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लिंगागिरी विद्रोह महामुक्ति संग्राम-1856 (आर्यन चिराम) // lingagiri mahamukti sangram-1856 (aaryan chiram)

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    लिंगागिरी विद्रोह महामुक्ति संग्राम की लपटें(1854-56)





    उक्त मुक्तिसंग्राम बस्तर की धरती से संगठित नहीं हुआ था
    , अपितु वह उस समय

    महसा बस्तर में भी छिड़ गया,


    जब समूचा भारत आग की लपेटों से खेल रहा था।
    1854 में बस्तर
    - अंचल पूरी तरह अंग्रेजी-शासन के अधीन हो गया था। इस नएशासन से न तो राजा
    भैरमदेव प्रसन्न थे,

    न उनके दीवान दलगजनसिंह और न ही यहाँ की आदिवासी जनता । नए 
    राय के प्रति यद्यपि जनता में कोई अच्छी भावना नहीं थी फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आदिवासी जनता सरकार से असहयोग कर रही थी। अधिकारियों ने स्थिति को गलत ढंग से नियंत्रित किया। इसलिए विद्रोह के लम्बे इतिहास से जुडे हुए यहाँ के लोगों ने हथियार उठा लिए।

    मार्च 1856 ई. के अन्त तक दक्षिण बस्तर में आन्दोलन तीव्र गति पर था। 50 वर्गमील-क्षेत्र में फैले हुए लिंगागिरि तालुक की इस निर्णायक फैलाव में महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस तालुक के तालुकेदार को इलियट ने धर्माराव कहा है, जब कि ग्लसफर्ड के अनुसार वह धुर्वाराव के नाम से जाना जाता था। धुर्वा माडिया जनजाति का था। उसने अंग्रेजी-शासन की कभी परवाह नहीं की और इसीलिए ब्रिटिश सरकार उससे रुष्ट थी।


    तालुकेदार धुर्वाराव को कहीं से कुछ परवाना मिला और उसने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का
    विगुल बजा दिया। उसने बस्तर के राजा भैरमदेव से भी निवेदन किया कि वह भी गैरकानूनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दे। भैरमदेव तो वैसा नहीं कर सके, किन्तु विद्रोहियों की उन्होंने पूरी सहायता की। सीमावर्ती अरपल्ली (चाँदा जिला) के जमींदारों - यंकुटराव और बापूराव ने जब विद्रोह कर दिया, तो अंग्रेजी-सेना से उसका रक्षा का भार भैरमदेव पर ही था। 11 मई 1859 को चाँदा के डिप्टी कमिश्नर ग्लसफर्ड के नाम लिखित पत्र में चाँदा की 


    अहीरी- जमींदारिन ने यह आरोप लगाया था कि बस्तर के राजा व्यकटराव तथा उसके अन्य
    साथियों का समर्थन करते हुए विद्रोह की लपटों में घी डालने का काम कर रहे हैं। जमींदारिन ने यह भी आरोप लगाया था कि बस्तर के राजा ने व्यकुटराव नामक व्यक्ति को इसलिए नजरबन्द कर रखा है। क्योंकि उसने अंग्रेजों के असली अपराधी बापूराव को पकड़ने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। बस्तर के राजा तथा व्यंकटराव के बीच मैत्रीसम्बन्धों की भी उन दिनों पूरी चर्चा थी। यह भी अफवाह थी कि बस्तर के राजा अस्त्र-शस्त्र एकत्र कर रहे हैं तथा वे पूरी तरह लड़ाई की मुद्रा में हैं।

    भैरमदेव तो खलकर सामने नहीं आ सके किन्तु धुर्वाराव के नेतृत्व में उसके तालुका की जनता ने अंग्रेजी-सरकार के प्रति विद्रोह कर दिया। इलियट (1856)


    के हवाले से ज्ञात 
    होता है कि आदिवासियों ने गाँवों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। माल से लदी बैलगाड़ियों को अपने वश में कर लिया। दक्षिण बस्तर में इलियट की सरकारी सेना तथा तेलंगा माड़ियों (दोर्ला ओं) के बीच अनेक संघर्ष हए। माड़िया अपनी सैनिक गतिविधियों के लिए पहाड़ियों का ही केन्द्र बनाए हुए थे। वे पूरी तरह छापामार-युद्ध का अभ्यास करते और अंग्रेजों से सम्बन्ध रखने वाले लोगों पर घात लगाकर हमला करते। सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष


    3 मार्च 
    1856 को चिन्तलनार में हुआ। अपने तीन हजार साथियों के साथ धुर्वाराव चिन्तलनार की पहाड़ियों पर घात लगाकर बैठ गया और वहाँ से प्रात: आठ बजे गुजरने वाली अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ा। धात-प्रतिघात की स्थिति सायंकाल साढ़े तीन बजे तक चलती रही।

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    ब्रिटिश-अधिकारियों की सूचना के अनुसार आदिवासियों ने यहाँ कड़ा मुकाबला किया था। विद्रोह को दबाने के लिए भोपालपटनम का जमींदार अंग्रेजी-सेना के साथ था। वह घायल हो गया। Tumesh chiram   भोपालपटनम का एक सरकारी कर्मचारी मारा गया। 460 माडिया औरतों तथा बच्चों को बंदी बना लिया गया, जिनमें धुर्वाराव की पत्नी और बच्चे भी थे। धुर्वाराव को पकड


     
    लिया गया और उसे फाँसी हो गयी। उसके तालुका को छीन लिया गया और पुरस्कार। स्वरूप भोपालपटनम के जमींदार को दे दिया गया।

    राव को फाँसी हो जाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने लिंगागिरी परगना भोपालपटनम के जमींदार यादोराव के पिता को सुपुर्द कर दिया; क्योंकि विद्रोह को दबाने में यादोराव के पिता का महत्वपूर्ण योगदान था। यादोरात्र धुर्वाराव का एक सच्चा मित्र


    था। वह उस समय विचलित हो गया, जब सुना कि उसके मित्र को फाँसी हो गयी है। उसने निश्चय कर लिया कि इसका बदला वह अपने पिता से लेगा और बिटिश-सरकार । को भी मजा चखाएगा। उसने भी विद्रोह कर दिया। उसने तेलंगा तथा दोर्ला लोगों को संगठित किया। उसके नेतृत्व में 2000 दोर्ला लोगों की एक सेना खड़ी हो गयी। बाद में । दक्षिण क्षेत्र की सभी दोली जनता ने विटिश-सरकार के खिलाफ धनुष-बाण उठा लिए।

    यादोराव के पिता ने अपने पुत्र और जनता का साथ नहीं दिया। इसलिए यादोराव को बंदी बना लिया गया और उसके पिता ने ब्रिटिश सरकार के आदेश पर 1860 ई. में भोपालपटनम में उसे फांसी दे दी।

    यादोराव ने अपने संघर्ष को तेज करने के लिए अहीरी-जमींदारी के अन्तर्गत आने वाले मोनमपल्ली के तालुकेदार बाबूराव व अरपल्ली तथा घोट के जमीदार व्यंकटराव से भी


    सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। मार्च 1858 ई. तक कैप्टेन डब्ल्यू.एच. क्रिक्टन सावधान थे कि इनकी गतिविधियों न बढ़ पाएँ। किन्तु उसके बाद इन दोनों ने ब्रिटिश-ठिकानों पर धआँधार

    हमले किए। राजगढ़-परगना को लूट लिया। बाबूराव तथा व्यंकटराव ने खुलेतौर पर ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्रोह घोषित कर दिया (पाण्ट 1870: 147,Openly declared rebellion)


    उन्होंने रोहिल्ला तथा गोंडों की एक सम्मिलित सेना को संगठित किया और। 
    अनेक बार ब्रिटिश सेना- का डटकर मुकाबला किया। 29 अप्रैल की रात को विद्रोहियों की एक टुकड़ी ने गार्टलेण्ड, हाल तथा पीटर पर धावा बोल दिया। ये टेलीग्राफ कर्मचारी थे


    , जो । 
    प्राणहिता नदी के तट पर बसे गाँव चंचुगुण्डी में ठहरे हुए थे। इनमें से गार्टलैण्ड तथा हाल की विद्रोहियों ने हत्या कर दी। पीटर बच निकला और कैप्टेन क्रिक्टन की टुकडी से जा। मिला। उस समय कैप्टेन क्रिक्टन इस क्षेत्र में विद्रोही सेना के खिलाफ मोर्चाबंदी कर रहे थे ।।

    अहीरी की जमींदारिन लक्ष्मीबाई उस समय ब्रिटिश सरकार से मिली हुई थी। कैप्टेन क्रिक्टन ने पीटर को आदिवासी के भेस में लक्ष्मीबाई के पास भेजा। पीटर ने लक्ष्मीबाई को  कैप्टेन का पत्र दिया। विद्रोहियों ने अनेक स्थानों पर ब्रिटिश-सेना का डटकर मकाबला किया.

    किन्त उन्हें पूरी सफलता नहीं मिल पायी
    , शायद साधनों की कमी से। लक्ष्मीबाई के कपटजाल 
    से बाद में बाबूराव पकड़ा गया। उसे तत्काल चाँदा भेज दिया गया। जहाँ उसे 21 अक्टूबर 1858 को फाँसी दे दी गयी। व्यंकटराव अपने मित्र यादोराव की सहायता से बस्तर भाग गया और यहाँ पुनः उसने विद्रोही गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दीं। भैरमदेव के राजमहल में वह छिपा हुआ था। राजा को अपना हितैषी मानता था। राजा ने अप्रैल 1860 में उसे उस समय गिरफ्तार करवा दिया, जब दोर्ला-विद्रोह में ब्रिटिश-सरकार उससे सवाल-जवाब कर रही थी। 


    व्यंकटराव को भी फाँसी दी गयी और इस प्रकार महान्मु क्ति-संग्राम की लपटें बस्तर में शान्त

    हो गयीं (ग्राण्ट, 1870, 147-8)





    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

    email:-aaryanchiram@gmail.com

    Contect Nu.7999054095

    CEO & Founder

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