध नहीं है।
इसका केवल अर्थ यह है कि राज्य सरकार किसी मजहब को दूसरे की तुलना में न तो सहायता दे सकती है और न प्राथमिकता। इसलिए राज्य अपनी पूर्ण निरपेक्ष स्थिति रखने को विवश है।"श्री जवाहरलाल नेहरु ने 5 अगसत, सन् 1954 के भाषण में इसका और स्पष्टीकरण करते हुए कहा था "हम अपने राज्य को शायद धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। शायद "सेक्युलर" शब्द के लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द बहुत अच्छा नहीं है। फिर भी इससे बेहतर शब्द न मिलने के कारण इसका प्रयोग किय गया है। इसकाअर्थ है धार्मिक स्वतंत्रता, अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता। इसमें उन लोगों की भी स्वतंत्रता सम्मिलित है जो किसी धर्म को नहीं मानते। स्पष्टत: इसका यह मतलब नहीं है
कि यह एक ऐसा राज्य है जहाँपर धर्मपालन को निरुत्साहित किया जाता है। इसका मतलब है कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को धर्मपालन की पूरी स्वतंत्रता है, बशर्ते वे दूसरे के धर्म में या हमारे राज्य के मूल सिद्धांतों में हस्तक्षेप न करें। इसका मतलब है कि धर्म की दृष्टि से जो अल्पसंख्यक हैं वे इस स्थिति को स्वीकार करें। इसका यह भी तात्पर्य है कि बहुसंख्यक लोग इस दृष्टिकोण से इसका पूरी तरह से महत्व समझें, क्योंकि बहुसंख्यक होने के नाते और दूसरे कारणों से भी उनका प्रभाव अधिक है। अत: उनकी जिम्मेदरी हो जाती है किसी भी रूप में अपनी स्थिति का इस तरह से प्रयोग न करें जिससे हमारे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के पालन में बाधा पहुँचे।
‘धर्मनिरपेक्षता’
शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया हैं ,
लेकिन संविधान के कई ऐसे अनुच्छेद हैं जो भारतीय राज्य में धर्मनिरपेक्ष प्रवृति के साथ जुड़े है। भारतीय संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 25 से 28 तक नागरिको के मूल अधिकार के रूप में जुड़े है। इन अनुच्छेदों के द्वारा उद्देशिका में बताये गये विश्वास, धर्म, और उपासना की स्वतंत्रता के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप देने का प्रयास किया गया है, क्योंकि भारत में लगभग सभी धर्मों के लोग निवास करते है। भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द की बजाय पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया हैं । पंथनिरपेक्ष[1]शब्द 1976 में 42वां संविधान संशोधन के द्वारा उद्देशिका में शामिल किया गया है (बसु 2013, 23)। संविधान के अधीन भारत एक पंथ निरपेक्ष राज्य हैं ,
ऐसा राज्य जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है\ धर्मनिरपेक्ष राज्य के अनुसार धर्म एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का निजी मामला है, इसे उन पर छोड़ देना चाहिये। यदि राज्य लोगों के धार्मिक विश्वास में हस्तक्षेप करता है या धार्मिक विचारों से प्रभावित होता है तो इससे समाज में विभाजन उत्पन्न हो सकता है (चौबे 2009, 21) । समकालीन समय में यह संभव नही है कि राज्य की अधिकांश जनता किसी एक खास धर्म को मानने वाली है, इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकार के अंतर्गत बहुत से ऐसे प्रावधान किये हैं, जो राज्य की धर्म निरपेक्ष प्रकृति को बढावा प्रदान करते है। जैसे संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने या फैलाने का अधिकार है।[2]वहीं अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार देता हैं । इसके अलावा अनुच्छेद 27 के अंतर्गत किसी नागरिक को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के लिए कर देने के लिए बाध्य नहीं करेगा(बसु 2013, 139)। इसके साथ-साथ यह प्रावधान भी किया गया हैं, कि राज्य की आर्थिक सहायता द्वारा चलाये जारहे शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नही दी जायेगी (अनुच्छेद 28)। इसलिए संविधान में भारतीय राज्य का कोई धर्म घोषित नही किया गया है
और न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया गया हैं । जैसा कि मुख्य दार्शनिक नेता ‘डॉ.एस.राधाकृष्णन’ ने 1956 में दिये भाषण में पंथ निरपेक्षता/धर्मनिरपेक्षता का दृष्टिकोण प्रस्तुत करतेहुए कहा था कि- “जब भारत को पंथनिरपेक्ष राज्य कहा जाता है, तो इसका अर्थ यह नही होता है कि हम अदृश्य आत्मा के यथार्थ को जीवन में धर्म की प्रासंगिकता को अस्वीकार करते है या धर्महीनता को प्रोत्साहित करते है। इसका यह अर्थ नहीं है कि पंथनिरपेक्ष स्वंय एक सकारात्मक धर्म बन जाता है या राज्य देवी पूर्वाग्रहों का अनुमान लगाता है...हम चाहते है कि किसी एक धर्म विशेष को दर्जा न दिया जाये...धार्मिक निष्पक्षता या समझ या सहिष्णुता के इस दृष्टिकोण को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय जीवन में एक भविष्योन्मुखी भूमिका अदा करनी है” (चौबे 2009, 22)।
अंधविश्वास:-
एक ऐसी समस्या जिसका समाधान सामने होते हुये भी कोसो दूर हैं | विश्वास टूट कर बिखरता हैं अंधविश्वास मजबूती से खड़ा होता हैं | खोखला हैं लेकिन मजबूती की जड़े लिये हुये जिसे समझते हुए भी कोई स्वीकारना नहीं चाहता|आज का समय जिस तरह से बुराइयों को अपने अंदर समाय हुए हैं| मनुष्य सगे से सगे रिश्ते पर भी विश्वास नहीं कर सकता लेकिन इसके बावजूद कई ऐसे अंधविश्वास हैं जिसका शिकार आज हर एक तीसरा व्यक्ति हैं फिर चाहे वो पढ़ा लिखा हो या अनपढ़| अन्धविशासी है।।1.क्या हैं अंधविश्वास ? किसी भी बात को बिना सोच समझ के, बिना किसी आधार के चरम सीमा के परे जाकर करना एवम मानना अंधविश्वास हैं फिर वो भगवान की भक्ति हो या किसी इन्सान की | कई बार भगवान की भक्ति में इस कदर खो जाते हैं कि कोई भी उनसे भगवान के नाम पर कुछ भी करवाले वो झट से कर देते हैं | यह ईश्वर के अस्तित्व में आस्था नहीं बल्कि ईश्वर के नाम पर अंधविश्वास हैं |
भारत देश में सबसे ज्यादा अंधविश्वासी हैं क्यूंकि यहाँ भगवान को अधिक माना जाता हैं जिसका कई लोग गलत फायदा उठाते हैं | ईश्वर में आस्था जरुरी हैं जीवन को दिशा देने के लिए मन में श्रद्धा होना जरुरी हैं लेकिन सही गलत का विचार भी जरुरी हैं | मनुष्य को सबसे उपर मानव धर्म को रखना चाहिये उसके आस-पास सही गलत का अवलोकन करना चाहिए |आज कल हर एक गली मोहल्ले, शहर में एक भगवा चौला ओढे मिलता हैं और उसके कई अनुयायी बन जाते हैं | सन्यासी का भेस लिये वो लोग राजनीती, फ़िल्मी, टेलीविजन की दुनियाँ में चमक रहे हैं | और लोग उनके पीछे अपना घर द्वार त्याग उनके चरणों में पड़े हुए हैं जो मनुष्य खुद राजनीति और फेम का मोह नहीं छोड़ पाता वो आपको कैसे वैराग्य सिखा सकता हैं | कैसे पढ़े लिखे होकर भी मनुष्य सही गलत का आंकलन भूल गया हैं | कैसे किसी ज्ञानी महात्मा और एक लोभी व्यक्ति में मनुष्य अंतर नही कर पा रहा हैं और बढ़ते समय के साथ इसका गुलाम होता जा रहा हैं | अंधविश्वास पर कई फिल्मे भी बनाई जा रही हैं | आज कई केस भी हम सबके सामने हैं जिनसे पता चलता हैं कि भगवा चौले केपीछे कितने घिनौने अपराध हो रहे हैं लेकिन इसके बाद भी यहरुक नहीं रहे |
कट्टरता :-
हम धर्म के प्रति काफी कट्टर लोग है,
मैं कट्टर हिन्दू हूँ, मैं कट्टर मुस्लिम हूँ, मैं कट्टर अमका हूँ मैं कट्टर ढंमका हूँ, ये कहते हुए,, आप लोग कईयो को सुने होंगे but असली मायने में कट्टर कौन है।। कभी सोचे, शायद नही ? कट्टर ओ,, जो दूसरों के धर्म को निचा दिखाने भद्दा कमेंट करें,, जो दूसरों की धर्म की निन्दा करे, जो दुसरो के धर्म मजहब को अपने धर्म से नीच समझे ,जो दूसरों के धर्म की इज्जत न करे, आप इसी को कट्टर समझते है क्या? ये कट्टर नही है,? कट्टरता ओ है ? चाहे सामने वाला कितना भी बुराई करे तुम्हारे धर्म विधि विधान का तबभी अपने विश्वास और आस्था को न छोड़ना असली मायने में कट्टरता है।।
सार बात
धर्म निरपेक्ष:-
राज्य सरकार किसी मजहब को दूसरे की तुलना में न तो सहायता दे सकती है और न प्राथमिकता। इसलिए राज्य अपनी पूर्ण निरपेक्ष स्थिति रखने को विवश है।"
अन्धविश्वांस:-
क्या हैं अंधविश्वास ? किसी भी बात को बिना सोच समझ के, बिना किसी आधार के चरम सीमा के परे जाकर करना एवम मानना अंधविश्वास हैं फिर वो भगवान की भक्ति हो या किसी इन्सान की |
कई बार भगवान की भक्ति में इस कदर खो जाते हैं कि कोई भी उनसे भगवान के नाम पर कुछ भी करवाले वो झट से कर देते हैं | यह ईश्वर के अस्तित्व में आस्था नहीं बल्कि ईश्वर के नाम पर अंधविश्वास हैं |
धर्म के प्रति कट्टरता:-
किसी भी धर्म की निंदा और बुराई किये बिना ,तथा अपने धर्म की बुराई करने के बावजूद अपने धर्म के प्रति आस्था और विश्वास ही धर्म के प्रति कट्टरता है।।
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अपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !