वीर शिरोमणि गैंदसिंह की जीवनी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आजादी की लड़ाई में इस देवभूमि भारत माता के अनेक क्रांतिकारी अमर शहीदों की महत्वपूर्ण भूमिका किसी न किसी रूप में रही है ।वीर कुंवर सिंह ,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ,भगत सिंह ,सुखदेव ,राजगुरु चंद्रशेखर आजाद जैसे श्रेष्ठ क्रांतिकारियों को छोड़ कर अन्य के विषय में आज की युवा पीढी बहुत कम जानती है ।अंग्रेजी फिरंगियों से सशस्त्र संघर्ष करने वाले इन्हीं क्रांतिकारियों में एक नाम है
छत्तीसगढ़ के वीर योद्धा गेंदसिंह का जिन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी
गैदसिंह के जन्म स्थल बम्हनी (नारायणपुर) नारायनकोट नामक स्थान पर हुआ,नारायन पाटन के चट्टान में आज भी चिन्ह मौजूद है। कहा जाता है कि गेंदसिंह का जन्मभूमि अर्थात् चट्टान से हुई है। माना जाता है पर यह एक अविश्वसनीय बाते है, इनके माता पिता का नाम अभी तक अप्राप्त है,कहा जाता है की जब गेंदसिंग जी बचपन में एक दल बनाया था जिसके मुख्या का किरदार गेंदसिंग को माना जाता है तथा वहा के रहने वाले उन्हें बाबु कहकर संबोधित करते थे कालांतर में वही शब्द भाऊ हो गया और भाऊ होने के पीछे एक और कथन यह है की वंहा के लोग उन्हें अपने बड़े भाई के रूप में मानते थे इसलिए भी उनके नाम के पीछे भाऊ लगाया जाता है और एक संका यह भी जताया जाता है की उनको
(लाल कालीन्द्रसिंह तथा दि ब्रेट के अनुसार परलकोट के जमींदार की उपाधि भूमिया राजा की थी।) इस लिए भी भूमिया राजा कलांतर में भाऊ हो गया हो ? जब गैंदसिंह विवाह योग्य हुए तो ग्रामवासी देहारी परिवार के घर से उनका विवाह कराए। विवाह के पश्चात वे कोंगालीगढ़ में रहने लगे। कुछ वर्ष गुजारने के बाद वे आलरगढ़ में बस गए। आलरगढ़ उन्हें रास नहीं आया तब वे परलकोट में आकर बस गए। उनके पांच पुत्र थे जिनके बारे में आगे विस्तृत चर्चा किया जाएगा गेंदसिंह के संघर्ष के कारण और लक्ष्य गेंदसिंह पराक्रमी ,बुद्धिमान, चतुर और न्यायप्रिय व्यक्ति थे। वे अपने क्षेत्र की प्रजा को सदैव खुश व सम्पन्न देखना चाहते थे । उनका किसी भी प्रकार से कैसा भी शोषण नहीं हो इसके लिए वे हर समय प्रयत्नशील रहते थे। परन्तु उनकी इस कार्यशैली से फिरंगी अंग्रेजों के कर्मचारीयो के आंख में खटकने लगे व उन्हें दबाने के प्रयास किये जाने लगे,, चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी के पैर भारत मे 1757 के पहले पड़ चुके थे और धीरे धीरे पूरे देश पर उसका शासन बढ़ता गया। छत्तीसगढ़ में उनके पैर पड़े सन 1818 में, जब सन 1817 में सीताबर्डी के युद्ध मे मराठा भोंसले पराजित हो गए, तब नागपुर के भोंसले शासन तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संधि हुई, जिसके अनुसार छत्तीसगढ़ जिसमे बस्तर भी शामिल था, की शासन व्यवस्था ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दी गई।
(लाल कालीन्द्रसिंह तथा दि ब्रेट के अनुसार परलकोट के जमींदार की उपाधि भूमिया राजा की थी।) इस लिए भी भूमिया राजा कलांतर में भाऊ हो गया हो ? जब गैंदसिंह विवाह योग्य हुए तो ग्रामवासी देहारी परिवार के घर से उनका विवाह कराए। विवाह के पश्चात वे कोंगालीगढ़ में रहने लगे। कुछ वर्ष गुजारने के बाद वे आलरगढ़ में बस गए। आलरगढ़ उन्हें रास नहीं आया तब वे परलकोट में आकर बस गए। उनके पांच पुत्र थे जिनके बारे में आगे विस्तृत चर्चा किया जाएगा गेंदसिंह के संघर्ष के कारण और लक्ष्य गेंदसिंह पराक्रमी ,बुद्धिमान, चतुर और न्यायप्रिय व्यक्ति थे। वे अपने क्षेत्र की प्रजा को सदैव खुश व सम्पन्न देखना चाहते थे । उनका किसी भी प्रकार से कैसा भी शोषण नहीं हो इसके लिए वे हर समय प्रयत्नशील रहते थे। परन्तु उनकी इस कार्यशैली से फिरंगी अंग्रेजों के कर्मचारीयो के आंख में खटकने लगे व उन्हें दबाने के प्रयास किये जाने लगे,, चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी के पैर भारत मे 1757 के पहले पड़ चुके थे और धीरे धीरे पूरे देश पर उसका शासन बढ़ता गया। छत्तीसगढ़ में उनके पैर पड़े सन 1818 में, जब सन 1817 में सीताबर्डी के युद्ध मे मराठा भोंसले पराजित हो गए, तब नागपुर के भोंसले शासन तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संधि हुई, जिसके अनुसार छत्तीसगढ़ जिसमे बस्तर भी शामिल था, की शासन व्यवस्था ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दी गई।
नागपुर के भोंसले शासन को अंग्रेज़, सैनिक सहायता प्रदान करते थे, उसी का खर्च वसूलने मराठाओं ने कंपनी को छत्तीसगढ़ प्रदेश बारह वर्ष के लिये उपहार में दे दिया। मराठा शासन के राज कर्मचारी तो छत्तीसगढ़ में पहले से ही थे अब उनके साथ इस क्षेत्र को लूटने अंग्रेज़ भी आ चुके थे। शोषण और दमन का दौर ज़ोर पकड़ चुका था। सेना, पुलिस और नौकरशाहों के झुंड का खर्च भी जनता से वसूला जा रहा था। जनता पर करों का बोझ बढ़ रहा था, और स्थिति असहनीय हो चुकी थी।
वहीं वनवासियों में विद्रोह की आग तो पहले ही सुलग रही थी अंग्रेज़ो ने उसे औऱ हवा देने का काम किया, जिसका परिणाम अंग्रेज़ो ने भुगता, सन 1824 में परलकोट विद्रोह के रूप में जिसका नेतृत्व किया जमींदार गैंदसिंह ने। परलकोट ज़मीदारी से अंदर 165 गांव थे, व परलकोट ज़मीदारी का मुख्यालय था। और यंहा का जमीदार गेंद सिंह था जो अंग्रेजो के शासन के विरुद्ध तथा अपने प्रजा के हित हेतु कार्य करने वाला और शासन के मनसा विरुद्ध व्यवहार के कारण उन्हें जमीदारी से हटाने कई प्रकार का षड्यंत्र खेला जाने लगा उन्ही षड्यंत्र में से एक षड्यंत्र इस प्रकार है
उनके महल में-जहां पहले से ताला लगा था वहां और एक ताला लगाकर और पत्र लटकाकर भोले-भाले आदिवासी अबूझमाड़ियों को यह कहने लगे कि गैंदसिंह मारा गया, अब उनका महल हमारे कब्जे में है एवं लूटपाट कल्लेआम कर लोगों में दहशत फैलाने लगे। जब राजा गैंदसिह नवंबर 1824 में महेल वापस आए तो ताला व पत्र देखकर हैरान रह गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। तुरंत उन्होंने अपने सैनिकों की सभा-बलाई और अंग्रेजों,मराठों की लूटखसोट और शोषण से बचाने 24 दिसंबर 1824 को एक-विशाल जनसभा आयोजित किया गया।- परलकोट के अबूझमाड़ियों के आह्वान पर- बस्तर के सभी अबूझमाड़िया 24 दिसंबर 1824 को परलकोट में एकत्रित हुए, जहां मराठों व अंग्रेजों की कुरता, शोषण को कूचलकर शोषण मुक्त करने रणनीति बनाई गई। इस क्रांति की सूचना धावड़ा वृक्ष की टहनी व ढोल-नगाड़ों द्वारा पूरे परलकोट रियासत में- संदेश भेजा गया। धावड़ा वृक्ष के टहनी के पत्तो - के सुखने के पहले एकत्रित होने लगे। गैंदसिंह- दूरदर्शी थे, उन्हें इस बात की भनक लग गई थी, गैन्द्सिंग ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युद्ध की बिगुल फुक दिया था और उनके नेर्तित्व में सभी आदिवासी
ग्राम ,गुफाओं और पर्वत श्रृंखलाओं से निकल कर वनवासी वीर अपने पारम्परिक अस्त्रों के साथ नियत जगह परलकोट में इक्कठे हुए। परलकोट कोतरी नदी के तट पर बसा है महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के पास का एक वनवासी गांव है, यहां तीन नदियों का संगम है। वीर गैदसिंह ने सबको अपने -अपने क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया और कुछ ही थोड़े से समय में सम्पूर्ण बस्तर क्षेत्र आग की तरह सुलग उठा। घोटुल में इनकी सभा होती जहां विद्रोह की रणनीतिया बनाई जाती थी। अबुझमाड़िया पांच-पांच सौ की संख्या में गुट बना कर निकलते थे। कुछ का नेतृत्व महिलाएं करती कुछ का पुरूष। और गैंद सिंह योजनाबद्ध तरीके से उनका नेतृत्व करते रहे। पर्वतों और घने जंगलों के सहारे ही एक साल तक अंग्रेज़ो को छकाया गया, जिसे अंग्रेज़ समझ नही पाए। अंग्रेज़ी बंदूकों के सामने आदिवासियों का जंगल एक मजबूत हथियार बना।
हज़ारो की संख्या में वनवासी धनुष बाण और भालों से अंग्रेजी अधिकारियों और मराठा कर्मचारियों पर घात लगा कर आक्रमण करने लगे। पुरुषों के साथ महिलाओं की भी इस विद्रोह में भागीदार थी, शत्रु जहां दिखता उसको वहीं मौत के घाट उतार दिया जाता। 1818 से 1825 तक कंपनी की तरफ से अधीक्षक पद पर मेजर एग्न्यू था। विद्रोह इतना बड़ा हो चुका था कि छत्तीसगढ़ के ब्रिटिश अधीक्षक एग्न्यू को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। वनवासियों के साहस एवं पराक्रम से घबरा कर अंग्रेज अधिकारी एगन्यू ने सभी अधिकारियों की एक मीटिंग बुलाई और उस बैठक में यह चुनौती रखी कि अंग्रेज सरकार के नाक में दम करने वाले वनवासियों को कौन कुचल सकता है ? बहुत देर तक बैठक में सन्नाटा छाया रहा । गेंदसिंह और उनके वीर वनवासी साथियों से भिड़ने का अर्थ मौत को निमंत्रण देना था। अतः उपस्थित सभी अधिकारी सिर नीचे कर बैठे रहे।
अन्ततः एग्न्यू ने चंद्रपुर से बड़ी सेना बुलवाई तथा चाँदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेबे ने इस आंदोलन को दबाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और एक बड़ी सेना लेकर परलकोट की तरफ प्रस्थान किया।
वनवासियों और अंग्रेज सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ । एक ओर आग उगलती सैनिकों की बंदूकें थीं ,तो दूसरी ओर अपने धनुषों से तीरों की वर्षा करते वीर वनवासी । मधुमक्खी भी राजा के सैनिक थे। अंग्रेज सेना जैसे की परलकोट पहुंचने लगे मधुमक्खी एवं
अबूझमाड़िया सेना के सामने टिक नहीं पाए। मेजर पी.वस एग्न्यु के होश उड़ गए। एन्यु को और सेना की आवश्यकता हुई, लेकिन वनवासी वीर अंग्रेजों के आधुनिक शास्त्रों के सामने कितनी देर तक टिक सकते थे? फिर भी वनवासियों ने साहस ओर हिम्मत का परिचय देते हुए लगातार 16 दिन तक अंग्रेजों से संघर्ष जारी रखा। आखिरकार 10 जनवरी 1825 को वनवासियों का नेतृत्व करने वाले उनके नेता परलकोट के जमींदार गेंदसिंह को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया । वीर गेंदसिंह की गिरफ्तारी से कैप्टन पेबे की खुशी का ठिकाना न रहा ,पर वह इतना भयवीत था कि उसने गेंदसिंह को अंग्रेज अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करने या न्यायालय में ले जाने का जोखिम उठाना भी उचित नहीं समझा गैंद सिंह गिरफ्तार हो गए, और उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन थम गया। गिरफ्तारी के 10 दिन बाद ही 20 जनवरी 1825 को उन्हें उनके महल के सामने फांसी दे दी गई। गैंदसिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बस्तर के ही नहीं वरन संपूर्ण छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद थे। इस विद्रोह को हम एक तरह से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता
उनके महल में-जहां पहले से ताला लगा था वहां और एक ताला लगाकर और पत्र लटकाकर भोले-भाले आदिवासी अबूझमाड़ियों को यह कहने लगे कि गैंदसिंह मारा गया, अब उनका महल हमारे कब्जे में है एवं लूटपाट कल्लेआम कर लोगों में दहशत फैलाने लगे। जब राजा गैंदसिह नवंबर 1824 में महेल वापस आए तो ताला व पत्र देखकर हैरान रह गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। तुरंत उन्होंने अपने सैनिकों की सभा-बलाई और अंग्रेजों,मराठों की लूटखसोट और शोषण से बचाने 24 दिसंबर 1824 को एक-विशाल जनसभा आयोजित किया गया।- परलकोट के अबूझमाड़ियों के आह्वान पर- बस्तर के सभी अबूझमाड़िया 24 दिसंबर 1824 को परलकोट में एकत्रित हुए, जहां मराठों व अंग्रेजों की कुरता, शोषण को कूचलकर शोषण मुक्त करने रणनीति बनाई गई। इस क्रांति की सूचना धावड़ा वृक्ष की टहनी व ढोल-नगाड़ों द्वारा पूरे परलकोट रियासत में- संदेश भेजा गया। धावड़ा वृक्ष के टहनी के पत्तो - के सुखने के पहले एकत्रित होने लगे। गैंदसिंह- दूरदर्शी थे, उन्हें इस बात की भनक लग गई थी, गैन्द्सिंग ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युद्ध की बिगुल फुक दिया था और उनके नेर्तित्व में सभी आदिवासी
ग्राम ,गुफाओं और पर्वत श्रृंखलाओं से निकल कर वनवासी वीर अपने पारम्परिक अस्त्रों के साथ नियत जगह परलकोट में इक्कठे हुए। परलकोट कोतरी नदी के तट पर बसा है महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के पास का एक वनवासी गांव है, यहां तीन नदियों का संगम है। वीर गैदसिंह ने सबको अपने -अपने क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया और कुछ ही थोड़े से समय में सम्पूर्ण बस्तर क्षेत्र आग की तरह सुलग उठा। घोटुल में इनकी सभा होती जहां विद्रोह की रणनीतिया बनाई जाती थी। अबुझमाड़िया पांच-पांच सौ की संख्या में गुट बना कर निकलते थे। कुछ का नेतृत्व महिलाएं करती कुछ का पुरूष। और गैंद सिंह योजनाबद्ध तरीके से उनका नेतृत्व करते रहे। पर्वतों और घने जंगलों के सहारे ही एक साल तक अंग्रेज़ो को छकाया गया, जिसे अंग्रेज़ समझ नही पाए। अंग्रेज़ी बंदूकों के सामने आदिवासियों का जंगल एक मजबूत हथियार बना।
अन्ततः एग्न्यू ने चंद्रपुर से बड़ी सेना बुलवाई तथा चाँदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेबे ने इस आंदोलन को दबाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और एक बड़ी सेना लेकर परलकोट की तरफ प्रस्थान किया।
वनवासियों और अंग्रेज सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ । एक ओर आग उगलती सैनिकों की बंदूकें थीं ,तो दूसरी ओर अपने धनुषों से तीरों की वर्षा करते वीर वनवासी । मधुमक्खी भी राजा के सैनिक थे। अंग्रेज सेना जैसे की परलकोट पहुंचने लगे मधुमक्खी एवं
अबूझमाड़िया सेना के सामने टिक नहीं पाए। मेजर पी.वस एग्न्यु के होश उड़ गए। एन्यु को और सेना की आवश्यकता हुई, लेकिन वनवासी वीर अंग्रेजों के आधुनिक शास्त्रों के सामने कितनी देर तक टिक सकते थे? फिर भी वनवासियों ने साहस ओर हिम्मत का परिचय देते हुए लगातार 16 दिन तक अंग्रेजों से संघर्ष जारी रखा। आखिरकार 10 जनवरी 1825 को वनवासियों का नेतृत्व करने वाले उनके नेता परलकोट के जमींदार गेंदसिंह को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया । वीर गेंदसिंह की गिरफ्तारी से कैप्टन पेबे की खुशी का ठिकाना न रहा ,पर वह इतना भयवीत था कि उसने गेंदसिंह को अंग्रेज अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करने या न्यायालय में ले जाने का जोखिम उठाना भी उचित नहीं समझा गैंद सिंह गिरफ्तार हो गए, और उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन थम गया। गिरफ्तारी के 10 दिन बाद ही 20 जनवरी 1825 को उन्हें उनके महल के सामने फांसी दे दी गई। गैंदसिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बस्तर के ही नहीं वरन संपूर्ण छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद थे। इस विद्रोह को हम एक तरह से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम का शंखनाद भी कह सकते हैं।
गैंदसिंह के पांच पुत्र में एक पुत्र मारा गया, चार पुत्र बच गए। उनके चारों पुत्र कुमुद साय, मुकुंद साय, राम साय, साम साय। अंग्रेजों से बचने के लिए अलग-अलग महाराष्ट्र कांकेर छोटे डोंगर व सितरम में रहने लगे। गैंदसिंह के बड़े बेटे कुमुदसाय के परिवार आज भी सितरम में निवासरत हैं। कुमुद साय के पुत्र टेटकु सिंह के दो पुत्र मंगल सिंह और सुधरसिंह थे। मंगल सिंह के दो पुत्र सुकरू ओर
सकरिया थे, सुकरू के कोई बच्चे नहीं थे, सकरिया के पांच पुत्र वर्तमान में सितरम में है जिनका नाम फरसुराम, निरसंकी, निर्धन, रतिराम व जोगेंद्र हैं। सुधरसिंह के दो-दो पुत्र
मेहत्तर एवं वासु के परिवार वर्तमान में सितरम में हैं। मेहतर के पुत्र परमेश्वर व रामसुराम हैं। वासु में पुत्र का नाम रमेश व समेश है। कहा जाता है की गैंदसिंह- दूरदर्शी थे, उन्हें इस बात की भनक लग गई थीकि अंग्रेज उनके धन-दौलत जवाहरात, सोने-चांदी हड़पना चाहते हैं। उन्होंने तमाम धन-दौलत को महल के पश्चिम दिशा में लगभग 20किमी दूर कुएं में पाट दिए और उनके मंत्री,
गैंदसिंह के पांच पुत्र में एक पुत्र मारा गया, चार पुत्र बच गए। उनके चारों पुत्र कुमुद साय, मुकुंद साय, राम साय, साम साय। अंग्रेजों से बचने के लिए अलग-अलग महाराष्ट्र कांकेर छोटे डोंगर व सितरम में रहने लगे। गैंदसिंह के बड़े बेटे कुमुदसाय के परिवार आज भी सितरम में निवासरत हैं। कुमुद साय के पुत्र टेटकु सिंह के दो पुत्र मंगल सिंह और सुधरसिंह थे। मंगल सिंह के दो पुत्र सुकरू ओर
सकरिया थे, सुकरू के कोई बच्चे नहीं थे, सकरिया के पांच पुत्र वर्तमान में सितरम में है जिनका नाम फरसुराम, निरसंकी, निर्धन, रतिराम व जोगेंद्र हैं। सुधरसिंह के दो-दो पुत्र
मेहत्तर एवं वासु के परिवार वर्तमान में सितरम में हैं। मेहतर के पुत्र परमेश्वर व रामसुराम हैं। वासु में पुत्र का नाम रमेश व समेश है। कहा जाता है की गैंदसिंह- दूरदर्शी थे, उन्हें इस बात की भनक लग गई थीकि अंग्रेज उनके धन-दौलत जवाहरात, सोने-चांदी हड़पना चाहते हैं। उन्होंने तमाम धन-दौलत को महल के पश्चिम दिशा में लगभग 20किमी दूर कुएं में पाट दिए और उनके मंत्री,
सिपाहियों के धन-दौलत भी उस कुएं में बंद कर दिए। उनका कहना था कि मेरे मरने के बाद मेरा धन-दौलत अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए ऐसा शहीद गेंदसिंह का सोच था जो मरते दम तक अपने प्रजा हित हेतु जिन्दा थे धन्य है वह वीर सिपाही जिन्होंने अपने भाइयो के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया
कुछ अन्य जानकारिया
वर्तमान में सितरम से दो फलोग दूरनदी तट पर गैंदसिंह के किला राजमहल काअवशेष खंडहर के रूप में मौजूद है। महल के पूर्व दिशा में राजा द्वारा निर्मित कराया गया तालाब, शस्त्रागार, किला में चढ़ने वाली सड़क का अवशेष है। वहीं किला से उतरते वक्त पूर्व दिशा की ओर कुछ मूर्तियां नागदेव कालीमाता, गणेश एवं अन्य मूर्तियां मौजूद है। महल के प्रवेश द्वार के ठीक सामने भीमादेव विराजमान है तथा उसके आसपास के पत्थरों में ओखाली स्पष्ट दिखाई देती है। महल के पश्चिम में गैदसिंह द्वारा स्थापित मां दंतेश्वरी की मंदिर में सोने की मूर्ति चोरी हो गई है और वर्तमान में संगमरमर से बना मां की मूर्ति विराजमान है। मंदिर के पास फूल
की एक विशाल वृक्ष है जिसमें पांच प्रकार की फूल खिलती है। एवं दो कमरों की थाना भवन की अवशेष है। महल के चारों दिशा में फलदार वृक्ष, आम की बगीचा, अमरूद,
ताड़ आदि के वृक्ष हैं। दंतेश्वरी माता मंदिर के पास ही बाबा माड़िया मोगराज विराजमान है। नदी तट पर शिव मंदिर है, वहीं राजा-रानी के खेत है, जिन्हें राजामुण्डा-रानीमुण्डा के नाम से जाना जाता है। राजा गैदसिंह अपने मंत्री सैनिकों, जनता के साथ बड़ी धूम-धाम से होली त्यौहार मनाते थे। होली का दहन के पश्चात उसी राख से रंग पंचमी तक रंग खेलते थे और विशाल मेला का आयोजन करते थे तब से आज भी यहां विशाल मेला का आयोजन किया जाता है।
परलकोट थाना 1886में परतापुर में स्थानांतरित हुआ। आज परलकोट कांकेर जिला के पखांजुर तहसील में विरान गांव के रूप में दर्ज है। वहां महल का खण्डहर का अवशेष व पुरातत्व महत्व की सामग्री विलुप्त अवस्था में है। बाद से पूर्व दिशा में लगभग 30 किमी दूर सितरम में नदी किनारे परलकोट में होली से रंगपंचमी तक आज भी विशाल मेला का आयोजन हो रहा है।
2 Comments
Vmencvertempni Jennifer Matthews https://wakelet.com/wake/rYpQesFNy4eaNfKZBkR0_
ReplyDeletepresmetcingwen
Nice information
Deleteअपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !