रूढ़ी व प्रथा
मेरे प्यारे आदिवासी भाइयो मै आप लोगो से आज जिस विषय में चर्चा करने वाला हूँ उस विषय को हम अपने परम्परागत रीती रिवाज और संस्कृति का प्रथम चरण भी कह सकते है और जिसे हम रूढ़ी प्रथा के नाम से भी जानते है तो रूढ़ी प्रथा से तात्पर्य है जिसे हमारे पूर्वज आदिकाल से मानते और करते आये है उन संयमित क्रियाकलापों को ही हम रूढ़ी प्रथा कहते है आगे हम इनके परिभाषा और उनकी अर्थ और प्रकृति पर चर्चा करेंगे चर्चा करने से पहले यह बात मै स्पष्ट करना चाहूँगा की विश्व में कई प्रकार की जनजातीया है भारत में ही सभी राज्यों को मिलाकर कुल ७०५ जनजातियाँ है और सभी का रीती रिवाज एक दुसरे से कांफी भिन्नता और
असमानता लिए हुय है और साथ में कई सारी समानताये भी लिए हुए है रूढ़ी प्रथा सब के अलग अलग हो सकते है जो उन जनजातीय समुदायों के पूर्वज एक पीढ़ी से दुसरे पीढ़ी हस्तांतरित अपने संस्कृति और और परम्परा को लेकर चलते आ रहे है और उनमे समानताए भी हो सकती है इस बात पर भी कोई दो मत नही है कुल मिलाकर कहा जाए तो सभी आदिवासियों की अपनी अलग रूढ़ी प्रथा और रीतिरिवाज परम्परा होती है
असमानता लिए हुय है और साथ में कई सारी समानताये भी लिए हुए है रूढ़ी प्रथा सब के अलग अलग हो सकते है जो उन जनजातीय समुदायों के पूर्वज एक पीढ़ी से दुसरे पीढ़ी हस्तांतरित अपने संस्कृति और और परम्परा को लेकर चलते आ रहे है और उनमे समानताए भी हो सकती है इस बात पर भी कोई दो मत नही है कुल मिलाकर कहा जाए तो सभी आदिवासियों की अपनी अलग रूढ़ी प्रथा और रीतिरिवाज परम्परा होती है
प्रथा की उत्पत्ति एका एक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है।
दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है।
यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। कि नये तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के
सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,
दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है।
यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। कि नये तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के
सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,
‘‘जहाँ तक हम जानते हैं, प्रथा के विकास का रास्ता केवल एक ही है और वह है समान परिस्थितियों वाली पहले की प्रथा से कार्यप्रणाली, फैशन और आदत; दूसरी ओर नए रूपों और बहुत पहले के विनष्ट अतीत के अवशेषों का मिला-जुला रूप ही प्रथा बन जाता है।
प्रथा में कितना अतीत से आया है और कितना गया है, यह अन्तर कर सकना काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नई प्रथा की कल्पना सम्भव नहीं।’’
प्रथा में कितना अतीत से आया है और कितना गया है, यह अन्तर कर सकना काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नई प्रथा की कल्पना सम्भव नहीं।’’
रूढीवादी की परिभाषा -
प्रकृति व सत्य से प्रेरित हमारे पूर्वजों द्वारा अभ्यास किया हुआ
सहज ही विकसित सांस्कृतिक व्यवहार रूढी है। यह एक सहज
नियम है, जिसका पालन करते हुए हम शासित व संस्कारित होते है।
रीति की परिभाषा -
जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ कहते हैं।
प्रथा की परिभाषा -
समाज से मान्यता प्राप्त, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने वाली सुव्यवस्थित, दृढ़ जनरीतियां ही ‘प्रथा’ कहलाती हैं।
रीति एंव प्रथा
जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ कहते हैं। यह ‘जनरीति’ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है इस प्रकार हस्तान्तरित होने के दौरान इसे समूह की अधिकाधिक अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है, यही 'प्रथा' (custom) है।
प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए इसकी विशेषताओं को जानना आवश्यक है-
(1) ‘प्रथा’ का आधार समाज है, पर इसे जानबूझकर नहीं बनाया जाता, अपितु सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान इसका विकास होता है।
(2) ‘प्रथा’ वह जनरीति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। इसका पालन केवल इसलिए किया जाता है कि एक लम्बे समय से अनेक व्यक्ति इसका पालन करते आ रहे हैं।
(3) ‘प्रथा’ व्यवहार की वे रीतियाँ हैं जो अनेक पीढ़ियों से चलती आती हैं और इस प्रकार समूह में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं।
इसके पीछे समूह या समाज की अधिकाधिक अभिमति होती है। वास्तव में अनेक पीढ़ियों का सफल अनुभव ही इसे दृढ़ बनाता है।
(4) ‘प्रथा’ रूढ़िवादी होती है, इस कारण इसे सरलता से बदला नहीं जा सकता और परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी होती है।
(5) ‘प्रथा’ को बनाने, चलाने तथा इसे तोड़ने वालों को दण्ड देने के लिए कोई संगठन या शक्ति नहीं होती। समाज ही इसे जन्म देता और लागू करता है।
(6) मानव के हर प्र्रकार के व्यवहार को नियन्त्रित करने की क्षमता, प्रथाओं में बहुत बड़ी मात्रा में होती है। मानव के जीवन में, बचपन से लेकर मृत्युकाल तक, इनका प्रभाव पड़ता रहता है।
‘‘मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, ‘प्रथा’ कुछ बातों में ‘आदत’ की तरह होती है; अर्थात् प्रथा ऐसी आदत है, जिसका अनुसरण न केवल एक व्यक्ति करता है, बल्कि समुदाय के अधिक-से -अधिक लोग करते हैं। फिर भी प्रथा और आदत बिलकुल समान नहीं हैं। प्रथा में एक आदर्श नियम होता है और उसमें बाध्यता होती है।
सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में आदिकालीन अथवा सरल समाजों में इनका महत्व राजकीय कानून से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण है और वह यह है कि सरल समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। निम्नलिख्ति विवेचना से प्रथा का यह महत्व और भी स्पष्ट हो जाएगा।
(१) प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया में मदद करती हैं :
जीवन में जिन क्रियाओं से व्यक्ति की सामाजिक समस्याओं का समाधान होता है, मनुष्य उन्हीं क्रियाओं को चुन लेता है और व्यर्थ व हानिप्रद क्रियाओं का त्याग कर देता है। इस प्रकार चुनी गई सफल क्रियाएं जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती हैं तो वे ‘प्रथा’ बन जाती हैं। अर्थात् प्रथा में कई पीढ़ियों का सफल अनुभव तथा व्यवहार-विधि का समावेश रहता है, जिससे सीखने की प्रक्रिया सरल हो जाती है। इस प्रकार प्रथाएँ मनुष्य के मानसिक परिश्रम में कमी करती हैं; क्योंकि पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर जो कुछ सीखा है, मनुष्य को उन्हीं क्रियाओं को नए सिरे से सीखना नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में, नई पीढ़ियाँ प्रयत्न और भूल की महंगी विधि से किसी चीज को दोबारा सीखने के कष्ट से बच जाती हैं, जिसे पुरानी पीढ़ियाँ पहले ही सीख चुकी हैं। इसको दूसरे रूप में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि पुरानी पीढ़ी के व्यवहार की प्रथाओं के माध्यम से नई पीढ़ी के व्यवहार बन जाते हैं।
(२) प्रथाएँ अनेक सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन में मदद करती हैं :
पिछली पीढ़ियों के सफल अनुभवों से समृद्ध प्रथा अनेक समस्याओं का एक बना-बनाया (ready-made) हल व्यक्ति के सामने प्रस्तुत करती है। इसलिए प्रथा की सहायता से व्यक्ति कठिन परिस्थिति में भी, अधिक सोच-विचार किए बिना ही, समस्या का समाधान कर लेता है। यह सच है कि सभी मानवीय समस्याओं का, विशेषकर आधुनिक जटिल सामाजिक समस्याओं का, समाधान प्रथाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता। उसके लिए नवीन विधियों को भी अपनाना पड़ता है। फिर भी नवीन विधियों को विकसित करने में प्रथाओं का विशेष हाथ हो सकता है,
क्योंकि इनमें कई पीढ़ियों का सफल अनुभव सम्मिलित रहता है। नए तरीकों को विकसित करने में इन पुराने अनुभवों के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता।
क्योंकि इनमें कई पीढ़ियों का सफल अनुभव सम्मिलित रहता है। नए तरीकों को विकसित करने में इन पुराने अनुभवों के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता।
(३) प्रथाएँ व्यक्तित्व-निर्माण में सहायता करती हैं :
व्यक्तित्व-निर्माण में वास्तव में प्रथाओं का अत्यधिक महत्व होता है। मानव-प्राणी का जन्म ही एक प्रथा से आरम्भ होता है
, इसके उपरान्त प्रथाओं में ही वह चलता है, बड़ा होता है और प्रथाओं के अनुसार ही उसका मृत्यु-संस्कार भी होता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह प्रथाओं से घिरा रहता है। उसका समाजीकरण होता है इन प्रथाओं के ही सन्दर्भ में; और इस प्रकार उसका व्यक्तित्व भी प्रथाओं से पर्याप्त रूप में प्रभावित होता है। यदि यह कहा जाए कि प्रथाएँ व्यक्तित्व निर्माण का एक आवश्यक पहलू हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। चूँकि प्रथाओं के आधार पर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है अतः एक समाज के व्यक्तियों के व्यक्तित्व में थोड़ी-बहुत एकरूपता के कारण सामाजिक संगठन पनपता है और सामाजिक संघर्ष की भावनाएं कम हो जाती है।
, इसके उपरान्त प्रथाओं में ही वह चलता है, बड़ा होता है और प्रथाओं के अनुसार ही उसका मृत्यु-संस्कार भी होता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह प्रथाओं से घिरा रहता है। उसका समाजीकरण होता है इन प्रथाओं के ही सन्दर्भ में; और इस प्रकार उसका व्यक्तित्व भी प्रथाओं से पर्याप्त रूप में प्रभावित होता है। यदि यह कहा जाए कि प्रथाएँ व्यक्तित्व निर्माण का एक आवश्यक पहलू हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। चूँकि प्रथाओं के आधार पर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है अतः एक समाज के व्यक्तियों के व्यक्तित्व में थोड़ी-बहुत एकरूपता के कारण सामाजिक संगठन पनपता है और सामाजिक संघर्ष की भावनाएं कम हो जाती है।
(४) प्रथाएँ समाज के लिए कल्याणकारी होती हैं :
प्रथाएँ व्यर्थ के अन्धविश्वासों और कुसंस्कारों का के वल संग्रह मात्र नहीं हैं। वास्तव में इनकी कुछ अपनी उपयोगिताएँ होती हैं। यह सच है कि प्रथाएँ तर्कविहीन होती हैं, अर्थात् प्रथाओं द्वारा संचालित क्रियाओं को तार्किक आधार पर नहीं समझा जा सकता, फिर भी इनका विकास किसी सामाजिक हित को दृष्टि में रखकर ही किया जाता है। कम-से-कम इतना तो निश्चित रूप से ही कहा जा सकता है कि जिस समय किसी प्रथा का प्रादुर्भाव होता है, उस समय वह समाज के सभी व्यक्तियों के हितों की पूर्ति करती है। यह हो सकता है
कि भविष्य की परिवर्तित अवस्थाओं के साथ अपनी रूढ़िवादी प्रकृति के कारण कुछ प्रथाएँ अपना अनुकूलन करने
कि भविष्य की परिवर्तित अवस्थाओं के साथ अपनी रूढ़िवादी प्रकृति के कारण कुछ प्रथाएँ अपना अनुकूलन करने
में असफल रहें और इसीलिए उनके द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो। ऐसी प्रथाएँ बहुधा समाज की प्रगति में बाधक भी हो जाती हैं। परन्तु कुछ अनुपयोगी प्रथाओं का चलन देखकर हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि प्रथाएँ अर्थहीन व निरर्थक होती हैं।
(५) प्रथाएँ सामाजिक जीवन में एकरूपता उत्पन्न करती हैं :
प्रथाएँ विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से संबंधित कुछ निश्चित व्यवहार--प्रतिमानों (behavioral norms) को प्रस्तुत करती हैं और समाज के सदस्यों पर यह दबाव डालती हैं कि वे उनको व्यवहार में लाएँ। इसका परिणाम यह होता है कि समाज के लोग अनेक परिस्थितियों में एक-सा व्यवहार करते हैं। इससे सामाजिक जीवन में एकरूपता पनपती है।
(६) प्रथाएँ सामाजिक संगठन का स्वरूप हैं :
प्रथाएँ सामाजिक संगठन को भी बढ़ावा देती हैं। उदाहरणतः विवाह प्रथा सामाजिक संगठन को सहायता प्रदान करती हैं। इस प्रथा को न मानने से व्यक्ति विशेष की सामाजिक निन्दा होती है।
प्रथाओं का सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्व है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करती हैं। यद्यपि इनके पीछे ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं होती
जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिए दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती हैं, अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है क्योंकि नए व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है।
प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है।
जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिए दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती हैं, अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है क्योंकि नए व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है।
प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है।
इसका एक विशेष कारण यह है कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। प्रथाओं के इसी व्यापक प्रभाव को दे खते हुए शेक्सपीयर ने प्रथाओं को ‘क्रूर प्रथा’, मॉन्टेन ने ‘गुस्सेबाज व दगाबाज स्कूल-मास्टरनी’, बेकन ने ‘मनुष्य के जीवन का प्रधान न्यायाधीश’ और लॉक ने ‘प्रकृति से भी बड़ी शक्ति’ कहा है। जिन्सबर्ग ने प्रथाओं की सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका के वर्णन की व्याख्या करते हुए लिखा है,
‘‘निश्चय ही आदिम युग के समाजों में प्रथा जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त रहती है और व्यवहार की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बातों में भी उसका हस्तक्षेप होता है; और सभ्य समाजों में प्रथा का प्रभाव साधारणतया जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक होता है। प्रथा की शक्ति इसी बात में निहित है कि यह कार्य की समरूपता से प्राप्त होने वाली उपयोगिता से समाज को समृद्ध करती है। सामाजिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में, जैसा कि बेगहॉट का कहना है, कि इस बात का बहुत ही अधिक महत्व रहा होगा कि कुछ ऐसे सामान्य नियम बनाए जाएँ जो लोगों को एक सूत्र में बाँधें, उनको एक ही प्रकार का व्यवहार करने के लिए मजबूर करें; और उनको यह बताएँ कि वे एक-दूसरे से क्या आशा करें। इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि प्रथा को जो कुछ अधि-सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त था और उनको तोड़ने या उनकी उपेक्षा करने के लिए जो कठोर दण्ड दिया जाता था, वह बहुत-कुछ इसी कारण कि लोग सहज ही प्रथा के महत्व का अनुभव करते हैं।’’
इसीलिए तो प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है और इसके बल पर ही ये व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित व संचालित करती हैं और इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।
प्राचीन समाज छोटा और सरल होता था और प्रत्येक व्यक्ति एक-दू सरे को बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से जानता-पहचानता था। साथ ही, सामाजिक जीवन में न तो परिवर्तन शीघ्रता से होता था और न ही सामाजिक समस्याएँ गम्भीर थीं। इसलिए प्रथाओं के द्वारा ही सामाजिक नियन्त्रण का कार्य सरलता से हो जाता था। परन्तु आधुनिक समाज में प्रथाएँ बिलकुल अपर्याप्त हैं और केवल इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण आज असम्भव है। इसके चार प्रमुख कारण हैं-
(1) आधुनिक समाज बहुत जटिल होता है। आज के समाज में कितनी ही विशेष-विशेष प्रकार की समिति और संस्थाएँ हैं और सभी अपने-अपने स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति करना चाहती हैं। इसी कारण आधुनिक समाज में संघर्ष की सम्भावनाएँ भी अधिक हैं। प्रथाओं के द्वारा इन पर नियन्त्रण रखना असम्भव है।
(2) आधुनिक समाज में परिवर्तन बहुत जल्दी-जल्दी होता है, इस कारण सामाजिक आवश्यकताएँ भी शीघ्रता से बदलती हैं। पर प्रथाएँ रूढ़िवादी होती हैं, इसलिए इनके द्वारा बदलती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती।
(3) आधुनिक समाज में अने क प्रकार के समूह पास-पास रहते हैं। हो सकता है कि इनमें से प्रत्येक की प्रथाएँ अलग-अलग हों। ऐसी अवस्था में प्रथाओं के आधार पर सामाजिक संगठन व एकता कदापि स्थापित नहीं हो सकती।
(4) आधुनिक समाज में अने क समूह ऐसे होते हैं जोकि बहुत ही शक्तिशाली होते हैं। उन पर प्रथा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः इन पर नियन्त्रण रखन प्रथा का कार्य नहीं है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक समाज के लिए प्रथाएँ अपर्याप्त हैं और इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण का सम्पूर्ण कार्य कदापि नहीं किया जा सकता है; यही कारण है कि आज प्रथाओं का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और कानून का महत्व बढ़ रहा है।
अनेक परंपरागत कृत्य अथवा नियम निरंतर जनविश्वास का संबल पाते रहने के कारण चलन या रूढ़ि मान लिए जाते हैं। इनके वास्तविक अर्थ या मूल तात्पर्य का पता किसी को नहीं होता, तो भी विशेष अवसरों पर लोग इनका पालन करते ही हैं। इनमें से बहुतों का पालन न करने से जहाँ केवल सामाजिक अप्रतिष्ठा की आशंका रहती हैं, वहां कुछ ऐसे भी चलन होते हैं जिन्हें पूरा न करने पर दैवी विपत्तियों अथवा विभिन्न प्रकार की हानियों का भय रहता है। कुछ रूढ़ियाँ इस प्रकार की भी होती हैं जिन्हें छोड़ देने पर न तो प्रतिष्ठा को किसी प्रकार का धक्का लगता है और न ही जिनका पालन न करने से किसी दैवी विपत्ति की आशंका रहती है। तो भी अवसर उपस्थित होने पर लोग उनका पालन यंत्रवत् पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते चलते हैं। जन्म, मरण, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा अन्यान्य पुण्य अवसरों एवं विधि संस्कारों के समय किए जाने वाले
विभिन्न कृत्यों को इनके अंतर्गत गिना जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधुर का विवाह कन्या से पहले अर्कवृक्ष के साथ कर दिया जाता है ताकि उक्त व्यक्ति की दूसरी पत्नी के मरने का भी यदि विधिविधान हो तो उसके स्थान पर अर्कवृक्ष ही नष्ट हो, नई वधू नहीं। विवाह के अवसर पर वरयात्रा के समय वर की माता कुएँ में पैर लटकाकर बैठ जाती है और वहाँ से वह तभी हिलती है
जब उसका पुत्र उसके दूध का मूल्य चुका देता है। कदाचित् इस चलन के पीछे युद्ध जीतने के बाद ही कन्या को प्राप्त कर सकने की मध्यकालीन उस सामंती प्रथा का अवशेष काम कर रहा होता है जिसके अनुसार माता विवाह के पहले पुत्र से वचन लेती थी कि वह वधू को साथ लेकर ही लौटेगा, खाली हाथ नहीं। इन सभी रूढ़ियों या चलनों को "सामाजिक परंपरा' (सोशल कॉन्वेंशन) की संज्ञा दी जा सकती है। इस सामाजिक परंपरा की तरह संगीत, कला तथा साहित्य अथवा काव्य आदि के क्षेत्रों में
भी समय-समय पर कुछ अभिप्राय प्रयोग किए जाते हैं। प्रयोग धीरे-धीरे चलन का रूप धारण करके रूढ़िगत हो जाते हैं, तो भी इनका अभिप्रायपक्ष मुखर रहता है और इन्हें रूढ़ि से कुछ विशिष्ट परंपरागत अभिप्रायों (मोटिफ़्स) के रूप में ही स्वीकार किया जाता है
विभिन्न कृत्यों को इनके अंतर्गत गिना जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधुर का विवाह कन्या से पहले अर्कवृक्ष के साथ कर दिया जाता है ताकि उक्त व्यक्ति की दूसरी पत्नी के मरने का भी यदि विधिविधान हो तो उसके स्थान पर अर्कवृक्ष ही नष्ट हो, नई वधू नहीं। विवाह के अवसर पर वरयात्रा के समय वर की माता कुएँ में पैर लटकाकर बैठ जाती है और वहाँ से वह तभी हिलती है
जब उसका पुत्र उसके दूध का मूल्य चुका देता है। कदाचित् इस चलन के पीछे युद्ध जीतने के बाद ही कन्या को प्राप्त कर सकने की मध्यकालीन उस सामंती प्रथा का अवशेष काम कर रहा होता है जिसके अनुसार माता विवाह के पहले पुत्र से वचन लेती थी कि वह वधू को साथ लेकर ही लौटेगा, खाली हाथ नहीं। इन सभी रूढ़ियों या चलनों को "सामाजिक परंपरा' (सोशल कॉन्वेंशन) की संज्ञा दी जा सकती है। इस सामाजिक परंपरा की तरह संगीत, कला तथा साहित्य अथवा काव्य आदि के क्षेत्रों में
भी समय-समय पर कुछ अभिप्राय प्रयोग किए जाते हैं। प्रयोग धीरे-धीरे चलन का रूप धारण करके रूढ़िगत हो जाते हैं, तो भी इनका अभिप्रायपक्ष मुखर रहता है और इन्हें रूढ़ि से कुछ विशिष्ट परंपरागत अभिप्रायों (मोटिफ़्स) के रूप में ही स्वीकार किया जाता है
धर्म व रूढ़ी प्रथा में अंतर
धर्म की उत्पत्ति अलौकिक, अधिप्राकृतिक, अधिभौलिक
आस्था से हुई है। जबकि रूढी व प्रथा की उत्पत्ति लौकिक, प्राकृतिक व
भौतिक सत्य व्यवहार से हुई है।
उदाहरण के लिए - धर्म में सर्वश्रेष्ठ पुरूष अलौकिक (काल्पनिक) ईश्वर,
भगवान है। जबकि रूढीव प्रथा में सर्वोच्च शक्तिमान प्रकृति को माना गया
धर्म अंधविश्वास पर आधारित होते है जैसे - आदमी के गर्दन पर हाथी,
सुअर, गधे, घोडे का सिर लगाना। हजारों भजा वाली देवी, हवा से पैदा
होने वाला भगवान, मुंह से पैदा होने वाले भक्त आदि अप्राकृतिक
काल्पनिक शक्तियों पर विश्वास किया जाता है। जबकि रूढ़ी व प्रथा में
साजा, सरई पेड़, पूर्वज, नदी, नाले,झरना, पहाड़, अग्नि,हवा,पानी,धरती,
आकाश आदि को शक्ति का स्रोत मानते हुये उसके प्रति कृतज्ञता का भाव
व्यक्त करते हुए सेवा अर्जी विनती की जाती है। अतः यह अंध विश्वास न
होकर कुदरत के प्रति भाव व्यक्त करने का एक व्यवहारिक तरीका है व
अपने आप को प्रकृति के दर्शन के अनुसार संस्कारित करने की विधि है।
धर्म दर्शन चमत्कार पर आधारित होते है जैसे - सारे भगवान अपने
मायावी शक्तियों द्वारा चमत्कार कर अपना प्रभाव दिखाते है इस प्रकार से
नहीं बल्कि प्राकृतिक व्यवहार पर आधारित है।
धर्म में न्याय अन्याय के फैसला के लिए भगवान के अवतार लेने अथवा
सहायता करने के लिए भगवान के आने की आशा की जाती है। जबकि
रूढी व प्रथा में न्याय अन्याय का फैसला व सहायता समाज द्वारा किया
जाता है।
संवैधानिक जानकारी रूढी प्रथा का पोषक
संवैधानिक व माननीय न्यायलयों द्वारा दिये गये कुछ निर्णय – व कुछ दिए गए अनुच्छेद व धराये
भारत के संविधान में मान्यता - भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 (3)
(क) में इस रूढी व प्रथा को विधि का बल प्राप्त है।
अनुच्छेद 244 (1),244(2) में हमारी इस रूढी प्रथा को प्रशासन एंव
नियंत्रण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस क्षेत्र में आदिवासी ही सरकार है।
क्योकि लोकसभा व विधान सभा द्वारा बनाया गया कानून इस क्षेत्र में बिना
लोक अधिसूचना के सीधा लागू नहीं होता है। इस पर इस क्षेत्र के बैगा
मुखिया, मांझी, गायता, पटैल (मुकद्दम)की स्पष्ट अनुमति की जरूरत
होती है। इस क्षेत्र में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त मौलिक
अधिकार सामान्य लोगों के लिए इसके पैरा (5) व (6) के अनुसार
लागू नही है। अर्थात कोई भी बाहरी लोग यंहा के रूढी व प्रथा से बिना
अनुमति के प्रवेश, विचरण, व्यापार, उपनिवेश, निवास, प्रचार नहीं कर
सकते।
माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला कैलाश बनाम महारााष्ट्र
सरकार 05/01/2011 -आदिवासी ही इस देश का असली
मालिक है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(1)एंव (2)- इसमें
आदिवासियों के स्वशासन व नियंत्रण के अधिकार की बातें है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 (3)(क) - इसमें
आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था अर्थात रूढी व प्रथा को
विधिका
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के पैरा (5)(6)- के
अनुसार आदिवासियों के रूढी प्रथा क्षेत्र में गैर लोगों के मौलिक
अधिकार बिना अनुमति के लागू नहीं होगें।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(1) के
कण्डिका(5)(क) के अनुसार आदिवासियों के स्वशासन
व्यवस्था रूढी व प्रथा के विरूद्ध लोकसभा व विधान सभा द्वारा
बनाया गया कोई भी कानून लागू नहीं होगा।
6. माननीय उच्चतम न्यायालय के समता का फैसला 1997 -
अनुसूचित क्षेत्र में केन्द्र व राज्य सरकार की एक इंच भी जमीन
नहीं है।
7. माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला पी.रमा रेडडी 1998-
अनुसूचित क्षेत्र में सरकार एक व्यक्ति के समान है।
माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला केरल सरकार बनाम .
08/07/2011 - जिसकी जमीन उसकी खनिज।
माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला वेदान्ता/उड़ीसा सरकार की
अनुसार - लोकसभा न विधान सभा सबसे ऊँची ग्राम सभा (भारत
संविधान के भाग 9 के अनुसार)
अनुसूचित क्षेत्रों में गैर आदिवासियों की जमीन ही नहीं है तो वे इस क्षेत्र के
निवासी नहीं इसलिए अनुसूचित क्षेत्रों में 100 प्रतिशत स्वशासन का
अधिकार आदिवासियों के पास है। अगर नहीं है , तो होना चाहिए। किन्त
राज्य सरकार व केन्द्र सरकार यहां सामान्य क्षेत्र का कानून व सामान्य
क्षेत्र की व्यवस्था लागू की गई है। यह संविधान का उल्लघंन है।
साथ ही उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये फैसलों के विरूद्ध कार्य किये
जा रहे है।
0 Comments
अपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !