Header Ads Widget

 हल्बा समाज एप

नया लेख

6/recent/ticker-posts

तारापुर विद्रोह -1842-1854 (आर्यन चिराम) // tarapur vidroh-1842-1854(aaryan chiram)

पोस्ट दृश्य

    तारापुर-विद्रोह (1842-54)

    तारापुर विद्रोह -1842-1854,आर्यन चिराम,tarapur vidroh-1842-1854,aaryan chiram,छत्तीसगढ़,विद्रोह,vidroh,क्रांति,kranti,आदिवासी विद्रोह,adiwasi vidroh,

    दोस्तों नमस्कार आज जिस विद्रोह पर चर्चा करने वाले है उस विद्रोह का नाम है तारापुर विद्रोह , इस विद्रोह पर बात करने से पहले बता दूँ की अगर आप हमारे हल्बा विद्रोह , भोपालपट्नम विद्रोह नही पढ़े है तो पढ़ ले क्योकि वह पहले के कड़ी है जो तारापुर विद्रोह का सूत्रपात करते है

    जैसा की हल्बा विद्रोह में सत्ता हस्तांतरण के लिए अजमेर सिंह और दरियाव देव के बीच यूदध हुआ था और इस विद्रोह में हल्बा आदिवासियों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिए ठीक उसी प्रकार यह तारापुर विद्रोह भी सत्ता हस्तांतरण के लिए दोनों भाई भूपाल देव और दलगंजनसिंह सिंह के बीच हुआ विद्रोह को दर्शाता है जिसमे तारापुर के आदिवासीयों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जो अग्र लिखित है



    भूपालदेव तथा लाल दलगंजनसिंह में पारस्परिक संघर्ष

    भूपालदेव ने बस्तर-राजसिंहासन पर अभिषेक के अनन्तर दलगंजनसिंह को तारापुर
    परगने का अधिकारी बना दिया; क्योंकि भूपालदेव की तुलना में दलगंजनसिंह अपने
    सदाचरण और पराक्रम के कारण बस्तर की आदिवासी जनता में लोकप्रिय था तथा भूपालदेव



    उससे सदा भयभीत रहता था। कालान्तर में अज्ञात अनेक कारणों से दोनों में मनमुटाव के

    कारण अनमेल रहा. जिससे बस्तर में अशांति का वातावरण रहा (केदारनाथ ठाकुर, 1908,
    140)। भूपालदेव से संत्रस्त एक दिन दलगंजनसिंह तारापुर छोड़कर जैपुर जा रहे थे। उनके
    इस जाने के समाचार को सुनकर तारापुर की प्रजा ने आन्दोलन करने का निश्चय किया था

    108 / बस्तर का मुक्तिसंग्राम

    तथा इस आधार पर लाल दलगंजनसिंह को जैपुर जाने से रोका कि उनके लिए सम्मानपूर्ण
    स्थान की प्राप्ति के लिए वे व्यापक संघर्ष करेंगे।

    ___


    उस समय भूपालदेव का जगबन्धु नामक एक दीवान था। उसने जब इस प्रकार की

    संकल्पूर्ण बातों को सुना, तो भूपालदेव से शिकायत करने के लिए वह जगदलपुर रवाना।
    हुआ। तारापुर की जनता को जब यह ज्ञात हुआ कि उनकी योजना की खबर जगबन्धु दीवान ।


    को हो गई है और वह राजा के पास जा रहा है, तो आदिवासियों ने बीच मार्ग में दीवान को

    बंदी बना लिया और उसे तारापुर ले आए।

    भूपालदेव को जब यह सूचना प्राप्त हुई, तो उसने जगन्नाथ बहीदार को अन्य लोगों



    के साथ तारापुर भेजा तथा यह आज्ञा दी कि दीवान को मुक्त कर दिया जाए। राजा की आज्ञा

    पर दीवान मुक्त हुआ।

    ___ जगबन्धु दीवान ने मुक्त होकर भूपालदेव को यह सलाह दी कि दलगंजन सिंह आपके
    मार्ग में बाधक हैं। अतएव नागपुर- शासन की आज्ञा लेकर आप उसे बंदी बना लें।
    भूपालदेव की स्वीकृति से जगबन्धु दीवान नागपुर गया तथा वहाँ से भोंसला-शासन की ओर
    से दलगंजनसिंह के नाम संमन्स लाया। ऐसी स्थिति में दलगंजनसिंह को नागपुर जाना पड़ा।
    नागपुर में लाल दलगंजन सिंह छह मास तक रहा। मराठा-शासन के अधिकारी दोनों भाइयों
    में चल रहे संघर्ष को समाप्त करना चाहते थे (ग्रिग्सन)। अन्त में नागपुर राजा के रेजीडेण्ट



    मेजर विलियम्सन की सिफारिश पर समझौता हो गया। जगबन्धु दीवान पद से हटा दिया।

    गया। लाल दलगंजन सिंह 1843 ई. में बस्तर के दीवान बने।

    भोंसला-शासन के प्रयास के बावजूद दोनों भाइयों में संघर्ष चलता ही रहा ।सन
    1848 में भूपालदेव ने रायपुर के भोंसला शासन के अधिकारी से लाल दलगंजनसिंह की
    शिकायत की, Tumesh chiram   जिससे उसे रायपुर बुला लिया गया। रायपुर में लगभग छह महीनों तक
    निवास के पश्चात् नागपुर-राजा की आज्ञा से पुनः वह बस्तर का दीवान बन गया। जगदलपुर



    पहुँचने पर दोनों भाइयों में पुन: संघर्ष प्रारम्भ हो गया। संघर्ष इतना विकराल हो गया कि एक

    दिन दलगंजनसिंह ने जैपुर- राजा के यहाँ शरण लेने के लिए तारापुर से प्रस्थान किया। राजा
    ने अपने अत्यन्त विश्वासपात्र कर्मचारी जगन्नाथ बहीदार और जगबन्धु को दलगंजनसिंह को
    रोकने के लिए भेजा। दलगंजनसिंह इन दोनों से बहुत चिढ़ते थे तथा उनका विचार था कि


    इन्हीं दोनों के कारण भूपालदेव उसका शत्रु बन गया है। अतएव उन दोनों को दलगंजनसिंह

    ने बन्दी बना लिया तथा भाँति-भाँति की यंत्रणाएँ दीं। यंत्रणा से मुक्ति के पश्चात् इन दोनों ने
    नागपुर-राजा के पास शिकायत प्रस्तुत की, जिससे लाल दलगंजनसिंह पर पुनः सम्मन जारी



    हुआ। समन्स की परवाह जब उसने नहीं की, तो उसे बंदी बनाकर रायपुर ले जाया गया।

    सन् 1850 में दलगंजनसिंह को नागपुर राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तथा उसे अठारह
    महीने के कारावास का दण्ड मिला (भंजदेव, 1963-58-60)। ।
    तारापुर विद्रोह -1842-1854,आर्यन चिराम,tarapur vidroh-1842-1854,aaryan chiram,छत्तीसगढ़,विद्रोह,vidroh,क्रांति,kranti,आदिवासी विद्रोह,adiwasi vidroh,

    विस्तार से वर्णन


    - बस्तर के राजा भूपालदेव ने 1842 ई. में अपने भाई दलगंजनसिंह को तारापुर परगने
    का गवर्नर नियुक्त किया था। उस समय तारापुर-- परगना राजस्व के स्रोत के बजाय जैपुर-
    राज्य के विरुद्ध सैनिक छावनी के रूप में माना जाता था। बस्तर के राजा ने नागपुर-सरकार
    के आदेश पर तारापुर- परगने की टकोली बढ़ा दी थी, जिसका तारापुर के गवर्नर
    दलगंजनसिंह ने विरोध किया था। जब दलगंजनसिंह पर नागपुर-सरकार का दबाव बढ़ा, तो
    उन्होंने टकोली बढ़ाकर जनता के लूट की स्वीकृति के बजाय तारापुर छोड़ देने की ठानी और
    जैपुर चले जाने का निश्चय किया। आदिवासियों ने उनसे आग्रह किया कि वे तारापुर न



    छोड़ें और आंग्लमराठाशासन के खिलाफ बगावत कर दें।


    आदिवासियों के कष्टों की संख्या यद्यपि बहुत नहीं थी, किन्तु जो भी थे, वे गंभीर
    प्रकृति के थे। पहली बात तो यह थी कि मराठों की रसदपूर्ति में सहायक बंजारों ने आदिम
    जीवनशैली को भंग कर दिया था। दूसरी बात यह थी कि तारापुर-परगना पर राजस्व की
    माँग बढ़ने के कारण निरंतर अवैधानिक टैक्स वसूले जा रहे थे और रैय्यत उनसे परेशान
    थी। आदिवासियों के लिए वे अनुभव बिलकुल नए थे। पूर्ववर्ती शासन ने आदिम जीवन की
    संरचना पर शायद ही कभी हस्तक्षेप किया हो। तब आदिवासियों को टैक्स भी अपनी
    हैसियत के अनुसार देना होता था। दलगंजनसिंह तथा उनके साथी प्रमुख माझी दीवान



    जगबन्धु के द्वारा नित्य प्रति नए टैक्सों को आरोपित करने के कारण बहुत ही उत्तेजित थे और

    उनकी माँग थी कि जब तक दीवान जगबन्धु को नहीं हटा दिया जाता और सारे टैक्स वापस
    नहीं ले लिए जाते, आदिवासी संघर्ष करते रहेंगे। आदिवासियों ने एक दिन दीवान (प्रधानमंत्री) को पकड़ लिया तथा उसे अपने नेता दलगंजनसिंह के समक्ष तारापुर में प्रस्तुत
    किया। जब भूपालदेव ने इस घटना के बारे में सुना, तो उन्होंने जगन्नाथ बहीदार के हाथों
    दलगंजनसिंह को सन्देश भेजा कि दीवान को तत्काल मुक्त कर दिया जाय। दलगंजनसिंह ने
    आदिवासियों के भारी विरोध के बावजूद दीवान जगबन्धु को मुक्त कर दिया। मुक्त होते समय
    दीवान जगबन्धु ने यह वायदा किया था कि आदिवासियों और उनके नेता पर कोई जुल्म नहीं
    होगा।



    रिहा होने के बाद दीवान जगबन्धु भूपालदेव के आदेश से नागपुर गए। वहाँ उन्होंने नागपुर के अधिकारियों से उक्त विद्रोह को कुचल देने की सहायता माँगी। नागपुर की सेनाओं
    ने बस्तर कूच किया। तारापुर में आदिवासियों के साथ उनका घमासान युद्ध हुआ। विद्रोही
    सेना पराजित हो गयी। नागपर की सेनाओं के समक्ष दलगंजनसिंह को आत्मसमर्पण करना।
    पड़ा। उन्हें गिरफ्तार कर नागपर ले जाया गया जहाँ उन्हें छह महीने की जेल हुई।

    आदिवासियों के असंतोष को दबाने के लिए नागपर के रेजीडेण्ट मेजर विलियम्सन ने बाद में


    जगबन्धु को दीवानी के पद से हटा दिया और तब आदिवासी शान्त हो गए; क्योंकि वैसी
    स्थिति में सारे नए अध्यारोपित टैक्सों को भी वापस ले लिया गया था।

    जब भी कोई पूर्व स्थापित सामाजिक अथवा राजनैतिक क्रम को छोड़ दिया जाए और



    यह अचानक ही हो या किसी भी बाहरी कारण से, तो समाज की ओर से विरोध का उत्पन्न
    होना अनिवार्य ही है, चाहे प्रभावित समाज कितना ही सादा या जटिल हो। बस्तर भी इस
    ऐतिहासिक तजुर्वे का अपवाद नहीं है। यह एक महान् ऐतिहासिक भ्रम होगा, यदि कोई ।
    विचार रखता हो, जैसा कि पारंपरिक इतिहासकारों में यह भ्रम पाया जाता है कि अंग्रेजी राज्य
    की स्थापना बस्तर में जनता को सताए बिना ही या फिर बिना किसी विरोध के हो गयी थी।
    ऐसा सोचना अनुचित है। सैनिक गतिविधियों की पर्णता के पश्चात अंग्रेजों ने मराठों के


    माध्यम से बस्तर में जमने का कार्य प्रारम्भ किया। उन्होंने पहले से स्थापित नियमावली में
    रद्दोबदल भी किया। उनकी परम्पराओं में परिवर्तत किया। अपने क्षेत्र में इस परिवर्तन से, जो
    कि केन्द्र में राजनैतिक परिवर्तन का ही प्रतिफल था, लोग सहमत नहीं हुए। अतः उन्होंने
    विरोध प्रदर्शित किया। इस विरोध में हर प्रकार के व्यक्तियों का समावेश था। क्षेत्रीय प्रधान
    भी एवं जनजातियाँ भी। 19 वीं शताब्दी के प्रारंभिक 50 वर्षों तक कम्पनी-बहादुर ने अपने
    आपको सैनिक रूप से तैयार रखा तथा समय-समय पर होने वाले हिंसात्मक विरोधों पर
    प्रतिरोध भी करता रहा। उसे लोगों की नागरिक अनियमिताओं का भी सामना करना पड़ा, जो



    लगातार विरोध पर अड़े हुए थे। इन विरोधी आंदोलनों में कुछ एक तो बड़े विनाशकारी भी

    थे, जिनकी ओर इतिहासकारों का ध्यान ही नहीं गया। इनमें से एक



    तारापुर-आंदोलन था, जो बस्तर-क्षेत्र में हुआ था (द्र शुक्ल 1992, 40-45)।





    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

    email:-aaryanchiram@gmail.com

    Contect Nu.7999054095

    CEO & Founder

    Post a Comment

    0 Comments

    lt;!-- -->