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आदिवासी और अनुसूचित जनजाति में अंतर(आर्यन चिराम) // anusuchit janjati or adiwasi me antar(aaryan chiram)

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    आदिवासी हल्बा




    आदिवासी:-

    सामान्यत: "आदिवासी" (ऐबोरिजिनल) शब्द का प्रयोग किसी भौगोलिक क्षेत्र के उन निवासियों के लिए किया जाता है जिनका उस भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना सम्बन्ध रहा हो। परन्तु संसार के विभिन्न भूभागों में जहाँ अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग क्षेत्रों से आकर लोग बसे हों उस विशिष्ट भाग के प्राचीनतम अथवा प्राचीन निवासियों के लिए भी इस शब्द का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, "इंडियन" अमरीका के आदिवासी कहे जाते हैं और प्राचीन साहित्य में दस्यु, निषाद आदि के रूप में जिन विभिन्न प्रजातियों समूहों का उल्लेख किया गया है Tumesh chiram   उनके वंशज समसामयिक भारत में आदिवासी माने जाते हैं।आदिवासी के समानार्थी शब्दों में ऐबोरिजिनल, इंडिजिनस, देशज, मूल निवासी, जनजाति, वनवासी, जंगली, गिरिजन, बर्बर आदि प्रचलित हैं। इनमें से हर एक शब्द के पीछे सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ हैं।अधिकांश आदिवासी संस्कृति के प्राथमिक धरातल पर जीवनयापन करते हैं। वे सामन्यत: क्षेत्रीय समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से


    स्वयंपूर्ण रहती है। इन संस्कृतियों में ऐतिहासिक जिज्ञासा का अभाव रहता है तथा ऊपर की थोड़ी ही पीढ़ियों का यथार्थ इतिहास क्रमश: किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में घुल मिल जाता है। सीमित परिधि तथा लघु जनसंख्या के कारण इन संस्कृतियों के रूप में स्थिरता रहती है, किसी एक काल में होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तन अपने प्रभाव एवं व्यापकता में अपेक्षाकृत सीमित होते हैं। परंपरा केंद्रित आदिवासी संस्कृतियाँ इसी कारण अपने अनेक पक्षों में रूढ़िवादी सी दीख पड़ती हैं। उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीपसमूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप देखे जा सकते हैं।भारत के आदिवासी मुख्य लेख :आदिवासी (भारतीय)भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 700 से अधिक है। सन् 1951 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 थी जो 2001 की जनगणना के अनुसार 8,43,26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है। प्रजातीय दृष्टि से इन समूहों में नीग्रिटो, प्रोटो-आस्ट्रेलायड और मंगोलायड तत्व मुख्यत: पाए जाते हैं, यद्यपि कतिपय नृतत्ववेत्ताओं ने नीग्रिटो तत्व के संबंधमें शंकाएँ उपस्थित की हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से उन्हें आस्ट्रो-एशियाई, द्रविड़ और तिब्बती-चीनी-परिवारों की भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में विभाजित किया जा सकता है। भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी भारत का विभाजन चार प्रमुख क्षेत्रों में किया जा सकता है : उत्तरपूर्वीय क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र औरदक्षिणी क्षेत्र। उत्तर पूर्वीय क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय अंचल के अतिरिक्त तिस्ता उपत्यका और ब्रह्मपुत्र की यमुना-पद्या-शाखा के पूर्वी भाग का पहाड़ी प्रदेश आता है। इस भाग के आदिवासी समूहों में गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, डाफला, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो, खासी, नाग, कुकी, लुशाई, चकमा आदि उल्लेखनीय हैं। मध्यक्षेत्र का विस्तार उत्तर-प्रदेश के मिर्जापुर जिले के दक्षिणी ओर राजमहल पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से लेकर दक्षिण की गोदावरी नदी तक है। संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भूमिज, खड़िया,बिरहोर,जुआंग, खोंड, सवरा,गोंड,भील, बैगा,कोरकू, कमार आदि इस भाग के प्रमुख आदिवासी हैं।पश्चिमी क्षेत्र में भील,मीणा, ठाकूर, कटकरी आदि आदिवासीनिवास करते हैं। मध्य पश्चिम राजस्थान से होकर दक्षिण में सह्याद्रि तक का पश्चिमी प्रदेश इस क्षेत्र में आता है। गोदावरी के दक्षिण से कन्याकुमारी तक दक्षिणी क्षेत्र का विस्तार है। इस भाग में जो आदिवासी समूह रहते हैं उनमें चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगोंड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर आदि उल्लेखनीय


    हैं।नृतत्ववेत्ताओं ने इन समूहों में से अनेक का विशद शारीरिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर भौतिक संस्कृति तथा जीवनयापन के साधन सामाजिक संगठन, धर्म, बाह्य संस्कृति, प्रभाव आदि की दृष्टि से आदिवासी भारत के विभिन्न वर्गीकरण करने के अनेक वैज्ञानिक प्रयत्न किए गए हैं। इस परिचयात्मक रूपरेखा में इन सब प्रयत्नों का उल्लेख तक संभव नहीं है। आदिवासी संस्कृतियों की जटिल विभिन्नताओं का वर्णन करनेके लिए भी यहाँ पर्याप्त स्थान नहीं है।यद्यपि प्राचीन काल में आदिवासियों ने भारतीय परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया था और उनके कतिपय रीतिरिवाज और विश्वास आज भी थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में आधुनिक हिंदू समाज में देखे जा सकते हैं, तथापि यह निश्चित है Tumesh chiram   कि वे बहुत पहले ही भारतीय समाज और संस्कृति के विकास की प्रमुख धारा से पृथक् हो गए थे। आदिवासी समूह हिंदू समाज से न केवल अनेक महत्वपूर्ण पक्षों में भिन्न है, वरन् उनके इन समूहों में भी कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमश: कम हो रही है।आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है। मनोवैज्ञानिक धरातल पर उनमें से अनेक में प्रबल "जनजाति-भावना" (ट्राइबल फीलिंग) है। सामाजिक-सांस्कृतिक-धरातल पर उनकी संस्कृतियों के गठन में केंद्रीय महत्व है। असम के नागा आदिवासियों की नरमुंडप्राप्ति प्रथा बस्तर के मुरियों की घोटुल संस्था,टोडा समूह में बहुपतित्व, कोया समूह में गोबलि की प्रथा आदि का उन समूहों की संस्कृति में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। परंतु ये संस्थाएँ और प्रथाएँ भारतीय समाज की प्रमुख प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं हैं।


    आदिवासियों की संकलन-

    आखेटक-अर्थव्यवस्था तथा उससे कुछ अधिक विकसित अस्थिर और स्थिर कृषि की अर्थव्यवस्थाएँ अभी भी परंपरास्वीकृत प्रणाली द्वारा लाई जाती हैं। परंपरा का प्रभाव उनपर नए आर्थिक मूल्यों के प्रभाव की अपेक्षा अधिक है। धर्म के क्षेत्र में जीववाद, जीविवाद, पितृपूजा आदि हिंदू धर्म के समीप लाकर भी उन्हें भिन्न रखते हैं।आज के आदिवासी भारत में पर-संस्कृति-प्रभावों की दृष्टि से आदिवासियों के चार प्रमुख वर्ग दीख पड़ते हैं। प्रथम वर्ग में पर-संस्कृति-प्रभावहीन समूह हैं, दूसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा अल्पप्रभावित समूह, तीसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा प्रभावित, किंतु स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्ववाले समूह और चौथे वर्ग में ऐसे आदिवासी समूह आते हैं जिन्होंने पर-


    संस्कृतियों का स्वीकरण इस मात्रा में कर लिया है कि अब वे केवल नाम मात्र के लिए आदिवासी रह गए हैं।
    आमतौर पर आदिवासियों को भारत मे जनजातीय लोगों के रूप मे जाना जाता है। आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगालमेअल्पसंख्यकहै जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं,

    अनुसूचित जनजाति:-

    भारत सरकार ने इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में "अनुसूचित जनजातियों" के रूप में मान्यता दी है। अक्सर इन्हें अनुसूचित जातियों के साथ एक ही श्रेणी " अनुसूचित जातियों और जनजातियों " मे रखा जाता है जो कुछ सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के लिए पात्र है।
    जनजाति(tribe) वहसामाजिक समुदायहै जो राज्य के विकास के पूर्व अस्तित्व में था या जो अब भी राज्य के बाहर हैं। जनजाति वास्तव में भारत के आदिवासियों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक वैधानिक पद है। भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातिपद का प्रयोग हुआ है और इनके लिए विशेष प्रावधान लागू किये गए हैं। परिचय भारत में कबीली जनसंख्या के विषय में स्पष्ट और सुलझे विचारों का अभाव रहा है। 'कबीला' शब्द की परिभाषा के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। फलस्वरूप जनगणना


    रिपोर्टों में भी जहाँ कुछ कबीलों को जतियों की सूची में रखा गया है, बहुत सी नीची जातियों को भी कबीलों में सम्मिलित कर लिया गया है। इस संबंध में एक जनगणना से दूसरी जनगणना में भी विषमता पाई जाती है। एक जनगणना के अनुसार समस्त भारतीय कबीलों का धर्म 'आत्मावाद' की श्रेणी में आता है किंतु उसकी अगली जनगणना में ही कबीली धर्म की सर्वथा पृथक श्रेणी बना दी गई है। वास्तव में मूलप्रश्न यह है कि 'कबीला' कहते किसे हैं? इस शब्द की अब तक दी गई परिभाषओं से अधिक न्यायसंगत संभवत: नूतन किंतु गुणात्मक परिभाषा है। इस नवीन परिभाषा के अनुसारकबीला निश्चित भौगोलिक सीमा के भीतर वास करनेवाला ऐसा अंतर्विवाही सामाजिक समूह है जिसमें कार्यों का विशिष्टीकरण नहीं पाया जाता।समान भाषा या बोली द्वारा संगठित और कबील अधिकारियों द्वारा प्रशासित यह समूह अन्य कबीलों और जातियों से सामाजिक दूरी मानता है किंतु जातिव्यवस्था की भाँति सामाजिक द्वेष जैसी भावना से अछूता है। कबीले को अपनी परंपराएँ, विश्वास एवं रीतियाँ होती हैं और प्रजातीय तथा भागौलिक संग्रथन से उद्भूत सजातीयता की भावना कबीले के सदस्यों में बाह्य प्रभावों से प्रतिरक्षा को जन्म देती है। कबीला अनुसूचित हो सकता है और नहीं भी। कबीले में पर-संस्कृति-धारण की प्रक्रिया या तो पूर्णरूपेण संपन्न हो चुकी होती है या आंशिक रूप में ही।भारतीय जनजातियाँ भारत की कुल जनगणना मे आदिवासी८.६१% है,[1]। प्रजातीय आधार पर भारतीय कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी में मंगोलीय मूल के नागा, कूकी, गारो तथा असमी कबीले या अल्मोड़ा जिले के भोटिया आदि कबीले आते हैं। दूसरी श्रेणी के अंतर्गत मुंडा, संथाल, कोरवा आदि पुरा-


    ऑस्ट्रेलीय कबीले और तीसरी श्रेणीमें विशुद्ध आर्य मूल के निचले हिमालयवासी खस कबीले या हिंद-आर्य-रक्त की प्रधानता लिए किंतु मिश्रित प्रकार केभील आदि कबीले रखे जा सकते हैं। भाषाशास्त्रीय दृष्टि सेभारतीय कबीलों का वर्गीकरण तीन पृथक भाषापरिवार के समूहों में किया जा सकता है। ये समूह क्रमश: मुंडा, तिब्बती-बर्मी और


    द्रविड़ भाषापरिवारों के हैं। कुछ कबीले अपनी मूल बोली त्यागकर हिंदी बोलने लगे हैं। कुछ मुंडा कबीले इस श्रेणी में आते हैं। मूल रूप से मुंडा भाषा परिवार की बोली बोलने वाले गुजरात के भीलों ने भी अपने अधिवासानुसार गुजराती या मराठी अपना ली है। निश्चित भौगोलिक सीमाओं में बसे इन कबीलों के अतिरिक्त नट, भाँटू, साँसी, करवाल और कंजर आदि ऐसे खानाबदोश कबीले हैं जो हाल तक अपराधोपजीवी थे किंतु जिन्हें कठोर नियंत्रण और कठिन नियमों से मुक्त कर दिया गया है। सभी श्रेणियों के इन कबीलों की कुल जनसंख्या लगभग तीन करोड़ है किंतु अनेक कबीलों के जातिनाम और जातिगत व्यवसाय अपना लिए हैं। इसीलिए हाल की जनगणना ने इनकी संख्या लगभग दो करोड़ ठहराई है। पुनर्वास की समस्या को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक पदानुसार कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :(1) सांस्कृतिक दृष्टि से ग्राम्य व नगर समूहों से दूर कबीले, अर्थात्‌ वे जो प्राय: संपर्क विहीन हैं,(2) नगर संस्कृति से प्रभावित वे कबीले


    जिनमें संपर्कों के फलस्वरूप समस्याओं का बीजारोपण हुआ है और(3) ग्राम्य तथा नगर समूहों के संपर्क में आए वे कबीले जिनमें ऐसी समस्याएँ या तो उठी ही नहीं, अथवा सफल पर-संस्कृति-धरण (अकल्चरेशन) के कारण अब नहीं रहीं। सांस्कृतिक संपर्कों के प्रसंग में भारतीय कबीलों को अनुकूलक (अडैप्टिव) और सात्मीकारक (ऐसीमिलेटेड), इन दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। अनुकूलक कबीले तीन प्रकार के हो सकते हैं-सहभोजी, समजीवी और पर-संस्कृति-धारक। सहभोजिता का अर्थ पड़ोसी समूहों के साथ समान आर्थिक कार्यों में भाग लेना है। समजीविता शब्द का प्रयोग कबीलों की आर्थिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता केअर्थ में किया गया है। पर-संस्कृति' धरण का तात्पर्य सांस्कृतिक लक्षणों की एकतरफा


    स्वीकृति से है, अर्थात्‌ पर-संस्कृति-धारक कबीले वे हैं जो अपने सभ्य पड़ोसी समूहों के रीति रिवाज ग्रहण करते हैं। इस वर्गीकरण में उन कबीलों की गणना नहीं हुई जो बाह्य संस्कृतियों के संपर्क से अछूते छूट गए हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि भारत में


    सांस्कृतिक संपर्कों का 'शून्य बिंदु' (ज़ीरो प्वाइंट) है ही नहीं। दूसरे शब्दों में, सभी कबीले अपने से अधिक उन्नत संस्कृतियों के संपर्क में आए हैं और परिणामस्वरूप या तो समस्याग्रसित हैं अथवा संपर्क स्थिति से समायोजन स्थापित कर अपेक्षाकृत संतोषप्रद जीवन व्यतीत कर रहे हैं।अधिकांश भारतीय कबीलों का निवास वनों में है और वे वन्य प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर करते हैं। कोचीन के कदार, त्रावणकोर के मलायांतरम्‌, मद्रास के पलियान और वायनाद के पनियन ऐसे ही कबीले हैं। कुछ कबीलों की अर्थव्यवस्था खाद्य पदार्थों की संचयन और पिछड़ी कृषि के बीच की है। इनकबीलों में प्रमुख मध्य प्रदेश के कमार और इसी राज्य में माँडला क्षेत्र के वैगा तथा दक्षिण में बिसन


    पहाड़ियों के रेड्डी हैं। उपर्युक्त दोनों श्रेणियों के कबीलों पर शासन की वन संबंधी नीतियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। भारतीय कबीलों की तीसरी आर्थिक श्रेणी में देश की अधिकांश कबीली जनसंख्या को रखा जा सकता है। यह श्रेणी उन कबीलियों की है जिनके जीवकोपार्जन का मुख्य साधन कृषि हैकिंतु जिन्होंने वनों की निकटता के कारण संचयन व्यवसाय को दूसरे मुख्य धंधों के रूप में अपना लिया है। उत्तर-पूर्वी एवं मध्य भारत के प्राय: सभी कबीले इस श्रेणी में आते हैं।कमार दम्पत्ति खेत से लौटते हुए ब्रिटिश शासन में जनजाति-व्यवस्थाब्रिटिश सरकार ने कबीली जनसंख्या के प्रति निर्हस्तक्षेप की नीति अपनाकर उसे अपने भाग्य पर छोड़ दिया था। इसके विपरीत वर्तमान शासन की नीति सक्रिय हस्तक्षेप की है। भारत सरकार कबीलों के प्रति उपादेय और गतिमान नीति अपनाने के लिए वचनबद्ध है। किंतु यह समझ लेना आवश्यक है कि कबीलों का स्तर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न हो जाता है और कुशल


    नीतिनिर्धारण के पूर्व स्थानीय दशाओं का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है। विगत भूलें भविष्य की पथप्रदर्शक होती हैं। अब तक शासन की ओर से कबीली पुनर्वास जैसे विशाल कार्य के दार्शनिक आधार का स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है और यह तब तक संभव नहीं जब तक भारतीय कबीलों के विषय में समुचित जानकारी प्राप्त नहीं हो जाती। कबीली कार्यक्रमों के परंपरागत संस्कृत के संरक्षण और सुचारु एवं संगठित रूप से परिवर्तनों के बीजारोपण पर समान रूप से बल दिया जा रहता है। कबीली जनता में नवोदित सामाजिक सामाजिक चेतना और सरकारी


    प्रयत्नों द्वारा लाभान्वित होने की आकांक्षा भारतीय कबीली समस्याओं के प्रसंग में दो नए दिशा संकेत हैं। कबीलों को उनकी वर्तमान पिछड़ी दशा से उबारकर उन्हें ग्राम्य संस्कृतियों के अनुरूप बनाने का कार्य अत्यंत सतर्कता पूर्वक संपन्न किया जाना चाहिए। यदि प्रगति की योजना इस प्रकार की गई तो भावी भारतीय संस्कृति में जीवनयापन के केवल दो प्रारूप होंगे-ग्राम्य और नागरिक, एवं समाज वैज्ञानिकों का दायित्व होगा कि वे इन दो प्रारूपों के बीच की खाई को दृढ़ पुलों द्वारा पाटने का प्रयत्न करें। ब्रिटिश शासन ने भी समय-समय पर आदिवासी जनसंख्या की ओर ध्यान दिया था। कभी-कभी सरकार के पास


    हिंसात्मक विद्रोही की की सूचना पहुँचती थी। ऐसे अधिकांश विद्रोहों का मूल प्राय: तीन कारणों में होता था :(1) कबीली भूमि से कबीलियों का निष्कासन,(2) कबीली प्राकृतिक साधनों का बाहरी लोगों द्वारा उपयोग और(3) साहूकारों और विदेशी खिलौनों और आभूषणों के विक्रेताओं द्वारा शोषण। शासन की ओर से इन कठिनाइयों को दूर करने की समुचित व्यवस्था नहीं थी और यदि कभी कबीलियों के कष्ट की सुनवाई होती भी थी तो वह किन्हीं उदार और सहानुभूतिपूर्ण शासकों की व्यक्तिगत रुचि के फलस्वरूप। ईसाई


    मिशनरियों को अपने कार्यकलापों में शासन का पूर्ण सहयोग प्राप्त होता था और शासन की ओर से उन्हें अनेक अधिकार भी मिले हुए थे। इस प्रकार कबीली समस्या से सरकार चिंतामुक्त थी और मिशनरी मनमाने हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण कर रहे थे। किंतु जब पहाड़िया लोगों ने हिंदू जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह का नारा लगाया तो ब्रिटिश सरकार ने शांति स्थापना के लिए अपनी सेना भेजी। विद्रोही नेताओं को सनदें देकर प्रतिहिंसा की ज्वाला शांत की गई। शांति स्थापना के हित में पहाड़िया क्षेत्र के चारों ओर अवकाश प्राप्त और सामर्थ्यहीन सैनिकों को बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया। कालांतर से व्यवहार और दंडविधियाँ भी कबीली नेताओं के अधिकार क्षेत्र में आ गईं। न्याय और अनुशासन में सुधार हुआ और शासन ने कबीले को विशेष व्यवहार के योग्य समझा। फलस्वरूप सन्‌ 1782 में राजमहल पहाड़ियाँ साधारण न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से निकाल ली गईं। सन्‌ 1796 में पहाड़ियाँ क्षेत्र का नया नामकरण 'दमानी-को' हुआ और इसके प्रशासन के लिए नई न्यायविधि स्वीकृत हुई। यह संपूर्ण क्षेत्र एक समहर्ता के


    प्रशासनाधिकार में आ जिसके शासन में भारत के अन्य भागों में प्रचलित विधि से कोई संबंध नहीं था। इसी समय छोटा नागपुर और संथाल परगना में भी असंतोष की आग सुलग रही थी। जमींदारों ने कई बार शासन से सशस्त्र हस्तक्षेप की माँग की थी। सन्‌ 1886 में विख्यात संथाल विद्रोह भड़क उठा। संथाल परगना को एक पृथक जिला बना दिया और सन्‌ 1855 के 38वें विनिमय के अनुसार विनियम के अनुसार यह 'अविनियमित' क्षेत्र घोषित कर दिया गया। फ़ोर्ट विलियम, फ़ोर्ट सेंट जार्ज और बंबई की प्रबंधकारिणी परिषदों के तत्वाधान में अनेक नए अधिनियम पारित हुए। सन्‌ 1861 के इंडिया काउंसिल ऐक्ट के अनुसार स्थानीय प्राधिकारों द्वारा बनाए गए 'अविनियमित' संबंधी नियमों को


    मान्यता दे दी गई। सन्‌ 1870 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा सपरिषद् महाशासक को ऐसे क्षेत्रों के लिए नियम बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ जहाँ ब्रिटिश भारत के अन्य भागों मेंप्रचलित व्यवहार तथा दंड प्रक्रिया सीमित रूप में लागू होती थी। सन्‌ 1874 में भारतीय विधान मंडल में स्वीकृत 14वें जिला अनुसूचित अधिनियम द्वारा स्थानीय शासन को अधिनियम में निर्दिष्ट क्षेत्रों में विधि लागू करने के नए अधिकार प्राप्त हुए। स्थानीय शासन को अधिकार मिला कि वह उन कानूनों का स्पष्टीकरण करे जो ब्रिटिश भारत के अन्य भागों की भाँति इन क्षेत्रों में लागू नहीं होते थे। यदि आवश्यकता पड़ने पर संशोधित अथवा सीमित रूप में ब्रिटिश भारत के अन्य भागों में प्रचलित कोई कानून इन क्षेत्रों में लागू किया तो उसकी अधिसूचना केंद्र को देना अनिवार्य था। किंतु इस विशिष्ट शासन व्यवस्था ने भी कबीली


    कठिनाइयों को हल नहीं किया। पहाड़ी कबीलों में भू-स्वामित्व-हरण रोकने के निमित्त मद्रास सरकार ने सन्‌ 1917 में एक कानून बनाकर कबीलियों को उपलब्ध उधार पर ब्याज की दर निश्चित करने का प्रयत्न किया। सन्‌ 1876 में ही संथाल परगना में व्यक्तिगत रूप से अथवा अदालतों के आदेश द्वारा भूमि का विक्रय और हस्तांतरण अवैध घोषित कर दिया गया था। मोंटफ़ोर्ड समिति ने 1919 के अधिनियम की 52वीं धारा में कबीलों के प्रति शासन की स्थिति को स्वीकार कर लिया। इस धारा के अनुसार पिछड़े क्षेत्रों का दो भागों में विभाजन किया गया-*.(1) पूर्णत: अपवर्तिज क्षेत्र और*.(2) अंशत: अपविर्जत क्षेत्र।सन्‌ 1935 के रक्षात्मक उपायों द्वारा कबीली जनसंख्या में सुधार की चेष्टा की गई। नवीन भारतीय संविधान में कबीलों के पति शासन के रक्षणात्मक


    उत्तरदायित्व पर और अधिक जोर दिया गया है। उनकी स्थिति में सुधार के लिए नए उपाय ढूँढ़े गए हैं और उनके उत्थान की दिशा में शासन अभूतपूर्व रूप से क्रियाशील है। इन क्षेत्रों में शिक्षा, सामुदायिक विकास, सामाजिक कल्याण तथा पारिवारिक स्वच्छता आदि के लिए समुचित प्रबंध हो रहे हैं। कबीलों के प्रति विशेष व्यवहार की नीति के अतिरिक्त शासन ने राजकीय सेवाओं में भी कबीलियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित कर दिए हैं। इस कार्य के लिए अनुसूचित कबीलों एवं जातियों का विभाग बनाया गया है जिसकी अध्यक्षता एक आयुक्त करता है। यह विभाग उन समस्याओं से जूझ रहा है जो कबीलियों को त्रस्त किए हुए हैं। कबीली पुनर्वास के इन प्रयत्नों की असफलता के विषय में इतना शीघ्र कुछ भी कहना संभव नहीं। किंतु इसमें संदेह नहीं कि यह प्रयत्न कबीलोंकी वर्तमान दशा में सुधार और उन्हें समझने की इच्छा से प्रेरित हुए हैं। संवैधानिक स्थिति भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कई प्रावधान हैं। मुख्यतः इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- सुरक्षा तथा विकास। अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा संबंधी


    प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4), 19(5), 23, 29, 46, 164, 330, 332, 334, 335 व 338, 339(1), 371(क) (ख) व (ग), पांचवी सूची व छठी सूची में निहित हैं। अनुसूचित जनजातियों के विकास से संबंधित प्रावधान मुख्य रूप से अनुच्छेद 275(1) प्रथम उपबंध तथा339 (2) में निहित हैं।इस समय भारत में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 700 से ऊपर है।

    किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के आधार हैं-*

    .आदिम लक्षण
    *.विशिष्ट संस्कृति
    **.भौगोलिक पृथक्करण
    *.समाज के एक बडे भाग से संपर्क में संकोच
    **.पिछडापन।

    सार बात

    सभी अनुसूचित,जनजाति आदिवासी हो सकते है परंतु सभी आदिवासी अनुसूचित जनजाति नही हो सकती क्योंकि



    अनुच्छेद 342 अनुसूचित जनजातियां राष्ट्रपति, राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में, या केवल राज्य के संबंध में सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा वहां के राज्यपाल के परामर्श के बाद, संविधान के प्रयोजनों हेतु, जनजाति या जनजाति समुदाय या इनके कुछ भाग या समूह, जो राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जनजाति समझे जाए निर्दिष्ट कर सकते हैं। जैसा भी मामला हो सकता है।संसद कानून द्वारा धारा (1) किसी भी जनजाति या जनजाति समुदाय या इनके कुछ भाग या समूह, को उक्त धारा के तहत


    अधिसूचना जारी करके निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित या निकाल सकती है। किंतु इसमें बाद में किसी अधिसूचना द्वाराइसमें परिवर्तन नहीं किया जाएगा।इस प्रकार, राष्ट्रपति के अधिसूचित आदेशानुसार विशेष राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में, संबंधित राज्य सरकारों से सलाह के उपरांत, अनुसूचित

    जनजातियों का पहला निर्देशन है। इन आदेशों को केवल संसद द्वारा कानून ही संशोधित किया जा सकता है। उपर्युक्त अनुच्छेद राज्यवार/संघ राज्य क्षेत्रानुसार ही अनुसूचित जनजातियों की सूची प्रदान करता है पूरे भारत के आधार पर नहीं।






    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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