मेरिया-विद्रोह (1842-1863)
दन्तेवाड़ा की आदिम जनजातियों ने उन्नीसवीं शताब्दी में आंग्ल-मराठा- शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। यह आत्मरक्षा के निमित्त एक विद्रोह था। उनकी धरती परविदेशियों के घुसपैठ के विरुद्ध एक विद्रोह था। यह उनकी परम्परा और रीतिरिवाजों पर होने।वाले आक्रमण के विरुद्ध एक विद्रोह था। ब्रिटिश-प्रशासक स्थानीय लोगों तथा उनके विचित्र रीतिरिवाजों, रूढ़ियों तथा। शिष्टाचारों से अपरिचित थे।
यदि उन्हें इन सभी बातों का उचितज्ञान होता, तो उनका आचरण भी संयत होता तथा विद्रोह की स्थिति न बनती।।आदिवासियों का मेरिया-बलि के प्रति अंधविश्वास-दन्तेवाड़ा मंदिर में प्रचलितमें प्रचलित नरबलि का एक जघन्य संस्कार-दक्षिण बस्तर में आदिवासी विद्रोह का एक प्रमुख कारण बना। ग्रिग्सन (1942:7) के अनुसार 'ब्रिटिश-सरकार ने बस्तर में मेरिया या नरबलि को। समाप्त करने के लिए बस्तर के राजा भूपालदेव को आदेश दिया था। 1837 ई. के बाद उन्हें यह लगातार सूचना मिल रही थी कि बस्तर में नरबलि प्रचलित थी। परिणामस्वरूप 1842ई. में बस्तर के दीवान लाल दलगंजनसिंह को ब्रिटिश रेजीडेण्ट ने नागपुर बुलवाया और उनसे तहकीकात की। लाल दलगंजनसिंहने यह स्वीकार किया कि बस्तर में नरबलि प्रचलित है।।तदनुसार नागपुर-राजा की एक सुरक्षा- टुकड़ी 1842 ई. से 1863 ई. तक के बाईस वर्षों की अवधि के लिए दन्तेवाड़ा के मन्दिर में नियुक्त की गयी, जो नरबलि को रोकने के लक्ष्य से वहाँ भेजी गयी थी। ब्रिटिश सरकार के इस कार्य से आदिवासियों ने अपनी परम्परा पर बाहरी आक्रमण समझा और उन्होंने विद्रोह कर दिया। तहकीकात से यह कभी सिद्ध नहीं हो सका कि इस प्रकार की बलि दी जाती हैं। इस बात के बावजूद कि बस्तर में नरबलि-प्रकरण के कानूनी मुद्दे नहीं बन पाए, लोगों के बीच यह आम राय रही है कि बस्तर के दन्तेवाड़ा में नरबलि होती थी। 1842 ई. में नागपुर राज की कार्यवाही उड़ीसा के पहाड़ी क्षेत्रों के इसरिपोर्ट पर आधारित थी कि दन्तेवाड़ा में नरबलि के लिए बाहर से लोगों को पकड़ा जाता था और बस्तर में एक बार में। कम से कम बीस लोगों की बलि दी जाती थी । सर्वाधिक बलि 1826 ई. में हुई थी, जिसमें। पच्चीस या सत्ताईस लोगों की उस समय बलि भी दी गयी थी, जब बस्तर के राजा महिपाल देव (1800-1842) नागपुर के राजा से मिलने जा रहे थे। 1838 ई. में सबसे बड़ी बलि कही गयी थी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आदिवासी लोग नरबलि के मांस का प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। 1855 ई.
में उडीसा-क्षेत्र के एजेण्ट कैप्टेन जे. मेकविकार महिपाल देव के पुत्र भूपालदेव तथा दीवान दलगंजनसिंह से मिले थेऔर उन्होंने अनेक रिपोर्टों में निहित तथ्यों के परीक्षण के लिए दन्तेवाड़ा की यात्रा की थी। वहां उन्होंने देखा कि दन्तेश्वरी का आतंक सर्वत्र प्राप्त था। उनके कैम्प के एक व्यक्ति ने यह स्वीकार किया था कि बलि देने वालों (मेरिया) ने हाल में ही उसे पकड़ने की कोशिश की थी। एक महिला ने यह भी बताया कि छह वर्ष पहले (1849) लाल दलगंजनसिंह के आदेश से एक व्यक्ति की बलि । उस समय दी गयी, जब राज्य में कुछ अशान्ति थी। दोनों ने यह कहा कि यद्यपि वे कुछ भी। ठोस प्रमाण देने में असमर्थ हैं, किन्तु नरबलि यहाँ पहले भी होती थी और आज भी होती है। मैकविकार ठोस प्रमाणों के अभाव में कुछ कर नहीं सके। इसके बादरायपुर के डिप्टी कमिश्नर सी इलियट को जब ऐसी शिकायत मिली तो उन्होंने बिना किसीतहकीकात के जगदलपुर तथा दन्तेवाड़ा में मुसलमान- पुलिस- गाई नियुक्त करदिया और राजा को चेतावनी दी कि यदि नरबलि का कोई भी मामला पकड़ा जाएगा, तो परिणाम बहुत बुरा होगा। 1859 ई. में पुनः केप्टेन इलियट ने नागपुर-प्राविंस के कमिश्नर को लिखा कि बस्तर में नरबलि हो रही है और उसे तुरंत बन्द करने के लिए उड़ीसा-क्षेत्र में जो उपाय किये गए। हैं, उन्हीं का इस्तेमाल किया जाय। किन्तु राजा भोपालदेव ने पहले की ही तरह इसका खंडन किया और कहा कि ऐसी घटना न तो आज हो रही है
और न पहले कभी हुई। 1862 ई. में ग्लसफर्ड ने लिखा कि दन्तेवाड़ा के मन्दिर से गार्ड हटा दिए जायँ। 1863 में यह पुलिस- गार्ड हटा लिया गया और पाँच वर्षों के बाद मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर ने कहा कि बस्तर में अब किसी भी प्रकार की नरबलि नहीं होती है। बस्तर के इस विचित्र संस्कार के बारे में जब ब्रिटिश सरकार को सूचना मिली तो उसने ऐसे अनुष्ठान को समाप्त करना चाहा। अरब- सैनिकों की एक मराठा-सेना 1842 ई. में दन्तेवाडा भेजी गयी थी जो वहाँ 22 वर्षों तक मौजूद रही। दन्तेश्वरी के भय से दण्डामी माडिया लोगों ने उन सैनिकों की कोई सहायता नहीं की। दन्तेवाडा-क्षेत्र को निषिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। बाद में रायपर के तहसीलदार शेरखाँ को नरबलि दबाने के लिए वहाँ नियुक्त किया गया। दीवान दलगंजनसिंह को हटा दिया। गया तथा वामनराव को दीवान नियुक्त किया गया। इस खतरनाक मोड़ परआदिवासियों में पुनः विद्रोह की ज्वाला भडक उठी, जिस पर जिया तथा उसके परिवार ने आहुति दी। दन्तेश्वरी के पुजारी होने के नाते श्यामसुंदर जिया की बस्तर में बहुत अधिकप्रतिष्ठा थी। उसने नरबलि के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध किय
ा और आदिवासियों से कहा कि यदि बस्तर से नरबलि समाप्त हो गयी, तो दन्तेश्वरी असंतुष्ट हो जाएँगी। तब ब्रिटिशराज बस्तर को छीन लेगा और सभी आदिवासी गुलाम हो जाएँगे। हिड़मा-माझी के नेतृत्व में माड़िया-विद्रोहियों की यह माँग थी कि दन्तेवाड़ा से सैनिक हटा लिए जायँ ।
वामनराव के आदेश से मुसलमान-सैनिकों ने माडिया लोगों पर जुल्म करना प्रारंभ कर दिया। अनेक माड़िया गाँव जला डाले गये । अनेक विद्रोही पकड़ लिए। गए। हिडमा बच गया। उसने विद्रोहियों को पुनः संगठित किया तथा वे नागपुर के सैनिकों पर छिप-छिप कर आक्रमण करने लगे। ऐसी स्थिति में रायपुर से सेना बुलानी पड़ी। विद्रोह को पूरी | तरह दबा दिया गया। अरब-सैनिकों ने गाँवों से ही नहीं, आदिवासी महिलाओं से भी बलात्कार | किया । (विस्तृत विवरण के लिए देखिए मेरी पुस्तक 'हिस्ट्री आफ दि प्यूपिल आफ बस्तर,1992,46-57)। इस मेरिया-विद्रोह पर एक दंडामी माड़िया लोकगीत भी मिलता है, जो मेरी पूर्वोक्त | पुस्तक (पृ.55-57) में संग्रहीत है । गीत का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है (शुक्ल 1982,227-8)जब हम बस्तर में मेरिया-विद्रोह के इतिहास को देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि उक्त विद्रोह प्रकृत्या प्रतिशोधी था। आदिवासी यह नहीं चाहते थे कि दन्तेवाड़ा में सेना को नियुक्त कर देवालय को अपवित्र कर दिया जाय। लम्बी अवधि तक उसअचंल में मुसलमान-सेना की उपस्थिति से आदिवासियों के एक अनवरत शोषण का चक्रप्रारम्भ हुआ। फयूरेर-हैमेनडोर्फ
(Aboriginal Rebellions in Deccan, Man in India No. 4, 1945, pp. 208-9)ने ठीक ही कहा है-मेरिया-विद्रोह का विवेचन उक्त पृष्ठभूमि पर ही करना चाहिए। ब्रिटिश-शासन-काल में ब्रिटिशों के खिलाफ बस्तर में पहला विद्रोह 1824-25 में हुआ था। इस तिथि से सुस्पष्ट,है कि मराठा-अंग्रेज संधि के छह वर्षों के बाद ही ब्रिटिशों के खिलाफ बस्तर में असंतोष पनपने लगा था। ऐसा इसलिए हुआ कि यहाँ के राजा, जमींदार तथा आदिवासियों की जड़ों को उखाड़ने की प्रक्रिया हो रही थी इनकी परम्पराओं पर कुठाराघात हो रहा था। इससे पहले तक ये बस्तर के जंगलों में जिस आजादी के साथ विचरण कर सकते थे, उनकी यह आजादी छीनी जा रही थी। उनकी वनदेवी रो रही थी। उनकी दंतेश्वरी अपवित्र हो रही थी। आंग्ल-मराठा- सैनिकों को यहाँ के रीतिरिवाज और तौर-तरीकों का ज्ञान नहीं था। वे अपने तौर-तरीकों से यहाँ की जनजातियों को अपमानित कर रहे थे। यदि मेरिया की प्रतीकात्मक संरचना को समझने का प्रयास किया जाता, तो इस विद्रोह की ऐसी दीर्घकालिक परिणति नहीं होती


(Aboriginal Rebellions in Deccan, Man in India No. 4, 1945, pp. 208-9)ने ठीक ही कहा है-मेरिया-विद्रोह का विवेचन उक्त पृष्ठभूमि पर ही करना चाहिए। ब्रिटिश-शासन-काल में ब्रिटिशों के खिलाफ बस्तर में पहला विद्रोह 1824-25 में हुआ था। इस तिथि से सुस्पष्ट,है कि मराठा-अंग्रेज संधि के छह वर्षों के बाद ही ब्रिटिशों के खिलाफ बस्तर में असंतोष पनपने लगा था। ऐसा इसलिए हुआ कि यहाँ के राजा, जमींदार तथा आदिवासियों की जड़ों को उखाड़ने की प्रक्रिया हो रही थी इनकी परम्पराओं पर कुठाराघात हो रहा था। इससे पहले तक ये बस्तर के जंगलों में जिस आजादी के साथ विचरण कर सकते थे, उनकी यह आजादी छीनी जा रही थी। उनकी वनदेवी रो रही थी। उनकी दंतेश्वरी अपवित्र हो रही थी। आंग्ल-मराठा- सैनिकों को यहाँ के रीतिरिवाज और तौर-तरीकों का ज्ञान नहीं था। वे अपने तौर-तरीकों से यहाँ की जनजातियों को अपमानित कर रहे थे। यदि मेरिया की प्रतीकात्मक संरचना को समझने का प्रयास किया जाता, तो इस विद्रोह की ऐसी दीर्घकालिक परिणति नहीं होती
सन्दर्भ:-
बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )
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