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मुरिया विद्रोह -1876 (आर्यन चिराम) // muriya vidroh-1876 (aaryan chiram)

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    1876 के मुरिया-विद्रोह के कारण


    उपर्युक्त उद्धृत चश्मदीद गवाहों के बयानों तथा विद्रोह के विषय में ब्रिटिश-अधिकारियों के द्वारा दिये गये महत्वपूर्ण कारणों को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:

    (क) ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गये विभिन्न भराजस्व-विषयक प्रयोगों की वजह से

    आदिवासियों में अभूतपूर्व हलचल पैदा हुई, जिसने सारे क्षेत्र को दलदल में फँसा दिया था।
    जमींदारी, रैय्यतवारी तथा ठेकेदारी का बस्तर में नया प्रयोग किया गया, जिसकी वजह से आदिवासियों पर कहर टूट पड़ा। मार्क्स ने भी स्वीकार किया है कि “जमींदारी और रैय्यतवारी दोनों ही न तो जनसाधारण के लिए थीं जो जमीन जोतते थे और न ही भूस्वामियों के लिए थीं. जो उसके मालिक थी” ठेकेदारी-व्यवस्था भी ठेकेदारों के पक्ष में रैय्यत की जमीनों के हस्तांतरण से कुछ कम न थी। कलम की जोर से बस्तर के जमींदार तथा छत्तीसगढ़ के प्रभावकारी व्यक्तियों को (जो पहले राजस्व उगाही करते थे) उनका पैतृक मालिक बना दिया गया। इसके कारण दंगे भड़क उठे तथा शासक की नीतियों के विरोध में लोग एक स्थान पर जमा होकर अपना रोष व्यक्त करने लगे। अंग्रेजों की नीति आदिवासी समुदाय की एकता पर कुठाराधात मानी गयी। इस प्रकार सम्पूर्ण राजस्व-व्यवस्था का ढाँचा चरमराने लगा। आदिवासी-परम्परा का पूरी तरह से विनाश हो गया। इग्लैण्ड ने आदिवासी समाज के सारे ढाँचे को गडबडा दिया। ब्रिटिश सरकार ने कोई नये विकासशील कदम भी नहीं उठाये। अपनी पुरातन संस्कृति की समाप्ति तथा विकास के लिए नवीन विचारधारायें उपलब्ध न होने के कारण। मुरिया विकास की दौड़ में पिछड़ गया।

    समाज का पारम्परिक ढाँचा जो कृषि तथा हस्तशिल्प पर आधारित था, चरमराने। लगा। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप रैय्यत ही केवल प्रभावित नहीं हुए। हस्तशिल्प-उद्योग में गिरावट के कारण हजारी महार और पाड़िया बेरोजगार हो गये। इस परिवर्तन की प्रतिक्रियास्वरूप पुराने जमीदार भी प्रभावित हुए। सिरहा और उनके धार्मिक आदेश भी बुरी । तरह से प्रभावित हुए। कृषि पर आधारित सारा ढाँचा टूटने लगा, जिससे आदिवासियों का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। आदिवासियों पर दो विपरीत प्रभाव पड़े. सामंतवादी तथा।
    उपनिवेशवादी। इन्हीं कारणों की वजह से आदिवासियों ने राजा तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया।

    (ख) अंग्रेज सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप भी मुरियाओं की संवेदनाओं को झकझोरने वाला था। 1875 में अंग्रेज सरकार ने राजा को आदेशित किया की वह दिल्ली-दरबार में "प्रिंस आफ वेल्स" का अभिवादन


    करे। यह तय किया गया कि राजा सिंरोचा होते हुए दिल्ली-दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेंगे। बस्तर की जनजातियाँ अंग्रेज- सरकार के व्यवहार के प्रति शंकालु थीं तथा उन्होंने
    राजा से दिल्ली न जाने का निवेदन किया। राजा ने अपनी असहायता व्यक्त की तथा इससे जनजातियों के मस्तिष्क में यह भ्रम उत्पन्न हो गया कि राजा दिल्ली से कभी वापस नहीं आयेगा। जनजातियों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का एक कारण बदनाम प्रधानमंत्री गोपीनाथ कपड़दार भी था। जनजातियाँ यह सोचती थीं कि राजा की अनुपस्थिति में गोपीनाथ । उनका शोषण करेगा। इन सब ने बारूद का काम किया, जिससे सारे क्षेत्र में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी।




    (ग) मुरिया गोपीनाथ के विरोधी थे। साथ ही वे नौकरशाही-व्यवस्था से भी नाराज ।
    थे। जब गोपीनाथ को बस्तर का दीवान बनाया गया, तो यह मान्य परम्पराओं के विरुद्ध था: क्योंकि उस समय तक शासक-वर्ग के लोगों में से ही दीवान चुना जाता था। गोपीनाथ । रावत जाति का था तथा उसका बस्तर का प्रधानमंत्री बनना शासक वर्ग में पनप रहे असंतोष ।


    का महत्वपूर्ण कारण बना । गोपीनाथ ने स्वयं को इतना
    शक्तिशाली बना लिया था कि राजा भैरमदेव उसक हाथों में मात्र एक कठपुतली था। गोपीनाथ ने बस्तर में ठेकेदारी-प्रथा को प्रारम्भ किया, जिससे बस्तर वासियों में असंतोष फैलने लगा था।

    (घ) अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो' की नीति अपनाई। सिरोंचा के डिप्टी। कमिश्नर ने बस्तर के हाथी को जैपुर के हाथों में सौंप दिया। इससे भी आदिवासियों को आघात लगा। आदिवासियों को यह विश्वास हो चला था कि अंग्रेज उनके राजा का निरंतर अपमान कर रहे हैं।
    (ङ) मुरिया-विद्रोह का एक निश्चित क्रांतिकारी सन्दर्भ भी है। मुंशियों को शोषक करार दिया गया तथा उन्हें आम आदमी का शत्रु माना गया। गोपीनाथ ने कई सौ मुंशियों को नियुक्त किया, जो उर्दू जानते थे। ये व्यक्ति आदिवासी संवेदनाओं या जनजातीय संवेदनाओं को नहीं समझते थे तथा इनका आर्थिक शोषण करते थे। जनजाति बोलियों के प्रति होने वाले अनादर के कारण भी आदिवासियों ने शस्त्र उठा लिया।

    (च) मुरिया-विद्रोह का एक अन्य कारण ठेकेदारों द्वारा जबरिया श्रम तथा माझियों के अधिकारों में कमी करना भी रहा । इससे जनजातीय व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो गई तथा वे गलाम बनकर रह गये। आदिवासियों ने शोषण के विरुद्ध तथा अपनी रक्षा- हेतु अपनी कमर कस ली ।।

    (छ) मुरिया-विद्रोह के कारण कुछ नये तथ्य प्रकाश में आये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि विद्रोहियों को महल से पूर्ण सहायता मिली। भैरमदेव की मुख्य रानी तथा । राजा के भाई लाल कालीन्द्रसिंह आदिवासियों को परोक्ष रूप से सहायता देते रहे। ।

    (ज) मुरिया-विद्रोह की जाँच के लिए ब्रिटिश सरकार ने मैकजार्ज की अध्यक्षता में। अगस्त 1876 में जो अपना प्रतिवेदन दिया था (द्र. फारेन पोलिटिकल इंटरनल, नेशनल आकईिव्स आफ इंडिया, अगस्त 1876 अप्रकाशित), वह यद्यपि कुटिलतापूर्ण था तथापि उससे । मुरिया-विद्रोह की बिटिश-व्याख्या को समझा जा सकता है। तदनुसार मैकजार्ज के ही। अनुसर - "मुरिया-विद्रोह के घटित होने पर 1876 में गोपीनाथ कपडदार का प्रशासन समाप्त । हो गया। विद्रोह के कारणों की जांच के दौरान दीवान के प्रशासन का वास्तविक रूप खुलकर सामने आया। दण्ड न्यायालय के प्रमुख आदितप्रसाद से दीवान गोपीनाथ की गाड़ी मित्रता ।
    थी और उसी आदितप्रसाद ने आम जनता पर बहुत अधिक अत्याचार किया था। इसी । अत्याचार की तात्कालिक प्रतिक्रिया थी मुरिया-विद्रोह। आम जनता को प्रायः बाध्य किया जाता था कि वह राज्य के अधिकारियों को माल की आपूर्ति मुफ्त में ही करे। ये अधिकारी। जब स्थानीय उत्पाद; यथा घी, मांस, चावल खरीदते थे, तो प्रायः उसका भुगतान नहीं करते। थे। प्रशासन में राजा की न तो कोई रुचि थी और न ही कोई अनुभव। वह राजकाज को दीवान और अन्य छोटे अधिकारियों के भरोसे छोड़ चुका था। क्षेत्र की दुर्गमता और
    आवागमन के साधनों की कमी के कारण आम जनता की हालत और भी बदतर होती गयी; क्योंकि आम जनता वैयक्तिक तौर पर जगदलपुर आकर राजा के सामने अपना दुखड़ा नहीं रो। सकती थी। बेगारी (बंधुआ मजदूरी) की प्रथा थी. जिसके अनुसार राज्य के अधिकारियों के । गुलाम के रूप में आदिवासियों को बिना किसी पारिश्रमिक के काम करना होता था। यह प्रथा बहुत पुरानी थी और इससे लोगों की स्थिति और भी अधिक बिगड़ गयी। इतना ही नहीं। बस्तर के बाहर के व्यापारी तथा साहुकार भी जब बस्तर आते थे, तो स्थानीय लोगों से बिना। किसी पारिश्रमिक के मुफ्त 'बेगार' करवाते थे; जैसे उनके माल को मुफ्त में ही ढोना और उनके परिवहन की व्यवस्था करना। आदिवासियों की यह शिकायत थी कि परदेशी लोग उनका भूमि पर बलात्कब्जा कर रहे हैं। संक्षेप में स्थानीय प्रशासन की प्रमुख गलती यह थी।

    उसक पास राज्य के सहायक अधिकारियों के प्रभावशाली देखभाल व नियंत्रण के लिए। कारगर मशीनरी नहीं थी। सताए हुए लोगों की शिकायत सुनने वाला कोई नहीं था।।


    शिकायत लेकर जिनके पास कोई आदिवासी जाता, Tumesh chiram   वह व्यक्ति उसकी परेशानियों को और बढ़ा देता था (तदेव, अगस्त 1876, प्रोसिडिंग क्रमांक 170, पैरा 21) ।

    (झ) मैकजार्ज ने विद्रोह के अन्य कारणों की भी चर्चा की थी। उसके अनुसार "इस विद्रोह में आदिवासियों का असंतोष ही एकमात्र कारण नहीं था। एक कारण यह भी था कि। दरबार में महत्वाकांक्षी प्रतिस्पर्धियों के परस्पर विरोधी स्वार्थ थे, जो कि आदिवासियों में अत्यधिक प्रभावशाली राजगुरु लोकनाथ, दीवान गोपीनाथ तथा आदित प्रसाद से बहुत अधिक चिढ़ते थे। राजगुरु ने मुरिया लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया था और उन्हें अपना पूरा सहयोग देने का वचन दिया था। इसका प्रमाण उन पत्रों से मिलता है, जो राजगुरु ने आदिवासी माझियों को भेजा था और बाद में वे पत्र ब्रिटिश-अधिकारियों के हाथ में आए। राजा भैरमदेव के चचेरे भाई (दलगंजनसिंह के पुत्र) तथा एक अन्य व्यक्ति दूधनाथ भी आदिवासियों को भड़काने के काम में लगे हुए थे। विद्रोह पर की गई जाँच से यह भी प्रकाश में आया कि दरबार के असंतुष्ट तत्व भैरमदेव की जगह उनके चचेरे भाई लाल कालीन्द्रसिंह को राजा बनाना चाहते थे। उस समय लाल कालीन्द्रसिंह सोलह वर्ष के
    नवयुवक थे और राजा की कोई संतान भी नहीं थी। भूतपूर्व दीवान मोतीसिंह जिसको पहले राजा ने दीवान के पद से हटा दिया था, वह भी गरम तवे में अपनी रोटियाँ सेंकना चाहता था। इस प्रकार दरबार के असंतुष्ट आभिजात्य वर्ग के सुलगते हुए असंतोष तथा आदिवासियों के बीच असंतुष्ट वर्ग को दहकने के लिए मात्र एक चिंगारी की आवश्यकता थी। वह फरवरी 1876 में अनायास मिल गई (तदेव, पैरा 23)।"

    इस प्रकार संक्षेप में उक्त विद्रोह के प्रमुख दो कारण थे-
    (अ) शासकीय मशीनरी तथा ठेकेदारों की मिलीभगत से आदिवासी-जनता का शोषण
    किया जा रहा था

    (ब) आदिवासियों की भूमि का बड़े किसानों तथा ठेकेदारों तथा सरकार के द्वारा
    स्वामित्वहरण।

    विद्रोह की शुरूआत :


    मारेंगा में विद्रोह की गतिविधियाँ जनवरी-फरवरी 1876 में विद्रोह ने अपना रूप दिखाया। एक राजनीतिक दुत ने पत्र । के द्वारा राजा भेरमदेव को बम्बई में भारत-यात्रा पर आने वाले प्रिंस आफ वैल्स की सलामी के लिए ब्रिटिश सरकार का परवाना दिया। इस परवाने को प्राप्त कर राजा भैरमदेव बम्बई के लिए प्रस्थित हुये। उन्हें सिरोंचा होते हुए बम्बई जाना था (मैकजार्ज 1876)। राजा अपने सैनिकों तथा दीवान गोपीनाथ कपडदार के साथ मारेंगा नामक गाँव तक पहुँचे, जो जगदलपुर, से 6 मील दूर है। इस गाँव में राजा को रोक दिया गया तथा आगरवारा परगना के मुरिया । आदिवासियों ने राजा को दिल्ली न जाने हेतु निवेदन किया तथा गोपीनाथ अथवा किसी मुंशी को दिल्ली भेजने की प्रार्थना की। मुरिया आदिवासियों के मत में राजा की अनुपस्थिति। में बस्तर में शोषण का दमनचक्र शुरू हो जाएगा। बस्तर के आदिवासियों ने राजा से कहा कि । आपकी अनुपस्थिति में दीवान गोपीनाथ तथा आदित्यप्रसाद की दया पर उन्हें जीना होगा, जो कि अब तक हमारे दमनकर्ता के रूप में बदनाम हैं (मैकजार्ज तदेव)। वे यह भी सोच रहे थे कि अंग्रेज भैरमदेव को बम्बई से वापस नहीं आने देंगे।




    प्रजा की राजा के प्रति पारम्परिक आज्ञाकारिता भी एक महत्वपूर्ण कारण थी। राजा
    को दिल्ली न जाने की सलाह देना राजा के प्रति प्रजा की सम्मान-भावना को व्यक्त करता है। पारम्परिक स्वतंत्रता को छोड़ अंग्रेजों के प्रभाव को स्वीकार करना तथा उनके। शोषण-चक्र में फंसना आदिवासियों को स्वीकार्य नहीं था। राजा को आदिवासियों का। असंतोष तब समझ में आया, जब एक मुरिया 'बेगारी' ने राजा के सामान को ढोने से मना कर दिया (मैकजार्ज, तदेव)। इस पर भी जब राजा ने असंतुष्ट प्रजा की बात नहीं मानी, तो आगरवाना परगना के मुरिया-आदिवासियों ने राजा का घेराव किया। जब दीवान भी स्थिति को नहीं सम्हाल पाया, तो उसने सैनिकों को भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे। दिया, जिसमें कुछ आदिवासियों की मृत्यु हो गई तथा 18 आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया (दि ब्रेट, 1909)। अनेक आदिवासियों को पीटा गया और उन्हें ।हल्बा समाज,HALBA SAMAJ,मेरिया विद्रोह,MERIYA VIDROH,आर्यन चिराम,aaryan chiram,विद्रोह,vidroh,क्रांति,kranti,आदिवासी,adiwasi,छत्तीसगढ़,chhattisgarh,muriya vidroh,मुरिया विद्रोह,
    जगदलपुर-जेल भेज दिया गया। इसके बाद बीच में ही राजा ने यात्रा स्थगित कर दी तथा वे जगदलपुर वापस लौटने लगे (मैकजार्ज, तदेव)।
    - कुरंगपाल की घटना

    दीवान गोपीनाथ कपड़दार ने बिना वारंट के मुरिया-आदिवासियों को गिरफ्तार करना प्रारम्भ कर दिया। मारेंगा गाँव में 18 आदिवासियों को गिरफ्तार कर कुरगपाल ले जाया गया, जहां उन्हें शारीरिक यातनायें दी गई तथा उन्हें बेगार- हेतु यातनापूर्वक मनवाया गया। अभिभावकों के सामने बच्चों को पीटा गया। महिलाओं का उनके सम्बन्धियों के सामने अपमान किया गया। आदिवासियों के घर उजाड दिये गये व उनके जानवरों को मनचाहे स्थानों पर छोड़ दिया गया। आदिवासियों की सम्पत्ति को खुले आम लूटा गया। इस अमानवीय कृत्य का आदिवासियों ने साहस से मुकाबला किया तथा वे दीवान के सामने नहीं झुके । जब दबाव से काम नहीं चला तो दीवान ने शोषण की अन्य रणनीतियाँ अपनाई। रास्ते

    में राजा के सुरक्षा-सैनिक निहत्थे आदिवासियों पर टूट पड़े। अनेक मुरिया लोगों को उन्होंने

    मार गिराया और उससे भी अधिक असंख्यों को घायल कर दिया (मेकजार्ज, तदेव)।


    दीवान ने 18 गिरफ्तार मुरिया-आदिवासियों को सूचित किया कि राजा के आदेश स वे जगदलपुर आएँ, जहाँ

    'बेगार' प्रथा

    को सुलझाया जायेगा। आदिवासियों ने जगदलपुर जाने से मना कर दिया, जब तक कि राजा उनके साथ न हों। इससे गोपीनाथ रुष्ट हो गया तथा उसने 18 आदिवासियों को जगदलपर खींच लाने के लिए सेना को आदेश दिया। इस मध्य 500 आदिवासी सहायता के लिए आ गये तथा उन्होंने गिरफ्तार 18 आदिवासियों को छुड़ा लिया। आदिवासियों ने सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया। गोपीनाथ भाग गया और
    इस प्रकार विप्लव प्रारम्भ हुआ। भैरमदेव स्थिति की गम्भीरता को समझ गया तथा उसने कुंअर दुर्जनसिंह को विद्रोह की समाप्ति के लिए भेजा। आदिवासी विप्लव पर आमादा थे तथा उन्हें कोई नहीं रोक पाया।

    विद्रोह का प्रारंभिक चरमोत्कर्ष





    जब आदिवासियों ने सामंतों तथा औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध खुलकर विद्रोह
    करने की ठान ली तो वे आरापुर नामक गाँव में अपनी रणनीति तय करने हेतु एकत्र हए। विद्रोहियों को अपने विरुद्ध खेली जाने वाली चालों का पता था तथा बस्तर में उन्हें अपने। शोषकों के विरुद्ध रणनीति तय करने में देर न लगी। ऐसे शोषक जिन्होंने आदिवासी। संवेदनाओं को रौंद डाला था। आरापुर ग्राम में झाड़ा सिरहा नामक व्यक्ति को विद्रोहियों ने अपना नेता चुना । जब उन्होंने आक्रमण करने की ठान ली तब प्रत्येक गाँव में एक तीर भेजना प्रारम्भ किया गया। यह तीर प्रत्येक ग्राम प्रमुख ने स्वीकार किया। यह तार इस बात का प्रमाण था कि सभी गांव शोषण के विरुद्ध एक है। प्रतीक के रूप में आम की डाली प्रत्येक खलिहान में रोपी गयी - विद्रोह की ज्वाला के रूप में। इस विधि से आरापुर में 700 मुरिया जमा हुए, जहां उन्होंने सैनिक तैयारियों की। पत्थर हडिडयाँ तीर धनुष तथा बाण, भाले. आदि जमा किये गए, ताकि सामंतवादियों तथा शोषकों के विरुद्ध युद्ध प्रारभ किया जा
    सके। जब राजा भैरमदेव को यह विदित हुआ कि कुँअर तथा दुबे विद्रोहियों को मनाने में


    असफल रहे हैं, तो उसने स्वयं विद्रोहियों से सम्पर्क किया। आशंकित दीवान भी सेना के साथ राजा के पीछे चल पड़ा, जो घोड़े पर सवार था। कालिदरसिंह भी घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँचा। उस समय आदिवासी अत्यन्त कुपित थे। जब उन्होंने दीवान को घुड़सवारी करते देखा तो वे उस पर टूट पड़े, जिससे दीवान अत्यन्त भयभीत हो गया तथा वह राजा की पालकी के पीछे जा छिपा। जिन सिपाहियों ने दीवान को सुरक्षा के घेरे में ले लिया था,
    विद्रोही उन पर भी टूट पड़े। कई सुरक्षा सैनिक घायल हुए तथा राजा भैरमदेव ने सुरक्षा सैनिकों को आदिवासियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। राजा तथा विद्रोही प्रजा के मध्य प्रमासान युद्ध हुआ तथा छह मुरिया आदिवासी मारे गये। राजा ने सन्देश द्वारा जगदलपुर से हाथी-सैनिकों को बुलवाया। हाथी को आते देख विद्रोहियों ने हथियार डाल दिया तथा आरापुर से दूर भाग गये, जहाँ उनको कोई नहीं खोज पाया।
    जगदलपुर में विद्रोही गतिविधियाँ राजा तथा उनक दीवान जगदलपुर लौट आए। उन्हे अंदेशा था कि विद्रोही महल पर आक्रमण करेंगे तथा सुरक्षा सैनिकों को रौंद डालेंगे। राजा ने किले की सुरक्षा हेतु आदेश दिया अनाज का भंडारण किया गया। महल के चार प्रमुख दरवाजे बन्द कर दिये गये । सुरक्षा के लिए। हथियार महल के चारों तरफ जमा किए गए। 500 सुरक्षाकर्मी हमेशा महल की रक्षा के लिए तैनात रहते थे। इस प्रकार महल तथा अधिकारियों की रक्षा के सारे प्रबन्ध किये गये। सारे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को आक्रमण से बचाने के लिए महल में रहने के आदेश दिये गये। जब महल में सुरक्षा के सारे इन्तजाम किये जा रहे थे, तब विद्रोही जगदलपुर पहुंचे चुके थे। वे राजधानी में एकत्र हए ।।झाड़ा सिरहा विद्रोहियों का नेता था।

    इस बीच आदिवासियों का रोष और भी गहन होता गया तथा वे सामंती शक्तियों के विरोध में खुलकर सामने आ गये। झाड़ा सिरहा चमत्कारी शक्तियों से युक्त व्यक्ति था। उसने । आदिवासी-विद्रोह को राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से समर्पित भाव से अपनाने उत्साहित किया। आम के वृक्ष की शाखा प्रतीक के रूप में एक जगह से दूसरी जगह भेजी गई, ताकि सभी शोषण के विरुद्ध एक हो सकें। कम समय में ही विद्रोही-समूह एक हो गये। भतराजातीय समूह भी विद्रोहियों में सम्मिलित हो गया । इस प्रकार विद्रोह जंगल की आग के समान फैलता गया तथा सभी स्वतंत्रता-सैनिकों ने इनका साथ दिया। मैकजार्ज के अनुसार जगदलपुर में तीन हजार मुरिया इकट्ठे हुए थे , जब कि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उनकी संख्या बीस हजार से अधिक रही होगी।

    2 मार्च 1876 को एक ऐतिहासिक घटना हुई। क्रातिकारी संघर्ष के इतिहास में इसे

    "लाल दिवस"

    भी कहा जाता है। विद्रोहियों ने योजना बनाई तथा गुप्त रूप से अपनी कार्रवाईयाँ प्रारम्भ की। यह तय किया गया कि राजधानी पहुँचने वाले संवाद-माध्यमों को समाप्त कर दिया जाये। महल को चारों तरफ से घेर लिया जाय तथा जगदलपुर को सामंती शक्तियों से मुक्त कराया जाये (मैकजार्ज, तदेव)।

    विद्रोहियों की योजनाएँ

    विद्रोहियों द्वारा बनाई गयी तथा कार्यरूप में परिणत की गयी जगदलपुर घेराव की
    महत्वपूर्ण योजना निम्नानुसार थी-

    (क) यह तय किया गया कि महल पर अचानक तथा तीव्र गति से हमला किया जाये। तथा उस पर अधिकार कर लिया जाये।
    (ख) सभी संवाद माध्यमों पर कब्जा करने की योजना बनाई गई ताकि महल तथा बिटिश अधिकारियों के मध्य संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाये।
    (ग) गैर-विद्रोहियों को गतिविधियों से पूर्णत: अलग रखा जाये।
    (घ) यह योजना थी कि सामंतवादी अधिकारियों को घेर लिया जाये तथा उन्हें बस्तर ।
    से बाहर खदेड दिया जाये।

    इस प्रकार विद्रोहियों ने जगदलपुर के लिए एक 'मास्टर प्लान' तैयार किया। गद्दारों को विद्रोहियों के बाणों का शिकार होना पड़ा था। विद्रोही महल पहुंचने वाली रसद को बीच


    में ही छीन रहे थे। अनेक पुलिस कर्मी मारे गये तथा कुछ विद्रोही भी हताहत हुए।

    विद्रोह का प्रभाव

    विद्रोही पूर्णतः आशान्वित थे कि एक दिन महल उनके हाथों में आ जायेगा तथा महल के सुरक्षा-कर्मचारी रसद न मिलने के कारण आत्मसमर्पण कर देंगे। विद्रोहियों ने पानी की टंकियों तथा तालाबों पर भी अपना अधिकार कर लिया था।

    महल के मुंशियों के साथ दीवान भी आत्मसमर्पण करने के लिए लगभग तैयार हो गये थे। वे स्वयं को सुरक्षित रख पाने में सफल नहीं हो पा रहे थे। विद्रोही समूहों में महरा ही सूचनाओं के आदान-प्रदान का कार्य करते थे। उन्हीं को आने-जाने की छूट थी । गोपीनाथ ने एक महरा-महिला के माध्यम से ब्रिटिश अधिकारियों को एक पत्र भेजा कि पिछले चार महीनों से। राजधानी घिर चुकी हैं तथा शीघ्र ही सेना भेज दी जाये। यह पत्र मोम से लपेट कर महरा-महिला। की पेज की हाँडी में छिपा दिया गया था। ऊपर पेज तथा नीचे मोम में लपेटी पाती थी। राजा भैरमदेव यह जानते थे कि मुरिया-विद्रोही- समूह में लोकनाथ ठाकुर का काफी सम्मान है। उन्होंने ठाकुर से विद्रोहियों द्वारा कब्जा समाप्त कर देने का निवेदन किया, किन्त लोकनाथ ठाकर विद्रोही नेताओं को मना पाने में असफल रहे तथा राजा ने ठाकुर को बस्तर। राज्य से बाहर कर दिया तथा उनके पुत्र गोकुलनाथ को राजगुरु बना दिया। लोकनाथ ठाकुर महरा-महिला के साथ जैपुर चले गये, जिसके पास हण्डी में मोम से लिखा गया गुप्त-पत्र था। दीवान की इस चाल को राजगुरु नहीं समझ सके तथा आदिवासियों को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। राजगुरु को महरा के साथ जाने दिया गया, जिन पर कि आदिवासी।
    विश्वास करते थे। वह गुप्त-पत्र कोरापुट पोस्ट- आफिस में डाल दिया गया, जहाँ से बस्तर । की घेराबन्दी की खबर अग्रेजों तक पहुंच गई। यही वह समय था, जब कि विद्रोहियों की। योजना का पराभव हुआ।
    अंग्रेजी फौजों का आगमन
    मैकजार्ज के अनुसार “राजा की क्रोधोन्मत्त अपील पर सिंरोचा के डिप्टी तथा जैपुर के

    असिस्टेण्ट एजेण्ट ने सैन्य दल भेजा।" विद्रोह को दबाने के लिए अधोलिखित राज्यों से सेना तथा रसद-सामग्री भेजी गयी.

    (क) रायपुर से सेना तथा रसद
    (ख) जैपुर से पाँच सौ सैनिक
    (ग) विजगापट्टनम से 540 सेनिक ।

    मई 1876 तक 5 हजार सरकारी सैनिक कई सौ पुलिस जवानों के साथ पड़ोसी राज्यों से आए तथा सिरोचा से थलसेना की तीन रेजीमेण्ट रवाना हुई। सिंरोचा के डिप्टी कमिश्नर मैक जार्ज ने सेना का नेतृत्व किया। जब पर्याप्त सेना रायपुर, जैपुर, सिरोंचा से आ गई तो विद्रोहियों के पास गोरिल्ला-युद्ध तथा जंगली-युद्ध के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहा। वे दो से चार हजार के बीच समूह बना लेते । जैसे-जैसे अंग्रेज-फौजें आती गई, विद्रोही जंगलों की तरफ भागते गये। जब अंग्रेज-फौजों ने भीड़ पर काबु पा लिया. तो विद्रोही पहाड़ों तथा पेड़ों पर चढ़ गये। आवाजें करने लगे तथा नगाड़े बजाने लगे, ताकि और अधिक लोगों को जमा किया जा सके। वे अंग्रेजी फौजों पर चट्टानों के पीछे छुपकर तीर। चलाते । किन्तु वे अंग्रेजी फौजों को रोक नहीं पाये। अन्ततः उनका नेता झाडा सिरहा शायद ।


    मार डाला गया और इसके साथ राजधानी पर विद्रोहियों का कब्जा समाप्त हो गया तथा विद्रोह को कुचल दिया गया ।

    विद्रोहियों की जगदलपुर में पराभव के कारण मुरिया- आदिवासियों ने शहर छोड़ दिया । झाडा सिराहा का अन्त क्या हआ? यह आज भी अनिश्चित है। शायद उसकी मौत। अंग्रेज फौजों द्वारा हुई। अनेक विद्रोही नेताओं का भाग्य भी अनिश्चित है तथा उनके नाम। इतिहास से लुप्त हो गये हैं। यह सम्भव है कि झाड़ा का इन्द्रावती घाटी में वध कर दिया। गया हो। साथ ही यह भी सम्भव है कि अन्य नेताओं ने आत्मसमर्पण कर दिया हो। इस । सम्बन्ध में सम्मिलित ब्रिटिश सेना के सैन्य संचालक मैकजार्ज का कथन इस प्रकार है । "ब्रिटिश सरकार की तात्कालिक कार्यवाही ने परिस्थिति को बहत अधिक बिगडने से बचा।लिया, अन्यथा बहुत ही बुरी स्थिति का सामना करना पड़ता (मैकजार्ज, तदेव, पैरा 12-16)”।

    मुरिया-विद्रोहियों की मर्यादा तथा संयम-शक्ति का परिचय


    विद्रोही आदिवासियों के खिलाफ सैन्य संचालन करने वाले मैकजार्ज ने युद्ध के


    दरम्यान मुरियाजनों के द्वारा दर्शायी गयी मर्यादा तथा संयम की भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा।
    अपने उक्त कथन के समर्थन में उसने कतिपय साक्ष्य भी प्रस्तुत किया है। उन्हीं के अनुसार - “समूचे विद्रोह के दौरान आदिवासियों ने बहुत अधिक मर्यादा तथा संयम का प्रदर्शन किया था। यदि ऐसा न होता तो एक घोर हिंसात्मक तथा दीर्घगामी आदिवासी विद्रोह निश्चित था। विद्रोही केवल अपने पारम्परिक अस्त्र-शस्त्रों, धनुष, बाण तथा भालों से ही मुस्तैद नहीं थे, उनको आम जनता का भी पूरा समर्थन था (तदेव, पैरा 28)।” मैकजार्ज को इसमें कोई संदेह नहीं था कि जैपुर तथा सिंरोचा के सैन्यदल के आने से पूर्व ही ये कुद्ध आदिवासी चाहते तो अपने क्रोध के "टार्गेट” सभी
    व्यक्तियों का सामूहिक वध कर सकते थे, किन्तु इन्होंने ऐसा नहीं किया। मैकजार्ज पुनः लिखते हैं . "विद्रोह के दरम्यान विद्रोहियों ने राजा के खजाने को हस्तगत कर लिया था। ऐसी स्थिति में राजा के सैन्यदल ने आदिवासियों पर धुआँधार गोलियाँ चलायी। गोलीबारी के दौरान ही विद्रोहियों के मुखिया ने खजाने के रुपयों की तत्काल गिनती की। उसने खजाने के रुपयों को अपनी सुरक्षा में रखा और गोलीबारी के खत्म होते ही खजाने के रुपयों को सही सलामत राजा के पास वापस लौटा दिया, जिससे कि कोई व्यक्ति विद्रोहियों को लुटेरा न कह सके - (फारेन पोलिटिकल इण्टरनल, नेशनल आर्काइव्स आफ इंडिया, अगस्त
    1876,प्रोसीडिंग क्रमांक 170, पैरा 39)।

    , विद्रोहियों के संयत व्यवहार का दूसरा उदाहरण भी मैकजार्ज ने प्रस्तुत किया है- "जगदलपुर-जेल की सुरक्षा उस समय राजा के बीस सिपाही कर रहे थे। महल से थोड़ी दूर पर ही ऊँचे टीले पर जेल था। जेल की दीवालें मिट्टी की थीं तथा छप्पर घासफूस की। विद्रोही बहुत आसानी से जेल की दीवालें तोड़ सकते थे व छप्पर फाड़ सकते थे और उन बीस सिपाहियों पर सरलता से काबू पा सकते थे। आक्रमण करके अपने बंदी साथियों को
    मुक्त करा सकते थे। किन्तु विद्रोहियों ने अपने आपको संयत रखा और उन्होंने ऐसा नहीं
    किया (तदेव)।"मैकजार्ज ने इस प्रकार की मर्यादा तथा संयम के अनेक उदाहरणों की सूचना ब्रिटिश-सरकार को दी थी मुरिया-विद्रोहियों का ‘एथॉस' महाभारत के वीर-योद्धाओं के समान था, जब कि उनका सामना कलियुगी राक्षसों से हो रहा था। यही कारण है कि नैतिक कारणों से वे जीता।
    हुआ युद्ध हार गए।

    ब्रिटिश सरकार की आतंकवादी नीतियों का कुचक्र




    प्रारम्भ में कछ सीमित क्षेत्र में विद्रोह से जुड़े हुए व्यक्तियों को पकड़ने का आदेश
    मैकजार्ज ने दिया था। गोपीनाथ कपड़दार, आदित्य प्रसाद पेशकार और लोकनाथ ठाकुर तथा अन्य हजारों मुरिया विद्रोहियों को गिरफ्तार किया गया तथा उन्हें सिंरोचा ले जाया गया। वहाँ सभी पर मुकदमें चले। लोकनाथ ठाकर और आदित्य प्रसाद पेशकार पर विद्रोहियों का साथ देने का आरोप लगाया गया। गोपीनाथ कपड़दार पर स्थिति को संभाल न पाने का आरोप लगाया गया। राजा भैरमदेव अन्य व्यक्तियों से इतने चिंतित नहीं थे। वे केवल
    गोपीनाथ कपड़दार की रिहाई चाहते थे। राजा ने गोपीनाथ को रिहा करने हेतु कमिश्नर को 15 मई को एक पत्र भी लिखा था। चीफ कमिश्नर इस प्रस्ताव से सहमत नहीं था (जे.एन.नील एस्ववायर का पत्र राजा भैरमदेव के नाम, 12 जून, अप्रकाशित)। पत्र में राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। पत्र के अनुसार - "चीफ कमिश्नर ने 15 मई 1876 का राजा का वह पत्र आश्चर्य के साथ पढ़ा, जिसमें यह कहा गया था कि उसके बिना कामकाज ठीक से नहीं हो पा रहा है। गोपीनाथ की गिरफ्तारी दंगों की रोकथाम हेतु आवश्यक है तथा उसकी रिहाई की माँग अनुचित है। गोपीनाथ को बस्तर वापस नहीं आने दिया जायेगा। वह सरकार के लिए शांति-स्थापना में बाधक है।" गोपीनाथ सिंरोचा में रहा तथा 1878 ई में उसकी मृत्यु हुई मुरिया-विद्रोह को दबाने के लिए मैकजार्ज ने जिस कपट जाल का प्रयोग किया था. वह ब्रिटिश-नीति का ही एक अंग थी, Tumesh chiram   जिसके अनुसार मैकजार्ज ने आदिवासी और गैर

    आदिवासी की चाल से विद्रोहियों में विभाजन पैदा कर दिया था। मैकजार्ज को आदिवासियों । की पीड़ा और सचाई में कोई संदेह नहीं था (तदेव, पैरा 16, 17, 19, 20. 21, 22), किन्तु । इसका दोषी वह ब्रिटिश सरकार को मानने के बजाय बस्तर की गैर आदिवासी जनता को मानता था। ऐसी स्थिति में 'फूट डालो और राज करो' नीति के आधार पर आदिवासी विद्रोहियों के खिलाफ कोई दण्डात्मक कारवाही नहीं की गयी।

    ब्रिटिश सरकार ने राजा से लेकर उसके छोटे कर्मचारी तक को इस विद्रोह के लिए जिम्मेदार करार दिया था। गोपीनाथ कपड़दार तथा आदितप्रसाद को देशनिकाला मिला था। विद्रोह में लोकनाथ राजगुरु की सुस्पष्ट भागीदारी के कारण उनका भी देशनिकाला हो गया ।। मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर ने राजा भैरमदेव की कटु निन्दा की थी तथा उनके प्रशासन के प्रति घोर असंतोष व्यक्त किया था। अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाही बरतने के लिए उन्हें वार्निग दी गयी थी और उनसे यह कहा गया कि भविष्य में यह ध्यान रखे कि जब सरकार पहले से अधिक कोई कठोर आर्थिक उपाय करती है, तो उससे आदिवासी जनता को कोई
    पीड़ा न पहुँचे (तदेव, क्रमांक 172, पैरा 35)।

    "ब्रिटिश-सरकार इस बात पर विशेष चिन्तित थी कि राज्य के प्रभावशाली। अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है और उन्होंने राजा की कमजोरियों का फायदा उठाया है।" एक आदेश से “सारे कायस्थ-कर्मचारियों को बस्तर से बाहर कर दिया। गया, क्योंकि आदिवासियों ने इन मुंशियों को अपना प्रथम शत्रु माना था (मैकजार्ज)।" ।

    मुरिया-दरबार का सूत्रपात


    मैकजार्ज एक चालाक ब्रिटिश-अधिकारी था। बस्तर में पहली बार आदिवासी तथा गैर आदिवासी के कार्ड को उसी ने खेला था। 8 मार्च 1876 को जगदलपुर में पहली बार एक मुरिया-दरबार की व्यवस्था की गयी,
    जहाँ सिंरोचा के डिपुटी कमिश्नर मैकजार्ज ने राजा, उनके अधिकारी तथा मुरिया-विद्रोहियों को सम्बोधित किया तथा सभी ने उसे सुना। मैकजार्ज ने आदिवासियों की यातनाओं को कम करने का वायदा किया। विद्रोहियों ने मैकजार्ज को भरोसा दिलाया कि राजा भैरमदेव से उन्हें कोई शिकायत नहीं है। बस्तर के अन्य राजाओं के समान भैरमदेव को भी बस्तर के आदिवासी ईश्वर का अवतार मानते थे (चीशोल्म, जनवरी 1886, अप्रैल 1886, सितम्बर 1886, नेशनल आर्काइव्स, अप्रकाशित)। इसीलिए उसे विद्रोह का मुखिया मानते हुए भी निकालने का साहस न कर पाए, अन्यथा बस्तर उनके नियंत्रण से बाहर होता। मैकजार्ज ने
    आदिवासियों को इस बात के लिए राजी किया कि भविष्य में जब कोई शिकायत हो तो कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय उससे अपनी शिकायतें दर्ज कराएँ। मैकजार्ज ने राजा तथा उनकी आदिवासी प्रजा के बीच में पुन: मेलमिलाप करवाया और राजा से कहा कि वह आदिवासियों की शिकायतों को दूर करे । उसने भी बस्तर के प्रशासन की कमजोरियों को दूर करने का संकल्प लिया। 1876 से उक्त मुरिया-दरबार की बस्तर में परम्परा रही है।

    निष्कर्ष


    हमारी दृष्टि में मुरिया-विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो कारणों से
    महत्वपूर्ण है-

    (क) विद्रोही युद्ध-कौशल के साथ मैदान में उतरे, तथा ।
    (ख) उन्होंने शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की।
    जिस तरीके से विद्रोह को कुचल दिया गया, उससे आदिवासियों के मन में गहरी पीड़ा समा गयी तथा इसने अंग्रेजों के खिलाफ ईंधन का काम किया। बस्तर के इतिहास में। उक्त विद्रोह एक गौरवपूर्ण घटना है। इस विद्रोह ने 1910 के महान् भुमकाल को प्रेरणा दी।।

    _मुरिया-विद्रोह को आधुनिक रंग देना इतिहास के साथ खिलवाड़ करना होगा। विद्रोहियों ने जिन तरीकों को अपनाया, वे मर्यादित तथा संयमित थे। उनके कार्यकलाप स्थानीय महत्व के थे। उस समय आदिवासियों में जागरूकता का विकास हो रहा था। उनके धनुष-बाण तथा भालों में बंदूकों की सी तेजी थी। सभी दृष्टिकोणों से यह एक असमान युद्ध था, जिसमें सामंतवादी शक्तियों ने आधुनिक हथियारों तथा युद्ध-कौशलों का इस्तेमाल किया तथा विद्रोहियों ने आदिम शस्त्रों का प्रयोग किया। ऐसे युद्ध में आदिम समूहों का हारना लगभग तय होता है।1876 ई. के मुरिया-विद्रोह की ऐतिहासिकता तथा स्वरूप की विशद विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हमने 1876 ई. के मरिया-विद्रोह को भारतीय स्वाधीनता-संग्राम का एक अविभाज्य हिस्सा भी माना है एवं यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि तत्कालीन मुरिया-आदिवासी समुदाय राष्ट्र की धड़कनों से पूर्णतः परिचित


    था तथा वह अपनी जमीन से हमेशा जूडा रहा।

    1876 का मुरिया-विद्रोह 1853 से शनैः शनैः विकसित घटनाओं एवं दुर्घटनाओं का परिणाम था। 1853 में कम्पनी-सरकार द्वारा बस्तर में प्रवेश के साथ आदिवासियों के शोषण का कुचक्र प्रारम्भ हुआ। 1861 ई. की पटेली-व्यवस्था या रैय्यतवारी-व्यवस्था, 1864 की जमींदारी-व्यवस्था, 1868 से साल-वनों के शोषण की कथा, अंग्रेजों की कच्चे माल-विषयक नीतियाँ तथा हस्तकौशल एवं हस्तशिल्प अन्तत: 1876 में मुरिया-विद्रोह के कारण बने। राजा तथा मंत्री भी जब अंग्रेजों की हाथ की कठपुतली बन गए, तब


    आदिवासियों के धैर्य का बांध टूटना ही था।
    1876 के विद्रोह के वीर सैनिक मुरिया वास्तव में जगदलपुर-क्षेत्र के राजमुरिया।
    थे। इनका झोरिया मुरिया या घोटुल मुरिया से कोई सम्बन्ध नहीं है। राजमुरिया जगदलपुर के विकसित मैदानों में निवास करते थे तथा पश्चिम में नागाटोका से जैपुर तथा सीतापुर से लगभग तीस-चालीस मील दूर उत्तरी इन्द्रावती नदी तक इनकी सीमा रेखा थी।

    1876 ई. के मुरिया-विद्रोह के अनेकानेक कारण थे। ब्रिटिश शासन द्वारा किए गए विभिन्न भू-राजस्व-विषयक प्रयोगों की वजह से आदिवासियों में अभूतपूर्व असंतोष उत्पन्न हुआ। अंग्रेज-सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप भी


    मुरियाओं की संवेदनाओं को झकझोरने वाला था। गोपीनाथ का तानाशाही रवैया भी मुरिया विद्रोह का कारण बना। अंग्रेजों की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति भी
    1876 के मुरिया-विद्रोह के लिए उत्तरदायी थी। इस प्रकार, संक्षेप में 1876 के मुरिया-विद्रोह के दो महत्वपूर्ण कारण रहे प्रथम शासकीय व्यवस्था तथा ठेकेदारों द्वारा शोषण तथा द्वितीय-शासन तथा जमींदारों द्वारा शोषण।

    सन्दर्भ:-

    बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी )

    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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