Header Ads Widget

 हल्बा समाज एप

नया लेख

6/recent/ticker-posts

कोई विद्रोह 1857-1859 (आर्यन चिराम) // koi vidroh-1859 (aaryan chiram)

पोस्ट दृश्य



    हल्बा समाज,HALBA SAMAJ,मेरिया विद्रोह,MERIYA VIDROH,आर्यन चिराम,aaryan chiram,विद्रोह,vidroh,क्रांति,kranti,आदिवासी,adiwasi,छत्तीसगढ़,chhattisgarh,कोई विद्रोह,koi vidroh,



    कोई-विद्रोह (1857-1859)


    1857


    के मुक्ति- संग्राम की लपटें पूरी तरह शान्त भी नहीं हुई थीं कि दक्षिण बस्तर 
    में आदिवासी जनता ने शालवृक्षों के काटे जाने के खिलाफ अपने विद्रोह के झंडे को फहरा



    किया था। 1859 ई. के कटाई के मौसम में आदिवासी जनता से सहसा सर्वानुमति से यह निर्णय लिया कि अब बस्तर के एक भी शाल वृक्ष को काटने नहीं दिया जाएगा। इस विद्रोह



    का सुत्रपात भेजी
    , फोतकेल तथा कोतापल्ली के आदिवासी जमींदारों ने किया था। विप्लव का 
    प्रमख केन्द्र फोतकेल जमींदारी थी और धीरे-धीरे यह आक्रोश दक्षिण बस्तर की सभी जमींदारियों में फैल गया।

    इन जमींदारियों में रहने वाले आदिवासियों को उस समय कोई' कहा जाता था. जिन्हें आज हम दोर्ला तथा दण्डामी माडिया कहते हैं। कर्नल हॉग ने अपनी रिपोर्ट आफ विजिट टू



    जगदलपुर में इन जमींदारियों के विद्रोह का एक सजीव चित्र प्रस्तुत किया था। जानकेन के

    Census Report for 1871 of the Madras Presidency (मद्रास,1872) में भी

    इसका विवरण है। इन दोनों ने ही 'कोई-विद्रोह'


    को अपने सामने देखा था और अपने। 
    प्रतिवेदनों में लिखा था---'कोई लोग इन्द्रावती नदी के तट से लेकर निजाम-क्षेत्र के कम्मापेटा तक फैले हुए हैं। मैदानी क्षेत्रों के 'कोई' परम्परागत रूप से मानते हैं कि दो सौ वर्ष पहले। (अर्थात- 1671 के आसपास) वे दुर्भिक्ष तथा संघर्ष के कारण पहाडी क्षेत्रों से उतरकर



    मैदानी क्षेत्रों में आकर बस गए थे। बस्तर की पहाड़ियों पर रहने वाले 'गटा कोई' या 'पहाड़ी कोई भी इस बात को स्वीकार करते हैं।

    '


    बस्तर के 'कोई' लोगों में असंतोष के भडकने का मुल कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने यहाँ के जंगलों का ठेका हैदराबाद के व्यापारियों को दे दिया था। हैदराबाद का


    लकड़ी का व्यापारी हरिदास भगवानदास बहुत जालिम किस्म का व्यक्ति था और उसी ने बस्तर के सागौन को काटने का ठेका लिया था। 1859 के विद्रोह के अनेक कारणों में से एक कारण उसकी निष्ठुरता भी थी। वह मालिक मकबूजा के काटे गए सागौन के वृक्षों का। मूल्य भी नहीं चुकाता था। ब्रिटिश सरकार उसके विरुद्ध किसी भी प्रकार के शिकायत को


    नहीं सुनना चाहती थी।
                           हल्बा समाज,HALBA SAMAJ,मेरिया विद्रोह,MERIYA VIDROH,आर्यन चिराम,aaryan chiram,विद्रोह,vidroh,क्रांति,kranti,आदिवासी,adiwasi,छत्तीसगढ़,chhattisgarh,कोई विद्रोह,koi vidroh,
    1859


    तक दक्षिण बस्तर सागौन वृक्षों की ऊंची किस्म और सम्पन्नता के लिए 
    प्रसिद्ध था, यद्यपि यहाँ आवागमन का न कोई साधन था और न ही इस क्षेत्र का कोई राजनैतिक व आर्थिक महत्व था।

    'कोई' लोगों में एक सामन्ती व्यवस्था विद्यमान थी। वे 
    बस्तर के राजा की प्रभुसत्ता को स्वीकार करते हुए आदिवासी-प्रमख माझियों के अधीन थे। दक्षिण बस्तर में जब सागौन की कटाई का सिलसिला प्रारम्भ हुआ, तो बस्तर के आदिवासियों के गाँव हैदराबाद के ठेकेदारों के चंगुल में फँस गए। ग्रामवासियों का हर प्रकार से शोषण । हुआ। ब्रिटिश-सरकार हैदराबाद क्षेत्र में रेलवे की पटरियाँ बिछा रही थी Tumesh chiram   और उधर उसके


    लिए बस्तर के सागौन वृक्षों के कटने से बस्तर के आदिवासी पटरी
    ' पर उतर आए थे।


    प्रारम्भ में 'कोई' जनता परिस्थिति की गंभीरता को नहीं समझ सकी। उसने सोचा था

    । 
    कि शायद वृक्षों की कटाई का सिलसिला शीघ्र समाप्त हो जायेगा। किन्तु 'कोई प्रमुख' राम ।



    भोई (भोपालपटनम के जमींदार)
    , जुग्गा राजू तथा जुम्मा राजू (भीजी के जमींदार), नागुल दोरा। 
    (


    फोतकेल के जमींदार) तथा कुन्या दोरा ने परिस्थिति की गंभीरता को समझा था और ठेकेदारों 
    से लड़ने के लिए एकजुट होने की प्रतिज्ञा की थी। सभी ने माझी-प्रमुखों से मिलकर यह सामहिक निर्णय लिया कि अब से बस्तर से शाल का एक वृक्ष भी कोई व्यक्ति नहीं काट सकेगा। अपने इस निर्णय की सूचना उन्होंने हैदराबाद के ब्रिटिश-ठेकेदारों को दे दी। ब्रिटिश सरकार ने इसे अपनी प्रभुसत्ता को चुनौती मानी और उसने कटाई करने वाले मजदूरों


    के साथ बंदूकधारी सिपाही भेजे। आदिवासियों को जब यह खबर लगी तो वे भालों तथा मशालों को लेकर जंगल की ओर दौड़े। वहाँ उन्होंने लकड़ी की
    'टालों' को जला दिया तथा 
    'आराकसों' (आरा चलाने वालों) के शिरों को काट डाला (ग्लसफर्ड

    ,1862)


    उक्त विद्रोह की तुलना हम उत्तर भारत के 'चिपको आन्दोलन' से नहीं कर सकते हैं। 'चिपको-आन्दोलन' के पीछे आभिजात्य मानसिकता है, जब कि '


    कोई-आन्दोलन
    ' के पीछे आटविक मानसिकता का बोध होता है। एक शाल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का 
    इस आन्दोलन का नारा था। यह आन्दोलन इतना तीन था कि हैदराबाद के निजाम को से अपने लोगों को हटा लेना पड़ा। अन्त में हार मानकर ग्लसफर्ड को उक्त ठेकेदारी की प्रथा को समाप्त करना पड़ा।




    सागौन के उक्त व्यापार में चिन्तलनार- क्षेत्र के बंजारा भी शामिल हो गए थे। ऐसी
    स्थिति में दक्षिण बस्तर के आदिवासियों का सारा आक्रोश बंजारा लोगों के खिलाफ हो गया। था। दोर्ला तथा दण्डामी माड़िया-दलों ने बंजारा लोगों के कारवाँ को जगह-जगह लूटा। बापी राज के नेतृत्व में उन्होंने एक कारवाँ से 2500 रुपए छीन लिए थे। ऐसी स्थिति में ग्लसफर्ड ब्रिटिश सेना के साथ दक्षिण बस्तर आया। ब्रिटिश-सिपाहियों तथा आदिवासियों में निर्मित। होने वाली युद्ध की स्थिति को ग्लसफर्ड ने टाल दिया। इस प्रकार दक्षिण बस्तर में शान्ति की।

    स्थापना हुई तथा बंजारा एवं विद्रोहियों के बीच मनोमालिन्य कम हुआ।

    संक्षेप में 1859 ई का विद्रोह आदिम जनजातियों के आक्रोश का एक कूर रूप था। वे व्यापारी-वर्ग (बंजारा तथा ठेकेदार) से असंतुष्ट थीं और उन्होंने उनके खिलाफ शस्त्र उठा लिया था। इस विद्रोह में अनेक बंजारा तथा ठेकेदार मारे गए। उनकी अनाज की कोठियों


    को लूट लिया गया तथा बैलगाड़ियों को छीन लिया गया। इस विद्रोह के नेता जुग्गा राजू
    जुम्मा राजू, बापी राजू, नागुल दोरा, कुन्या दोरा, पाम भोई तथा रामसाय बहादुर लोग थे, जिनमें 


    संगठन की अदम्य क्षमता थी। उन्होंने भालों और तलवारों से यह लडाई लडी और उसे पूरी
    तरह जीत लिया। अपने शाल-वन की रक्षा के लिए उन्होंने जो आहुतियाँ दीं, वे बस्तर के इतिहास में अमर रहेंगी।





    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

    email:-aaryanchiram@gmail.com

    Contect Nu.7999054095

    CEO & Founder

    Post a Comment

    0 Comments

    lt;!-- -->