किरा भात एक सामाजिक कुरीति
छत्तीसगढ़ के सामाजिक परिवेश में एक सामाजिक कुरीति देखने को मिलता है जिसे फुलपरी या किरा भात के नाम से जाना जाता है इसे क्षेत्र के अनुसार भिन्न भिन्न नामो से भी जाना जाता है
परंतु बस्तर क्षेत्र और राजनांदगांव क्षेत्र में इसे मुख्यतः किरा भात या फुलपरी,फुलपरा के नाम से जानते है बांकी अन्य जिलों में किरा भात के नाम से जाना जाता है अब जो नही सुने है या थोड़ा बहुत सुने हो उनके मन में इसको जानने का जिज्ञासा हो रही होगी जी हा दोस्तो तो चलो आपको विस्तार से बताते है
की ये किरा भात वाली बला होती क्या है
कीड़ा पड़ने के कारण (लक्षण)
साफ सफाई की कमी के कारण और शारीरिक कमजोर लोगों को होता है जिनका रोग प्रतिरोधकता क्षमता कम होती है उन्हें यह होता है यह किसी उम्र विशेष में होने वाले कोई वंशानुगत बीमारी नही है
अपितु यह किसी भी उम्र और किसी भी लिंग के लोगों को हो सकता है जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है या जिनके हीमोग्लोबिन में थ्राम्बोप्लास्टिक की कमी पाया जाता है उनको यह होने का चांस अधिक होता है साथ ही शुगर पेशेंट जिनका घाव जल्दी ठीक नही होता और जो घाव के प्रति लापरवाही करते है
उन्हें होने का चांस अधिक होता है ठीक ऐसे ही एक और बीमारी होता है जिसे
न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा)
कहते है इसी रोग के कारण मिर्गी वगेरा आता है यह फूलपरी से बिल्कुल भिन्न है फुलपरी में कीड़ा सिर के ऊपर घाव में होता है जबकि न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा) में कीड़ा सिर के अंदर होता है सिस्ट के रूप में जिन्हें एक्सरे के द्वारा देखा जा सकता हैडॉक्टरों का मानना है की यह कच्चे सब्जी सलाद या अधपके पत्ता गोभी खाने से या सुवर इन्फेक्टेड सुवर मिट खाने से न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा) होता है इनका कई वीडियो आपको यूट्यूब और कई सारा जानकारी आपको गूगल में हजारो की संख्या में मिल जाएगा आगे चर्चा करते है फुलपरी की
सिर के ऊपरी भाग के कीड़े एंव शरीर के अन्य हिस्सो में हुए कीड़े को मारने का तरीका(उपाय)
अभी तक जो कारगार तरीका निकालकर आया है उसमे है एंटीसेफ्टिक के लिए जो हल्दी की गांठ को अच्छे से पानी में भिगोकर पीसकर घाव को साफ कर लेप करना व लहसुन को भी थोड़ा भूनकर लेप करना जिससे कीड़े आसानी से मर जाते है और हल्दी से छोटी मोटी फंगर होने वाला रहता है वो भी नष्ट हो जाता है
अगर इसके अलावा भी कोई उपाय है तो कमेंट में अपना रॉय पोस्ट जरूर करिएगा जंहा तक अगर बैगा या जो फुलपरी की उपचार करते है उनकी इलाज जाने तो कांफी मंहगा और कई प्रकार के मिक्स दवाई यूज़ करते है और वे यह दवाई बताने में संकोच करते है वे शायद इसलिए नही बताते होंगे
की अगर बता देंगे तो हमारे पास कौन आएगा करके खैर जो भी चलो बात करते है हमारे यंहा (छत्तीसगढ़) जबतक वह इंसान पूरी तरह ठीक नही हो जाता तब तक उस व्यक्ति को नीम और नीबू के काढ़े से नहलाया जाता है तांकि उनके शरीर में और अगर फंगर हो रहे होंगे वह नष्ट हो करके अब चलो आते है इनके सामाजिक पहलू में
फुलपरी/फुलपरा (कीड़ा हुआ व्यक्ति)
जिस व्यक्ति के शरीर पर कीड़ा हो जाता है उसे फुलपरी या फुलपरा कहा जाता है छत्तीसगढ़ में और इसे छत्तीसगढ़ में एक अशुभ या एक दोष माना जाता है यह बहुत कम होता है या नगण्य माना जा सकता है यह लगभग 1 लाख प्रतिव्यक्ति में किसी 1 को हो सकता हैनही तो वो भी नगण्य माना जा सकता है , यह फुलपरी/फुलपरा जो कीड़ा होता है यह मुख्यतः सिर के ऊपरी हिस्से में होता है और जंहा पर होता है वहां गड्ढा हो जाता है थोड़ा सा,
और यह शरीर के अन्य अंगों में भी घावों में हो सकता है अगर सही समय पर घावों की सही सही देखरेख न किया जाए तो और लापरवाही बरती जाए या सही समय में इलाज न किया जाए तो इनमें कीड़े पड़ने की सम्भावना अधिक रहती है यह कई कारणों से हो सकते है जैसे साफ सफाई में लापरवाही ,
खानपान में लापरवाही और घावों के ईलाज के प्रति लापरवाही आदि , जिस व्यक्ति पर कीड़ा हो जाता है उसे मरे समान माना जाता है और व्यक्ति इलाज के बाद बच भी जाता है तो उन्हें सामाजिक दोषी मानकर फुलपरी/फुलपरा भात खिलाना पड़ता है , और इसमें वह सभी क्रियाकलाप को शामिल किया जाता है
जो एक मृत्युभोज में किया जाता है और यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी की मृत्युभोज से भी बढ़कर फुलपरी और फुलपरा का नियमधियम किया जाता है और उस व्यक्ति को एक प्रकार का दोषी या अशुभ माना जाता है,,
सामाजिक कुरीति को त्यागना अतिआवश्यक है
यह फुलपरी/फुलपरा हुए व्यक्ति को सामाजिक रूप से जो मृत्युभोज जैसा समाज को खिलाना पड़ता है तथा उस व्यक्ति को एक दंश झेलना पड़ता है जिससे वह व्यक्ति खुद को एक हीन व्यक्ति मान लेता है तथा इसी के चलते और कई सारी अप्रिय घटना घटित होता है समाज में परिवार में इसलिए मेरा मानना है
की इस सामाजिक कुरीति को दूर करने के लिए हम सभी को प्रयास करनी चाहिए
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अपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !