कोटपाड-सन्धि:
दिनांक 6-4-1778 अजमेरसिंह के विरुद्ध जैपुर के राजा विक्रमदेव ने दरियावदेव की सहायता की थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस समय तक जैपुर- राज्य कम्पनी-शासन के अधिकार में चला गया था तथा विक्रमदेव ने विशाखापट्टनम स्थित कम्पनी-शासन के अधिकारी 'चीफ कौंसिल' जान्सन की
अनुमति से ही बस्तर पर सैनिक कार्यवाही की थी। ऐसी स्थिति में सन्धि-पत्र के तैयार होते समय विक्रमदेव के अतिरिक्त जान्सन भी वहाँ उपस्थित था। उपर्युक्त सन्धि-पत्र जैपुर के प्रासाद में विद्यमान है। सन्धि-पत्र में अधोलिखित बातों का उल्लेख है (A. Vadivelu, The Ruling Chiefs, Nobles and Zamindars of India, Vol.l, Madras 1915, 460)।
(क) सन्धि-पत्र के अनुसार बस्तर के राजा को कोटपाड़-परगना जैपुर-राजा को देना
पड़ा, जिसके अन्तर्गत अधोलिखित पाँच गढ़ सम्मिलित थे-
(अ) कोटपाड़ (आ) चुरुचुण्डा
(इ) पोड़ागढ़ (ई) उमरकोट (उ) रायगढ़ा
(इ) पोड़ागढ़ (ई) उमरकोट (उ) रायगढ़ा
सन्धि-पत्र में यह भी उल्लिखित था कि यदि जैपुर-राजवंश का कोई व्यक्ति बस्तर जाता है, तो बस्तर के राजा को उसका यथोचित सत्कार करना पड़ेगा।(ख) सन्धि-पत्र का एक दूसरा प्रारूप शर्त के रूप में था, जिसके अनुसार बस्तर के राजा को यह अधिकार था कि वह उपर्युक्त प्रदत् त परगने से महादान (पारवहन शुल्क) इक्ट्ठा करता रहेगा। यह महादान एक प्रकार का महसूल था, जो व्यापारी-माल पर उस समय लगा करता था तथा जिसकी दर सौ बैलों के लदान में
25 रुपए होती थी। इस प्रकार का शुल्क देने वाले व्यापारियों में बंजारे प्रमुख थे (A.Vadivelu, The Ruling Chiefs Nobles and Zamindars of India, Vol.1, Madras 1915, p.460)।
सन्दर्भ:-
बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )
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