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भूमकाल विद्रोह -1910 (आर्यन चिराम) // bhumkal vidroh-1910 (aaryan chiram)

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    भुमकाल का सूत्रपात


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    1908 में एक ऐसी घटना घटी, जिसने परजा-क्षेत्र में किसी गंभीर संकट की विविध संभावनाओं को उभाड़ दिया था। परजा- क्षेत्र में घोर यंत्रणा का दृश्य उपस्थित हुआ था। और इसके कारण व्यापक जनरोष फैल गया था। उसे दबाने के लिए सरकारी अधिकारियों ने आतंक का सहारा लिया । “सरकारी अधिकारियों ने परजा-क्षेत्र के लोगों पर नृशंसता का आचरण किया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी पाशविकता तो यह थी कि भोलेभाले आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार

    किया गया । उन्होंने यह भी देखा कि पुलिस--जन लूट रहे थे और सामूहिक बलात्कार कर रहे थे इस प्रकार के हावभावों से आम जनता की मनः स्थिति पर दुर्भाग्यजनक प्रभाव पड़ा।"
    इस प्रकार अत्याचार के खिलाफ आवाज सबसे पहले जगदलपुर के परजा लोगों ने बुलंद की थी। सम्प्रति धुरवा-नाम से सम्बोधित यह जनजाति जगदलपुर तहसील के दक्षिण-पूर्व कांकेर के संरक्षित वन के उत्तर और दक्षिण, तथा जगदलपुर व सुकमा के सीमान्त- क्षेत्र में निवास करती है । उत्तरी क्षेत्र के परजा कांकेर के संरक्षित वन-क्षेत्र के परजा की तुलना में अधिक विकसित थे। ये धुरवा अत्याचारों के खिलाफ स्वतः लामबंद हो गए थे । शायद अन्य कारणों से भी ये विक्षुब्ध थे,

    धुरवा-क्षेत्र के अतिरिक्त बस्तर के अन्य जनजातीय क्षेत्र भी ब्रिटिश सरकार के अत्याचार से पीड़ित थे। ये थे गदबा, भतरा, राजमुरिया,मुरिया, दण्डामी माडिया, अबुझमाड़िया, दोलो,तथा हलबा । अन्य जातीय अल्पसंख्यक; यथा महरा,धाकड़,पनारा,सुंडी,कलार,बंजारा,क्षत्रिय,ब्राह्मण तथा कायस्थ वर्ग ने भी अत्याचार सहा था और इन सबने संघबद्ध होकर ब्रिटिश सरकार के


    खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाया था। इस प्रकार समूचा बस्तर ही विद्रोही बन गया था।
    ब्रिटिश-सरकार का तलवा चाटने वाले राजा, जमींदारा, जागीरदारों तथा मुकासदारों ने ही अपने को विद्रोह से दूर रखा था। ये सभी आदिवासी तथा गैर आदिवासी-वर्ग अपने सारे भेदभाव मिटाकर एक दूसरे से पूरी तरह मिल गए थे। कुछ ऐसे भी वर्ग थे, जिन्होंने थोड़ा फासला बनाए रखा। दक्षिण बस्तर में परजा विद्रोह में प्रभावी भूमिका निभा रहे थे, तो उत्तर बस्तर में मुरिया ने “मुरियाराज" की उदघोषणा कर दी थी। राजधानी से निकट होने के कारण परजा लोगों में मुरिया लोगों की तुलना में अधिक जागरूकता थी। परजा मुरिया लोगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली और साहसी थे। 'भुमकाल' का समूचा आदिवासी-साहित्य परजाओं की कठोरता तथा यद-कौशल का मौखिक प्रमाणपत्र है। हिन्दी के उपन्यास तथा कहानियों में मुरिया लोगों की यातनाओं का विवरण है।

    भौगोलिक विस्तार के आधार पर विचार करें तो मानना पड़ेगा कि उक्त विद्रोह ने समूचे बस्तर को अपने आगोश में समेट लिया था। उस समय बस्तर 84 परगनों में विभाजित था। इनमें से 10 परगनों की उक्त विद्रोह में सक्रिय भागीदारी थी,जबकि शेष परगनों ने भी अशान्ति के कारणों का समर्थन किया था। निरपेक्ष भाव से विद्रोही वर्गों की सैनिक क्षमता पर विचार करने से यह ज्ञात होता है कि


    जाहिराना तौर पर वे दुर्जेय नहीं थे। कोई भी जत्था बहुत विशाल नहीं था। किसी भी जत्थे में एक


    हजार से ज्यादा की संख्या नहीं होती थी और शस्त्र के नाम पर आदिवासियों के पास केवल धनुष-बाण तथा भाले थे । एक लेखक का कथन है कि सौ लोगों के सरकारी । सैन्यबल के सामने भी ये विद्रोही टिक नहीं पाते थे और सेना के पहुँचते ही मैदान छोड़कर भाग जाते थे। फिर भी विद्रोहगत सारी कमियों के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि उन्होने बस्तर में ब्रिटिशराज की नींद हराम कर दी थी।

    ब्रिटिश अधिकारियों ने यह महसूस किया था कि लाल कालेन्द्रसिंह ने विद्रोह को भड़काया तथा उसे संगठित किया। शायद इसलिए कि एक बार वे राजा बनने का सुनहरा मौका खो चुके थे और अब नहीं खोना चाहते थे;


    क्योंकि रुद्रप्रतापदेव के यहाँ पुत्र के बजाय पुत्री पैदा हुई थी।

    1910 के भुमकाल की आभ्यन्तर संरचना के नायक लाल कालेन्द्रसिंह थे। उनके
    साथ

    अधोलिखित लोग जुड़े हुए थे-

    (क) रानी सुबरन कुँअर (ख) मुकुन्ददेव माछमारा बाबू (ग) कुँअर बहादुरसिंह
    कुँअर अर्जुनसिंह
    मूरतसिंह बख्शी

    बालाप्रसाद नाजिर
    दुलनसिंह कायस्थ

    बच्चूप्रसाद पंडित
    सोमनाथ बैद

    बीरसिंह बहीदार
    जानकीराम नायडू
    (ठ)

    हरचंदनायक (हलबा)

    इस आभ्यन्तर नेतृत्व ने विविध प्रकार की ऐसी अफवाहों को जन्म दिया, जिससे ब्रिटिश सरकार तथा उसके समर्थक राजा जनता की नजरों से गिर जायँ। इन्होंने अनेक आरोप लगाए तथा यह भी कहा कि बस्तर पर राज्य करने के लिए राजा के पास नैतिक अधिकार नहीं है । क्योंकि उसकी वैधता ही संदिग्ध है। यह आरोप यदि नहीं लगाया जाता तो राजा के प्रति आदिवासी जनता में ईश्वर के अवतार का पारम्परिक भाव समाप्त न होता और वैसी स्थिति में। 'प्रकृतिकोप' भी नहीं फैलता। राजा को अवैध संतान कह कर उसे देवत्व से नीचे उतार दिया गया। फलस्वरूप राजा के प्रति प्रजा का भक्तिभाव भी जाता रहा । पटरानी ने भी 'मुरियाराज का नारा देकर राजा तथा ब्रिटिश-अधिकारियों का साथ छोड दिया था, जिससे विद्रोह की भूमिका और भी अधिक दृढ़ हो गयी थी। आदिवासियों से यह बार-बार कहा गया कि रुद्रप्रतापदेव तो नाम मात्र के अवैध राजा है, असली राजा तो अंग्रेज हैं। आदिवासियों के लिए यह दुःखद स्थिति । थी कि अंग्रेजों को राजा मानने से राज्य की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी रुष्ट हो जाएगी। फलतः आदिवासियों का 'प्रकृतिकोप' स्वाभाविक था आभ्यन्तर विद्रोह से जुडे हए लोगों का बिटिश-सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार इतना सशक्त था कि राजगुरु तथा दीवान के नाम आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गए। वे राजा तथा । ब्रिटिश सरकार को भी धिक्कारने लगे। चूँकि उक्त प्रचारतंत्र में बस्तर के प्रतिष्ठित भूतपूर्व सभासदों का हाथ था; इसलिए आदिवासियों के लिए अविश्वास की स्थिति ही नहीं थी।

    अक्टूबर 1909 को दशहरे के दिन ताड़ोकी में जंग का एलान

    कालेन्द्रसिंह ने उन आदिवासियों को जगाना प्रारंभ किया,जो ताड़ोकी में उनसे मिलने आते थे। ताड़ोकी अन्तागढ़-तहसील में स्थित एक गाँव है,जो जगदलपुर से सौ मील दूर है। 1891 से ही आदिवासी नेता अपनी शिकायतों को लेकर ताडोकी जाते थे और कालेन्द्रसिंह सब की शिकायतें ध्यान से सुनने के बाद उनका निपटारा करते थे। भूतपूर्व दीवान ने आदिवासियों को यह समझाया कि ब्रिटिश-सरकार के कारण देवधामी रुष्ट है और उसी कारण तकलीफें बढ़ी हैं । इसका मात्र एक ही निदान है कि हम ब्रिटिशराज की जड़ें खोदकर उसमें मठा डाल दें। यदि ऐसा न कर पाए तो परदेशी बस्तर पर छा जाएँगे और सभी आदिवासी उनके बंधक बन जाएँगे। कालेन्द्रसिंह ने यह भी वायदा किया कि इस संकट की घड़ी में वे आदिवासियों के साथ हैं और बस्तर की अस्मिता के लिए वे अपने प्राणों की बलि दे देंगे। दन्तेश्वरी इस समय अंग्रेजों और उनके चाटुकारों की बलि चाहती है।

    “अक्तूबर 1909 में दशहरे के दिन रानी सुबरन कुँअर ने लाल कालेन्द्रसिंह, भूतपूर्व सभासदों तथा हजारों आदिवासियों को ताड़ोंकी में सम्बोधित किया और उन्होंने आदिवासियों को याद दिलाया कि 1876 में वे किस प्रकार ब्रिटिश-कुप्रशासन के विरुद्ध एकजुट होकर उठ खड़े हुए। थे और ब्रिटिश-शासन को अन्त में उनकी बात माननी पड़ी थी। आदिवासियों के दबाव के ही कारण राज्य के बदनाम अधिकारियों; जैसे गोपीनाथ व आदितप्रसाद को राज्य से बाहर निकाला गया था। यदि आप लोग प्रतिज्ञा करें तो एक बार पुनः ब्रिटिश सरकार को झुकाया जा सकता है और बस्तर- भूमि से हमेशा के लिए उन्हें 'बोहारा' (झाड़ना) जा सकता है" रानी ने उपस्थित जनता को पुन: उत्साहित करते हुए कहा कि “आप लोग अंग्रेजों के प्रतीक दीवान के


    खिलाफ तत्काल संघर्ष छेड़ दें। आप लोग उन कर्मचारियों को निकाल कर बाहर कर दें,जो बस्तर के दुश्मन हैं और घुन के समान बस्तर को चाट रहे हैं। इन आततायी कर्मचारियों के संरक्षक अंग्रेजी-राज को नेस्तनाबूद कर दें" ।

    महारानी के उक्त उद्बोधन को सुनते ही वहाँ उपस्थित जनता में उत्साह की लहर दौड गयी तथा सभी ने प्रतिज्ञा की कि आज से ही वे अग्निपथ की ओर मुखातिब हो रहे हैं । रानी के सुझाव के अनुसार लाल कालेन्द्रसिंह ने उपस्थित जनसमुदाय में से नेतानार के गुण्डा धूर को महान् भुमकाल के बाह्य वर्ग का प्रमुख नायक चुना तथा हर एक परगने से एक-एक व्यक्ति को परगना-स्तर के विद्रोह को संचालित करने के लिए नेता नामजद किया।इन नेताओं की सहायता से एक गोपनीय किन्तु बृहत् युक्ति की तस्वीर बनी, जिसका लक्ष्य था बिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना। इस युक्ति की सूचना किसी को भी नहीं लग यी। स्टैण्डेन ने लिखा था- "विद्रोहियों के इरादों को कोई भी भाँप नहीं पाया। बिटोहियों के बीच में रहने वाले दीवान, सरकारी कर्मचारी और अभागे विदेशी भी नहीं समझ

    कि भीतर ही भीतर क्या पक रहा है। उन्हें उसी दिन पता चला, जब एकाएक भूचाल आ गया था और वे हक्के बक्के रह गए थे।"

    सारी योजना अत्यन्त गोपनीय ढंग से बनायी गयी थी। इसलिए पुलिस का खुफिया-तंत्र भी इसे सूंघ नहीं पाया। उसे सिर पर मंडराते हुए विद्रोह की भनक भी नहीं लगी। उसे यह भी खबर नहीं थी कि विविध सरकारी स्थापनाओं पर शीघ्र ही हमले होने वाले हैं। उक्त योजना में यह कार्यक्रम भी सम्मिलित था कि गुण्डा धूर की अध्यक्षता में एक ।

    स्वतंत्र 'मुरियाराज' की स्थापना की जाय। यह तभी संभव था, जब सभी प्रकार से कत्सित ।
    विदेशी प्रशासनिक व्यवस्था को बेकार बना कर तहस-नहस कर दिया जाता और बस्तर को विदेशी गुलामी से सदा के लिए मुक्त करा लिया जाता।

    पूरी गोपनीयता के साथ सारे प्रबन्ध कर लिए गए। गोपनीयता इतनी थी कि सर्वोच्च । नेताओं के अतिरिक्त कोई आदिवासी भी यह नहीं जानता था कि क्या पक रहा है। किन्तु नेताओं की असामान्य क्रियाओं तथा सभी कार्यकर्ताओं को उनकी लगातार सलाह कि आने । वाले 'धूचाल' के प्रति सतर्क रहें, आदि से सभी लोगों के मन में गहरी उथल-पथल थी। सभी के मन में भावी योजना को जानने की उत्कण्ठा थी। उन्हें अन्त में बताया गया कि 'भुमकाल' आ सकता है। तब तक 'भुमकाल' का अर्थ था 'भूचाल'। आम जनता को क्या मालूम था कि उस भूचाल से विदेशी प्रशासन-तंत्र की नीव हिलाने की योजना है - वह एक सम्पूर्ण क्रान्ति का वाचक था। नामकरण से कार्यकर्ताओं को यह समझने में मदद मिली कि कोई प्रचण्ड संघर्ष होने वाला है, जिसमें उन्हें अपनी आहुतियाँ देनी पड़ सकती हैं। प्रमुख योजना इस प्रकार थी-

    (क) बिजली की तेज गति के साथ बस्तर के औपनिवेशिक शासकों पर आकस्मिक तौर पर आक्रमण करना जिससे उन्हें संभलने का कोई मौका न मिले।




    (ख) बस्तर को देश के शेष भागों से जोड़ने वाली संचार-सेवाओं को नष्ट करना,
    जिनमें टेलिफोन के तार डाकखाने तथा लेटर बाक्स सम्मिलित थे।

    (ग) बस्तर तथा संलग्न क्षेत्र को जोड़ने वाले सड़क-संचार-साधन को अस्तव्यस्त कर देंना, जिससे अन्य जिलों से बस्तर का सम्पर्क कट जाय। फलस्वरूप सूचनाओं के आदान-प्रदान या सैन्यबल के सहज पहुँच के मार्ग को रोका जा सके।
    (घ) पूरी तरह यह प्रयास करना कि अधिकाधिक सरकारी अधिकारियों को पहले से ही अपने कब्जे में ले लिया जाय, जिससे कि समय आने पर उनका उपयोग बन्धक के रूप में किया जा सके या यदि वे किसी भी प्रकार का प्रतिरोध करते हैं तो उनका सफाया कर दिया जाय।

    योजना के विविध अनुभागों को कार्यान्वित करने के लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सतर्कतापूर्वक चुना गया, जिनमें घोटुल के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक थी।जनवरी 1910 के मध्य ताड़ोकी में पुन: गुप्त महासम्मेलन "जनवरी 1910 के मध्य में आदिवासियों का एक विशाल जत्था लाल कालेन्द्रसिंह। स पुनः मिलने के लिए ताडोकी गया। तब तक इस जत्थे ने यह संकल्प कर लिया था कि अब बस्तर को ब्रिटिश-परतंत्रता से मुक्त कराना होगा। यहाँ इस विशाल समूह ने भूतपूर्व पान के समक्ष यह कसम खायी कि दीवान के कहने पर वह अपने जीवन और धन को बस्तर का अस्मिता के लिए कुर्बान कर देगा। भूतपूर्व दीवान ने पहले की तरह आदिवासियों। को अपना सहयोग देने का आश्वासन दिया। स्थानीय देवीमंदिर में पूजा

    “ताड़ोकी के स्थानीय देवी मंदिर में हरचंद नायक नामक स्थानीय पुजारी ने दीवान तथा आदिवासियों के साथ सामूहिक Tumesh chiram   पूजा की तथा सभी ने यह संकल्प किया कि देवी दन्तेश्वरी के वस्त्र में दाग नहीं लगने देंगे। उक्त शपथग्रहण के साथ ही अभियान अपने दूसरे । चरण में पहुँच जाता है।" भुमकाल की प्रतीक कटार का अवतरण

    “पूजा की समाप्ति के बाद लाल कालेन्द्रसिंह ने आदिवासी नेताओं को एक कटार भेंट की। यह 'कटार' महान् विप्लव में उनके समर्थन की एक प्रतीकात्मक वचनबद्धता थी। यह कटार एक हाथ से दूसरे हाथ, तथा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र गुजरती गई और इसके गुजरने । का अर्थ था आदिवासियों के शस्त्र उठा लेने का आह्वान - a call to arms. “यह कटार जहाँ पहुँची, वहाँ-वहाँ के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में अपने को झोंक दिया था। माना गया कि कटार मंत्रशक्ति से अभिचारित थी और देवी दन्तेश्वरी का प्रतीकात्मक आदेश थी- असुरों का संहार करने के लिए। कालांतर में यह कटार सुकमा-जमींदारी के दीवान जनकैया के हाथ में आयी और जनकैया ने अपनी ब्रिटिश-प्रतिबद्धता के कारण इस के प्रचार को रोक दिया। तदनुसार सुकमा के दक्षिण में यह कटार नहीं पहुँच पायी, जिससे वहाँ विद्रोह की तीक्ष्णता का अहसास नहीं हुआ”


    भुमकाल का दक्षिण-पश्चिमायन: दण्डामी माड़िया-क्षेत्र में


    भुमकाल का आरंभिक उत्कर्ष आरंभिक स्थिति में भुमकाल उत्तर-पूर्व में अन्तागढ़ से हटकर दक्षिण-पश्चिम के दण्डामी माडिया क्षेत्र में परावर्तित हो गया था। भुमकाल का केन्द्रीय क्षेत्र दण्डामी माहिया अंचल बन गया था। इस प्रकार के बदलाव के पीछे अनेक कारण भी थे। विगत परिच्छेद में। पोलिटिकल एजेण्ट दक्षिण-पश्चिम में चाँदा की ओर बढ़ गए थे तथा । दीवान जगदलपुर की ओर लौट आए थे। विद्रोही नेताओं की प्रारंभिक योजना यह थी कि ।। फरवरी को दीवान को जगदलपुर में ही बंदी बना लिया जाय। उस योजना के अनुसार दीवान। की सेना पर आक्रमण करने के लिए जगदलपुर में हजारों विद्रोही सैनिक इकट्ठा थे। पहली । फरवरी को जब दीवान जगदलपुर में नहीं मिले, तो विद्रोही सैनिकों ने जगदलपुर स्थित उनके
    सैनिकों का सफाया कर दिया। इस हादसे का समाचार पाते ही एक दूत गीदम पहुँचा, जहाँ पण्डा बैजनाथ रुके हुए थे। उसने पण्डा बैजनाथ को सारी कहानी सुनाई और फिर बतलाया कि “किलेपाल जल रहा है और करीब बारह हजार माडिया आपको तलाशते हुए इधर ही आ रहे हैं। मैं जब किलेपाल से गुजरा तो उन्होंने आपके सम्बन्ध में मुझसे पूछताछ की। उनका यह संदेह था कि मैंने आपको अपनी बैलगाड़ी में छिपा रखा है। उन्होंने मेरी गाड़ी की पूरी तरह छान-बीन की और संतुष्ट हो जाने पर ही मुझे छोड़ा।” अंत में उस दूत ने पण्डा बैजनाथ से गुजारिश की कि वे शीघ्र ही बस्तर छोड़ दें, अन्यथा आदिवासी उन्हें मार डालेंगे।

    2 फरवरी को पण्डा बैजनाथ ने जगदलपुर जाने का विचार छोड़ दिया था और बीजापुर की


    ओर जाने के मन बना लिया। रास्ते में उन्हें खबर मिली कि सशस्त्र माडिया समूचे दक्षिण बस्तर में
    चहल-कदमी कर रहे हैं।पूसपाल बाजार को लूट लिया है। चारों तरफ के रास्तों को विद्रोहियों ने सील कर दिया था। पण्डा बैजनाथ बिटिश-अधिकारियों तक सूचना भी नहीं भेज सकते थे । ऐसी स्थिति में वे अपने विश्वस्त साथियों के साथ बीजापुर के जंगल में छिप गए । बस्तर से बाहर जाने के प्रयास में माड़िया उनका वध कर सकते थे। चिंगपाल में लाल कालेन्द्रसिंह का विद्रोही जनता के नाम संदेश

    3 फरवरी को जगदलपुर से दक्षिण-पूर्व में स्थित चिंगपाल नामक स्थान पर विद्रोहियों की सेना इकट्ठी हुई, जहाँ यह एलान किया गया कि लाल कालेन्द्रसिंह ने बस्तर की जनता


    को ब्रिटिश-सरकार पर आक्रमण करने के लिए आदेश दिया है। उन्होंने यह कहा है कि बस्तर के पुलिस-थानों और जंगल-विभाग के ठिकानों को जला दें तथा बस्तर में रहने वाले सभी परदेशियों को मार कर भगा दें

    कुकानार पर आक्रमण

    अगले दिन 4 फरवरी को कोकानार के बाजार को लूट लिया गया तथा एक अफगान सौदागर की हत्या कर दी गया (तदेव)। हत्या करने वालों में सोमनाथ शामिल थे।

    करंजी पर आक्रमण

    5 फरवरी को करंजी के बाजार को लूट लिया गया। करंजी गाँव कुँअर बहादुरसिंह के अधिकार में था। कुँअर बहादुरसिंह राजा के सगे सम्बन्धी थे और ब्रिटिश-सरकार के परम भक्त भी थे। बाजार को लूटने के बाद विद्रोहियों ने समूचे गाँव को ला लिया था इन्हीं कुंअर बहादुरसिंह से 1973 में मैंने भुमकाल-विषयक । साक्ष्य जुटाए थे। करंजी के बाद मारेंगा तथा तोकापाल की बारी आयी और यहां के पाठशाला-भवनों को जला दिया गया। जगदलपुर से रानी सुबरन कुँअर का जनता को आदेश

    6 फरवरी को रानी सुबरन कुंअर ने अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया था कि वे पण्डा बैजनाथ को पकड़कर उनके दोनों हाथ काट डालें और उन्हें रानी के सम्मख हाजिर करें (तदेव, पैरा 8)। पण्डा बैजनाथ गुमनामी में जीवन बिता रहे थे। विद्रोही लगातार उनकी खोज कर रहे थे। गीदम की गुप्त सभा और मुरियाराज की घोषणा

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    7 फरवरी विद्रोही - आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण घटना का दिन था। गीदम में सभी विद्रोही नेताओं की एक गुप्त महासा आयोजित की गयी थी। जगदलपुर तथा दन्तेवाडा के बीच में स्थित गीदम नामक कस्बे में उस दिन बहुत ही गहमा-गहमी थी। दुर्भाग्यवश महासभा से सम्बद्ध सूचना ना काफी है, किन्तु इतना तो प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि उस दिन रानी सुबरन कुँअर उस सभा में उपस्थित होकर कुछ महत्वपूर्ण घोषण-करना चाहती थीं। संभवतः पण्डा बैजनाथ को पकड़ने की योजना पर भी कुछ विचार किया गया होगा। विद्रोहियों को यह खबर थी कि पण्डा साहब गीदम में हैं। गीदम में दीवान साहब को न पाकर उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। भोले-भाले आदिवासियों की उत्तेजना और क्रोध का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिस पेड़ पर दीवान का हाथी बाँधा गया था, उस पेड़ को तरह-तरह की गालियाँ देकर तीर-बरछे से छेद डाला और अंत में काट कर फेंक दिया। नेताओं ने अपने अनुयायियों के उक्त क्रोध को देखा था और उसे उचित दिशा में मोड़ने के लिए उक्त गुप्त सभा की थी। यह गुप्त सभा शायद स्वतः स्फुर्त रही होगी: क्योंकि इसमें सम्मिलित होने वाले अधिकतर नेता दण्डामी माडिया-क्षेत्र के ही थे। विविध विद्रोही
    समूहों के अधोलिखित नेता इस गुप्तसभा में भाग ले रहे थे - डिण्डा उर्फ हिडमा पेंडा, रोंडा पेडा, कोरिया माझी, धनीराम, सुकरू, भोडिया, महादेव, हुन्नाम उर्फ हुंगा, तथा कुराती सोमा । इन नौ नेताओं के अतिरिक्त गुण्डाधूर भी वहाँ उपस्थित थे। इन सबको रानी सुबरन कुंअर सम्बोधित करने वाली थीं। दक्षिण-पश्चिम बस्तर के विद्रोह को सफल बनाने के लिए इनका महत्वपूर्ण योगदान था।

    इन विद्रोही-समूह के नेताओं के समक्ष महारानी सुबरन कँअर ने यह उदघोषणा की। कि अब बस्तर से ब्रिटिशराज समाप्त हो गया है तथा आज हम पुनः मुरियाराज की स्थापना पर संकल्प लेते हैं रानी की उक्त उद्घोषणा का असर समूचे बस्तर में एक साथ हुआ था। फिर बिना किसी भेदभाव के बहुत दिनों तक पूरे बस्तर में सरकारी कार्यालयों, पाठशालाओं तक दुकानों को लूटा गया ।

    उक्त उद्घोषणा की पहली सफलता यह थी कि गीदम नामक कस्बा 7 फरवरी को विद्रोहियों के कब्जे में आ गया तथा अब उनके अधिकार-पत्र में यह भी शामिल हो गया कि धीरे-धीरे बस्तर के सभी कस्बों पर अधिकार कर लिया जाय।उधर “मुरियाराज” की स्थापना की खबर से राजा बहुत अधिक आतंकित थे। उन्होंने 7 फरवरी 1910 को चीफ कमिश्नर को एक टेलीग्राम भेजा कि बस्तर के माडिया तथा मुरिया विद्रोह पर उतर आए हैं तथा वे दक्षिण बस्तर में कस्बों को जला रहे हैं तथा बाजारों को लूट रहे हैं। स्टैण्डेन (तदेव) ने लिखा था -

    बारसूर पर आधिपत्य



    गीदम

    से उसी दिन विद्रोहियों ने बारसूर की ओर कूच किया। तब तक बारसूर के दोनों नेगी-बन्धु विद्रोहियों के शत्रु बन गए थे। इस ऐतिहासिक नगर में एक भयानक युद्ध हुआ। यहाँ कोरिया माझी ने अपने सहयोगी जकर। पेद्दा के साथ मिलकर बैजनाथ पंडा पर आक्रमण किया तथा उसके शिर को कुचल डाला। बैजनाथ पंडा का प्रतिरोध समाप्त हो गया तथा बारसूर पर विद्रोहियों का अधिकार हो गया।

    कोण्टा पर धावा

    विद्रोहियों के एक दल ने कोण्टा पर धावा बोला, किन्तु वहाँ भूस्वामियों की उपेक्षा के कारण सफल नहीं हो पाए

    कटरू विद्रोहियों के वश में
    अन्य प्रमख विद्रोही-समूह पहले से ही कुटरू में जमा हो गए थे। लगभग एक पनाह से इस जमींदारी पर विद्रोहियों की गतिविधियां तेज थीं। विद्रोहियों ने इन्द्रावती की। पार्टी पर जोरदार अभियान चलाया था, जिसके फलस्वरूप 8 फरवरी को कुटरू उनके कब्जे में। आ गया था। यह नगर एक सप्ताह के निरंतर घेरेबंदी के कारण ही विद्रोहियों के हाथों में। आया था। इससे यह ज्ञात होता है कि विद्रोहियों की सैन्य क्षमता में काफी विस्तार हो गया था। कटरू के पतन के साथ ही वहाँ के जमींदार सरदार बहादुर निजाम शाह ने विद्रोहियों को


    समझौते के लिए बुलाया और विद्रोहियों ने उन्हें "मुरियाराज" के अधीन घोषित कर कुटरू. की घेराबंदी समाप्त कर दी।

    विद्रोहियों का दन्तेवाड़ा-
    प्रवेश कुटरू में रात भर रुकने के बाद 9 फरवरी को विद्रोहियों ने दन्तेवाड़ा पर अचानक हमला कर दिया। कुटरू से दन्तेवाड़ा की कूच में विद्रोहियों ने पूर्वी मार्ग का सहारा लिया तथा बीच के सारे गाँवों को लूटते हुए व सरकारी अधिकारियों को प्रताड़ित करते हुए वे दन्तेवाडा पहुँचे थे। उन्होंने नगर को चारों ओर से घेर लिया। दन्तेवाड़ा के पुजारी बलराम जिया ने अपने सैन्य-बल के साथ विद्रोहियों को कड़ी टक्कर दी और विद्रोही उनके जत्थे से


    हार गए। उसके इस प्रतिरोध के कारण विद्रोही शीघ्र ही उत्तर दिशा की ओर बढ़े, जहाँ उन्होंने कु
    आँकोण्डा से लगे गाँवों पर नियंत्रण के लिए असफल प्रयास किया। परिणामस्वरूप दन्तेवाड़ा को छोड़कर उन्होंने कुआँकोण्डा की ओर प्रस्थान किया।

    कुँआकोण्डा पर आक्रमण

    शीतकाल में 9 फरवरी को कुआँकोण्डा के विद्रोही ज्वालामुखी के समान फट पड़े। उन्होंने यहाँ तीन पुलिसकर्मियों को मार डाला। वे चाहते तो थे Tumesh chiram   दन्तेवाड़ा-नगर को लूटना और उस पर आधिपत्य दिखाना। किन्तु वहाँ उनका विरोध अपने ही जातिवर्ग से हो रहा था, जो विद्रोहियों के प्रति शत्रुता का व्यवहार रखते थे। मसेनार के कोपा पेद्दा तथा मटेनार के हसेण्डी पेद्दा ने अपने विरोधियों के प्रतिरोध को कम करने के लिए अथक प्रयास किया। दोनों ने दो बार विद्रोहियों को बाहर खदेड़ दिया, जब वे दन्तेवाड़ा को लूटने के लिए बढ़ रहे मद्देड की घटना और दीवान का बचकर भाग जाना अब तक पण्डा बैजनाथ की खोज अधूरी थी। अनेक विद्रोही समूह उन्हें पकड़ने के लिए अपना जाल बिछाए थे, किन्तु दीवान बच कर बस्तर से निकल भागने में सफल हुए। ध्यातव्य है बीजापुर के दौरे से लौटकर जगदलपुर वापस जाते हुए पंडा साहब गीदम नामक स्थान पर पहले रुके।

    भोपालपटनम् में शिकस्त


    पण्डा बैजनाथ जब विद्रोहियों को पकड़ से बाहर हो गए, तो विद्रोहियों ने भोपालपटनम पर धावा बोल दिया। भोपालपटनम के जमींदार न्याय और व्यवस्था बनाए रखने में सफल हुए

    जगरगुण्डा का प्रभाव


    भोपालपटनम के समान जगरगुण्डा की स्थिति नहीं थी; क्योंकि वहाँ विद्रोहियों के भय से स्थानीय जमींदार के अधिकारी बस्तर छोड़कर भाग गए थे और जमींदार विद्रोहियों की शरण में आ गया था (तदेव)।

    उसूर में आगजनी और हत्या


    भोपालपटनम से 40 मील दूर उसूर में एक पुलिस अधिकारी तथा उसकी पत्नी की हत्या कर दी गयी तथा वहाँ परदेशियों के सारे घरों को जला डाला गया। परदेशी बस्तर । छोड़कर बाहर चले गए (तदेव)

    मूल्यांकन

    दक्षिण-पूर्व बस्तर में यह विद्रोह 1876 के विद्रोह से पूरी तरह भिन्न था। इसमें मुल बात यह थी कि 1876 और 1910 में विद्रोहियों ने एक सीमित क्षेत्र से विद्रोह प्रारंभ किया। और आगे चलकर पूरे राज्य की समस्या बन गए । यद्यपि विद्रोही अपने आप को इन्द्रावती । नदी के उत्तर में स्थित कर ब्रिटिश सरकार के लिए तत्काल चुनौती नहीं बन पाए, तथापि वे दक्षिण-पश्चिम बस्तर में फैलने में समर्थ हो सके थे। वह इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य का एक विस्तृत भूभाग था। इस भौगोलिक विस्तार के साथ विद्रोहियों की सैन्य क्षमता में भी विकास हुआ था और 1 फरवरी से 13 फरवरी के बीच सचमुच उनके अधिकार में । दक्षिण-पश्चिम बस्तर का समचा अंचल आ गया था। उनकी इस उपलब्धि को आज भी इस । अंचल के लोग गौरव के साथ स्मरण करते हैं। विद्रोह की आग जगदलपुर से कोण्टा के बीच निरंतर जलती रही। कभी मंद हो।
    जाती थी तो कभी फिर भडक उठती थी। आन्दोलन की इस प्रमुख श्रृंखला के भीतर अनेक । प्रकार की अन्तर्धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। कुल मिलाकर अत्यधिक जटिलता की एक धूमिल तथा आवृत तस्वीर बनती है। विद्रोहियों की गतिविधियों से यह आभास मिलता है कि 13 फरवरी तक प्रायः सभी विद्रोही समूह अपनी उंचाई पर थे और उन्होंने जो लूटमार की थी. उससे उत्पादक शक्तियों को बहुत धक्का लगा था। गतिविधियों की दृष्टि से सरकार । विद्रोहियों के सामने बौनी थी और उसकी सारी ताकत जगदलपुर के राजमहल को बचाने में ही लग गयी थी। हमें यह सुनकर आश्चर्य होता है कि विद्रोही एक के बाद दूसरे नगर पर कब्जा करते रहे और सरकार मूक दर्शक बन कर खड़ी रही। विद्रोही गतिविधियों की संरचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र वे थे, जहाँ जैपुर । हैदराबाद तथा अहीरी की सीमाएं बस्तर से लगती थीं। 29 मार्च 1910 तक यह एक
    अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र था। विद्रोहियों के लिए यह अनेक कारणों से हितकारी था। पहली बात तो यह है कि यहाँ की जनसंख्या अपेक्षाकृत छितराई हई थी और पर्वतों की दीर्ध । श्रृंखलाएं थीं, जो वनों से आच्छादित थीं। ये वन इतने अधिक दूर्गम थे कि सरकारी फौजों के द्वारा यहाँ सैनिक कार्रवाही असाधारण रूप से बहुत कठिन थी। इस प्रकार फिर से आक्रमण के लक्ष्य से विद्रोही उन घने जंगलों में आश्रय ले सकते थे और आक्रमण के बिना भय के वहाँ फिर से समूहबद्ध होकर अगली योजना पर विचार कर सकते थे। दूसरी बात यह थी कि यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से स्थिति बहुत सुरक्षित था। विद्रोही समूहों के लिए यह संभव था

    कि वे इसे विविध दिशाओं में आक्रमण के लिए एक केन्द्र के रूप में इस्तेमाल करते।


    अब हम सरकारी पक्ष पर विचार करें। कहना होगा कि विद्रोह को दबाने के लिए। सरकारी प्रयास निराशाजनक थे। सरकारी “प्लानिंग” घटिया थी तथा उसमें निजी असफलताएं छिपी हुई थीं। राज्य का प्रधानमंत्री ही जंगलों में छिपता हुआ बाहरी आश्रय की तलाश में था और विद्रोह के भड़कने के साथ ही वह राजधानी लौटने से कतराता रहा और बिटिश-सेना की सुरक्षा में बस्तर से बाहर भागने में सफल हुआ। सरकारी-तंत्र में भगदड़ मची हुई थी। लोग या तो छिप रहे थे अथवा बस्तर छोड़कर भाग रहे थे। अव्यवस्था का। आलम यह था कि राज्य की राजधानी बारह दिनों तक विद्रोहियों के कब्जे में थी। वहाँ सरकारी-सेना 13 फरवरी को ही पहुँच पायी। इस प्रकार विद्रोहियों ने पहली बार जनता के राज “मुरियाराज” को स्थापित किया। वे “बिना ताज के बादशाह” थे। भारत के मुक्ति-संग्राम के इतिहास में यह घटना स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है। उनमें आत्मविश्वास जागा और वे आजादी के गीत गाने लगे - नना झोरिया लयोना, नना वातोना लारोनिया कावेर नना वातोना, वाटी ते वाटी ते बादो बेरा डेरा कटीत ।




    सही मायनों में विद्रोह की आकस्मिक पराकाष्ठा 7 फरवरी 1910 को हो गयी थी।
    इससे पहले और इससे बाद भी बस्तर में इतने अधिक विशाल किन्तु स्वतंत्र समूह कभी भी एक होकर एक ही समय में विद्रोह का संचालन नहीं कर पाए। इसी दिन गीदम में 'मुरियाराज' की उद्घोषणा हुई थी।उक्त भुमकाल बस्तर के आदिवासियों के स्वाधीनता-संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उक्त भुमकाल में लाल कालेन्द्रसिंह तथा गुण्डाधूर का करिश्माई व्यक्तित्व आदि । से अंत तक छाया रहा। किन्तु कमी यह थी कि ये 'भुमकालेया' किसी एक खास क्षेत्र में अपनी जड़ों को मजबूत करने के बजाय क्षेत्रों में तबदीली करते रहे। किसी स्थान पर यदि ।का ठोस नियंत्रण हो जाता तो स्थिति दूसरी ही होती। इसके अतिरिक्त ये अपनी कोई ठोस जनैतिक संरचना को खड़ा करने में सफल नहीं रहे। यदि इन्होंने कोई ठोस राजनैतिक


    संरचना बना ली होती, तो उससे सैनिक शक्ति में भी इजाफा होता। ब्रिटिश-सेना की बंदकों
    और तोपों के सामने इनकी तलवारें तथा धनुष-बाण बेकार सिद्ध हुए। चूँकि अंग्रेजों को इस ।में विद्रोहों को दबाने का एक दीर्घ अनुभव था, इसलिए वे इस महान् भुमकाल को भी सरलता से कुचलने में सफल हो गए।

    1910 के महान भुमकाल के महान् योद्धा गुण्डाधूर बस्तर के आदिवासियों के बीच अमर हैं। * आश्चर्य तो यह है कि राजनीति ने ईसाई- धर्म में दीक्षित तथा अंग्रेजी दाँ बिहार के बिरसा मुंडा (1875-1901) को जो मान्यता प्रदान की, वह मान्यता धुर अशिक्षित तथा अपने आदिवासी-धर्म में कर्त्तव्यनिष्ठ गुण्डाधूर


    को अभी तक नहीं मिल पायी। बिरसा का
    आन्दोलन ईसाई-प्रभाव से अनुप्राणित था, जब कि गुण्डाधूर का आन्दोलन आटविक मानसिकता से प्रभावित था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बिरसा मुंडा तथा गुण्डाधूर दोनों • ही समसामयिक थे। स्वास्थ्य की गिरावट के कारण 9 जून 1901 को बिरसा मुंडा की मृत्यु हुई, जब कि गुण्डा धूर 1910 की क्रान्ति के असफल होने पर बीहड़ वनों में गुम हो गया। उसकी मृत्यु की कोई खबर नहीं है। शायद वह मृत्युंजय था। ऐसे महानायक की याद में आज तक कोई स्मारक भी नहीं बना।




    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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