Header Ads Widget

 हल्बा समाज एप

नया लेख

6/recent/ticker-posts

परलकोट विद्रोह -1824 -1825 (आर्यन चिराम) // paralkot vidroh 1824 -1825 (aaryan chiram)

पोस्ट दृश्य


    परल कोट विद्रोह

    परलकोट विद्रोह -1824 -1825,आर्यन चिराम, paralkot vidroh 1824 -1825,aaryan chiram,वीर गेंद सिंह,vir gaindsingh,

    इस विद्रोह  के बारे में जानने से पहले हमें कुछ घटनाओ के बारे में जानना जरुरी है जैसे कोटपाड संधि व 

    कोटपाड-सन्धि:


     दिनांक 6-4-1778 अजमेरसिंह के विरुद्ध जैपुर के राजा विक्रमदेव ने दरियावदेव की सहायता की थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस समय तक जैपुर- राज्य कम्पनी-शासन के अधिकार में चला गया था तथा विक्रमदेव ने विशाखापट्टनम स्थित कम्पनी-शासन के अधिकारी 'चीफ कौंसिल' जान्सन की 


    अनुमति से ही बस्तर पर सैनिक कार्यवाही की थी। ऐसी स्थिति में सन्धि-पत्र के तैयार होते समय 
    विक्रमदेव के अतिरिक्त जान्सन भी वहाँ उपस्थित था। उपर्युक्त सन्धि-पत्र जैपुर के प्रासाद में विद्यमान है। सन्धि-पत्र में अधोलिखित बातों का उल्लेख है (A. Vadivelu, The Ruling Chiefs, Nobles and Zamindars of India, Vol.l, Madras 1915, 460)

    (
    क) सन्धि-पत्र के अनुसार बस्तर के राजा को कोटपाड़-परगना जैपुर-राजा को देना
    पड़ा, जिसके अन्तर्गत अधोलिखित पाँच गढ़ सम्मिलित थे-







    (
    अ) कोटपाड़ (आ) चुरुचुण्डा
    (
    इ) पोड़ागढ़ (ई) उमरकोट (उ) रायगढ़ा


    सन्धि-पत्र में यह भी उल्लिखित था कि यदि जैपुर-राजवंश का कोई व्यक्ति बस्तर जाता हैतो बस्तर के राजा को उसका यथोचित सत्कार करना पड़ेगा।



    (
    ख) सन्धि-पत्र का एक दूसरा प्रारूप शर्त के रूप में था, जिसके अनुसार बस्तर के राजा को यह अधिकार था कि वह उपर्युक्त प्रदत्त परगने से महादान (पारवहन शुल्क) इक्ट्ठा करता रहेगा। यह महादान एक प्रकार का महसूल था, जो व्यापारी-माल पर उस समय लगा करता था तथा जिसकी दर सौ बैलों के लदान में

    25 रुपए होती थी। इस प्रकार का शुल्क देने वाले व्यापारियों में बंजारे प्रमुख थे (A.Vadivelu, The Ruling Chiefs Nobles and Zamindars of India, Vol.1, Madras 1915, p.460)

    कोटपाड़ परगने को लेकर बस्तर-राजा का जैपुर पर आक्रमण कोटपाड़-परगना को जैपुर-राजा को सौंप देने के पश्चात् पाँच वर्ष की अवधि के । अन्तर्गत 1782 ई. में बस्तर के राजा ने जैपुर-नरेश पर आक्रमण कर दिया, क्योंकि जय


    पुर-नरेश रामचन्द्र (1781-1825)

    ने अपने पिता विक्रमदेव (1758-1781) के द्वारा 1778 | ई. में सम्पादित काटपाड़-सन्धि उललंघन किया था। दोनों ही सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। तथा इस युद्ध में बस्तर की सेना विजयी रही। दरियावदेव ने जैपर-राज्य से अधोलिखित तीन गढ़ों को वापस ले लिया (A Vadivelu, The Ruling Chiefs Nobles and
    Zamindars of India, Vol.1, Madras, 1915, p. 460)
    (
    क) पोड़ागढ़
    (
    ख) उमरकोट
     (घ) रायगढ़ा



    अन्य दो गढ़ों पर आक्रमण कर उन्हें जीत लेने का भी विचार था, किन्तु तभी । दरियाव-देव की मृत्यु हो गयी। महिपालदेव का शासन उसके पिता दरियावदेव के समान कठोर न था अपेक्षाकृत वह दुर्बल राजा था। फलस्वरूप बस्तर के अनेक परगने पड़ोसी शासकों ने हडप लिए। इस प्रकार इसके काल में बस्तर की सीमा और भी अधिक संकुचित हो गयी।


    भोपालपट्टनम विद्रोह के पश्चात पुनः जयपुर के राजा ने बस्तर में में आक्रमण कर दिया Tumesh chiram   उस समय दरियाव देव के बेटा महिपाल देव राजा थे
    राजा रामचन्द्र  (1781-1825) ने उन परगनों को हस्तगत करने के लिए, महिपालदेव के पिता दरियावदेव के द्वारा 1782 ई. में उससे छीन लिए गए थे। कम्पनी-शासन से सहायता प्राप्त व उसके अधीन जैपुर की सेनाएँ इस युद्ध में विजयी रहीं. तथा महिपालदेव को अधोलिखित

    तीन परगने जैपुर-राज्य

    को देने पड़े- A Vadivelu, The Ruling Chiefs, Nobles and Zamindars of India, Vol. 1 Madras, 460).
    (
    क) पोड़ागढ़ (ख) उमरकोट (ग) रायगढ़ा
    महिपालदेव को यह भलीभाँति ज्ञात था कि तङ्गीन नागपुर के शासकों से लोहा लेना। कठिन काम था। अतएव इसके शीघ्र ही पश्चात् वह सैन्य तयारी में जुट गया। उसके पिता


    दरियावदेव तथा
    काँकेर के राजा में मधुर सम्बन्ध न थे। अतएव उसने उस कटुता को दूरकर

    पुनः काँकेर के राजा को मित्र बना लिया। इस प्रकार बस्तर तथा काँकेर की सम्मिलित सेनाएँ
    भोसलों ने निपटने के लिए तैयार थीं।जिस समय महिपालदेव इस प्रकार भोंसले के विरोध में झंडा उठा रहा था


    , उस समय। नानासाहेब या व्यंकोजी भोंसला रुग्ण था। उसने बस्तर के राजा को दबाने के लिए अपने सर्वाधिक शक्तिशाली मुसाहिब रामचन्द्र बाध को आदेश दिया। ।अप्रैल 1809 ई. में रामचन्द्र बाघ मराठों की सेना लेकर इन क्षेत्रों पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। बस्तर तथा कांकेर र के राजाओं का ऐसा अनुमान था कि भोंसलों का


    आक्रमण चांदा से कहीं एक दो महीने बाद हो सकता है। अतएव दोनों निश्चिन्त थे। एक । दिन काँकर-राज्य पर एकाएक मराठों का आक्रमण हुआ। कांकेर का राजा पराजित हुआ तथा उसे निकट के एक गाँव में शरण लेनी पड़ी (National Archives, Foreign and Political, 1809, No. 120)1 रामचन्द्र बाघ कांकेर-राज्य को रौदता हुआ बस्तर की राजधानी जगदलपुर पहुंच गया। अकस्मात् आक्रमण के कारण प्रारम्भ में बस्तर की सेना के पैर उखड़ गए तथा जगदलपुर के किले पर भोंसलों का अधिकार हो गया (Jenkin's Report, p. 135; HeWit's Report, Para 89) 


    किन्त बस्तर-राजा महिपालदेव ने आदिवासियों की सेना को संगठित कर पुनः मराठों। 
    पर आक्रमण कर दिया तथा किले को छीन लिया व रामचन्द्र बाध अपनी शेष सेना के साथ जंगल की ओर भाग गया। उसने इस बार रायपुर तथा रतनपुर से अत्यधिक संख्या में भोंसले


    सैनिकों को बुलाया तथा अपनी सेना को सुदृढ़ कर लेने के पश्चात्
    सुसंघटित होकर पुनः । जगदलपुर किले पर धावा बोल दिया। इस बार आदिवासियों की सेना पराजित हुई तथा महिपालदेव को पुनः भोंसलों को अधीनता का सत्यनिष्ठ वचन देना
    पड़ा (National Archives, Foreign and Political, 29 April, 1809, No. 120)|

    जैपुर की सेना का बस्तर पर दुबारा अभियान


    जैपुर राज्य की गिद्ध दृष्टि बस्तर क्षेत्र पर हमेशा से रही है तथा वहाँ के राजा मुसलमानों कम्पनी शासन,


    मराठों व अंग्रेजों की सहायता से निरन्तर बस्तर पर आक्रमण की योजना बनाते रहे तथा मौका पाते ही वे इस क्षेत्र पर धावा बोल देते थे तथा कुछ-न-कुछ क्षेत्र अपने 
    अधिकार में कर लेते थे। जैपर-नरेश रामचंद्र की मृत्यु के पश्चात विक्रमदेव (1825-60) भी इसके लिए बहाना खोजा तथा उन्होंने महिपालदेव के पास यह संदेश भेजा कि आपके । पिता दरियावदेव ने अजमेरसिंह के विरुद्ध मेरे पितामह से 28 हजार रुपये ऋण लिया था।। आप ब्याज-सहित उसे वापस कर दें। महिपालदेव ने वैसा करने में अपनी असमर्थता प्रकट का। फलत: 1829 ई. में जैपर-नरेश ने बस्तर पर आक्रमण कर दिया। फलस्वरूप दोनों में सन्धि हुई तथा महिपालदेव को अधोलिखित परगने ऋण की चुकती के रूप में जैपुर को देने


    पड़े

    (दि बेत)-

    (क) सालमीगढ़ (ख) आँवरी
    (ग) भैसाबेड़ा (घ) बागेदरी

    इसके साथ यह शर्त भी जुड़ी हुई थी कि रुपयों की अदायगी पर जैपुर-राज्य वे


    परगने बस्तर- राजा को लौटा देगा। इनमें क्रमिक तीन परगने ऋण के रूप में थे तथा
    बागेदरी परगने को जैपुर के राजा ने बस्तर पर हमला करके जीत लिया था। बस्तर के सिहावा परगने पर भोंसलों का स्वामित्व 1809 ई. में भोंसला आक्रमण के पश्चात महिपालदेव पर अनेक वर्षों का उपहार बकाया था, जो उसे टकोली के रूप में प्रतिवर्ष नागपुर- शासन को देना पड़ता था। इस बकाया राशि के बदले 1830 ई.


    में महिपालदेव ने सिहावा- परगना नागपुर शासन को सुपुर्द कर दिया। सिहावा- 
    परगना के केवल पाँच गाँव उसकी माँ के अधिकार में थे। अतएव उन पाँच गाँवों को छोड कर शेष सिहावा- क्षेत्र नागपुर- राजा के अधीन चला गया। दि बेत (1908) तथा योगेन्द्रनाथ शील (1922) प्रभृति पूर्ववर्ती विद्वानों ने इस घटना को महिपालदेव के पुत्र भूपालदेव से जोड़ा है तथा ये 1830 ई.

    से ही भूपालदेव को शासक स्वीकार करते हैं। सिहावा के चले जाने से बस्तर का एक 
    बहुत बड़ा भूभाग छत्तीसगढ़ के अन्तर्गत चला गया। अपने चाचा से युद्ध महिपालदेव ने अपने काका उमरावसिंह से लड़ाई की थी।महिपालदेव ने अपने साले को दीवान बनाना चाहा था। इसलिए उसके चाचा उमरावसिंह उससे नाराज हो गए थे।
    दिनांक 18-8-1908, रिकार्डरूम बस्तर, अप्रकाशित)



    रिकार्डरूम बस्तर,


    परलकोट जमींदारी उत्तर-बस्तर में 19°-38' 20°-2'



    उत्तरी अक्षांश तथा 
    81-10 पूर्वी देशांश के मध्य अवस्थित थी। 1908 ई. में इसका कुल 40 वर्गमील था तथा 1901 ई. की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 5920 थी। यहाँ कुल 165 गाँव थे, जिनमें 98


    गाँव जन-शून्य थे। जमींदारी का मुख्यालय 
    परलकोट गाँव था, जिसकी 1901 ई. में 224 जनसंख्या थी (दि बेत,1909.346)। लाल कालीन्द्रसिंह (1908) तथा दि बेट (तदेव) के अनुसार परलकोट के जमींदार की उपाधि भमिया' राजा की थी। 'भमिया- राजा


    ' इन्हें इसलिए कहा गया क्योंकि इनके पर्व। 
    परुष चट्टान से निकले थे। कालींद्रसिंह (तदेव) के अनुसार पुराना किला नारायणपाटणा आज।

    भी हैं जहाँ पत्थर की एक चट्टान है. जिसमें योनि का चिह्न है। उसमें से निकल कर राजा बैठे।
    थे। यह बात बस्तर राजा ने सुनी, सो भेंट करने गए। और उसे जमींदार मानने लगे।। 


    परलकोट की प्रमुख नदी कोतरी है तथा राजधानी में तीन नदियों का संगम है।
    1825 ई. के विद्रोह में परलकोट के जमींदार गेंदसिंह ही विद्रोही सेना का नेतृत्व कर रहे थे। गेंदसिंह के नेतृत्व में सुलग रहे परलकोट विद्रोह के सभी विद्रोही आदिवासी अबुझमाडिया थे। यह एक प्रकार का ऐसा विद्रोह था, जिसके माध्यम से अबुझमाडिया ऐसे संसार की रचना करना चाहते थे, जहाँ लूटखसोट और शोषण न हो। यह मराठों और अंग्रेजों के प्रति बदले की भावना से पैदा हुआ था। उन पर नियंत्रण करने के लिए एक धुंधलका स्वप्न था। अधिकारियों को पाठ पढ़ाने के लिए एक अभ्यास था। परलकोट के अबूझमाड़िया के आह्वान


    पर बस्तर के सभी अबूझमाडिया
    24 दिसम्बर 1824 से संघबद्ध होने लगे। उनका यह 
    विद्रोह 4 जनवरी 1825 तक चांदा से अबूझमाड की पट्टी में छाया हआ था। इस बीच ये एक ऐसा सुनहरा संसार बनाना चाहते थे, जो इनके मिथकीय हीरो 'कर्ण' के संसार से मिलता-जुलता हो। सच तो यह है कि बस्तर में मराठों और विटिश-अधिकारियों की उपस्थिति से इन्हें
    अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था। ब्लण्ट की कमक ने 1795 ई. में जब इनके 


    अंचल में प्रवेश किया था
    , तभी से ये आशंकित और उद्विग्न हो उठे थे। परदेशी-सभ्यता से 
    ये खतरा महसूस करने लगे थे। विवरण के अनुसार ये अपने बाणों और भालों को तभी से नुकीला बना रहे थे। यह विद्रोह परलकोट जमींदारी की राजधानी परलकोट से ही प्रारम्भ हुआ था। प्रारंभिक स्थिति में विद्रोहियों ने कतिपय बंजारों को लूटा था। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मराठा-सेना इस पर कोई हस्तक्षेप नहीं कर रही है,


    तो वे अधिक आक्रामक हो गए। शीघ्र ही। 
    उन्होंने मराठा तथा अंग्रेज अधिकारियों पर घात लगाना प्रारम्भ कर दिया। इनके सनकी आक्रमणों, लुटपाटों, तथा कत्लेआम से लोगों में दशहत फैल गयी। मराठों और अंग्रेज- अधिकारियों के बाद बस्तर में बसे हए परदेशी इनके लक्ष्य बने । चाँदा से संलग्न क्षेत्र में इनका बहुत अधिक आतंक था। यहाँ के गैर आदिवासियों ने अपने-अपने घरों के पास सुरंग खोद ली थी, जिससे वे इनके आक्रमणों के समय अपने को छिपा सकें।एग्न्यू ने


    1 जनवरी 1825 तथा 4 जनवरी 1825 के अपने पत्रों (SNRR.VAI 
    No. 13, p. 223) में उक्त विद्रोह की विस्तृत जानकारी दी है। साल भर चलने वाले 


    विद्रोह के कारण इस अंचल में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी थी। धनुषबाण

    तथा भाला लेकर ये हजारों की संख्या में एक साथ निकलते थे तथा लोगों के घरों जलाकर रक्तरंजित हाथों से वापस लौटते थे।
    एग्न्यू की पहल पर जब चाँदा से सेना आ गयी, तो इन विद्रोहियों ने छापामार या प्रारंभ कर दिया। ये किसी महिला के साथ 500 से 1000

    की संख्या में इकट्ठे होते और 
    दूर से ही मराठा-सेना की ओर अपनी कुल्हाड़ियाँ चमकाते । मराठा-सेना जैसे ही पास आती ये जंगलों में छिपकर घात लगाकर वार करते थे। ये पहाड़ियों या पेड़ों पर चढकर नगा बजाते थे, जिससे अबुझमाडिया- सेना चारों ओर से आकर मराठों की सेना को घेर कर कर पर बाणों की बौछार करती थी। अबुझमाड़िया (वड़ा- वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते थे। पत्ती के सूखने से पहले वर्ग-विशेषो को विद्रोहियों के पास जाने की हिदायत थी। इस प्रकार पूरे माड़- अंचल में विद्रोह की चिंगारी फैल गयी थी। गेंदसिंह और उनके साथियों पर जो मुकदमा चला था, उसके आधार पर विद्रोहियों 


    की क्रियाविधि को समझा जा सकता है। जब ये किसी मराठा या अंग्रेज को पकड़ते थे. तो
    उसकी बोटी-बोटी काट डालते थे। विद्रोह का संचालन अलग-अलग टुकड़ियों में माझी लोग करते थे। रात्रि में सभी विद्रोही किसी घोटुल में एकत्र होते थे और वहीं से अगले दिन का प्रोग्राम निश्चित होता था। ये सभी विद्रोही मराठा सरकार द्वारा लगाए गए नए टैक्सों का विरोध कर रहे थे। इनका



    विरोध इस बात पर भी था कि बस्तर के राजा को जमींदार
    ' की स्थिति में लाकर बिठा दिया गया 
    था तथा बस्तर के पुराने जमींदारों की अस्मिता पर प्रहार किया गया था। गाँव के ठेकेदारों को
    पकड़ कर ये मार डालते थे। ये उन लोगों को नहीं सताते थे, जो इन्हें बराबरी का दर्जा देते थे।

     
    इनके प्रति असम्मान जताने वाला प्रत्येक व्यक्ति इनकी सूची में होता था, जिसे ये समाप्त कर देते। थे। संक्षेप में परलकोट-विद्रोह यहाँ के अबुझमाड़ियों का विदेशी सत्ता को धूल चटाने के
    लक्ष्य से हुआ था। यह बस्तर को गुलामी से मुक्त कराने का प्रयास था। विद्रोह की तीव्रता को देखते हुए एन्यू ने


    4 जनवरी 1825 (तदेव) को चाँदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टेन पेवे  
    को निर्देश दिया था कि विद्रोह को तत्काल दबाएँ। फलस्वरूप मराठों और अंग्रेजों की सम्मिलित सेना ने


    10 जनवरी 1825 को परलकोट को घेर लिया था। गेंदसिंह गिरफ्तार कर 
    लिए गए तथा 20 जनवरी 1825 को उन्हें परलकोट के महल के ही सामने फाँसी दे दी गयी। संगठन-क्षमता के धनी गेंनसिंह बहादुर व्यक्ति थे। Tumesh chiram   वे इस विद्रोह में इसलिए


    असफल हो गए, क्योंकि बंदूकों के सामने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्रों से लड़ा नहीं जा सकता था। इतना होते हुए भी बस्तर- भूमि की मुक्ति के लिए उन्होंने बहुत बड़ा बलिदान दिया था (शुक्ल, 1992, 38-39)

    वीर गेंद सिंह के सन्दर्भ में परलकोट विद्रोह

         

    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

    email:-aaryanchiram@gmail.com

    Contect Nu.7999054095

    CEO & Founder

    Post a Comment

    0 Comments

    lt;!-- -->