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बलि प्रथा का आरंभ कब क्यों और कैसे हुआ ? (आर्यन चिराम) bali pratha ka armbh kab kyo or kaise hua?(aaryan chiram)

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    बलि प्रथा का शूरुआत

     लगभग आज से हजारो वर्षो पहले हि हो चूका था आदिमानव जब एक समूह में रहकर शिकार करते थे वे जो भी जानवर का शिकार करते थे या उनको मिल जाता था उक्त सिकार को वे खाने से पहले अपने आस्थानुरूप अपने प्राकृतिक संकेतो में कुछ मात्रा अर्पित करते थे व खुशिया मानते थे की चलो आज खाने का प्रबंध हो गया करके और अपने हथियार जिनसे वे शिकार करते थे उस पर भी सिकार की गई जानवर की मांस खून थोड़ी मात्रा में अर्पित करते थे, उनके पास जो भी खाद्य सामग्री प्राप्त होता था उन्हें भी वे अपने प्राकृतिक अदृश्य शक्ति को अर्पित करते थे आदिवासियों में या पहले के आदिमानवो के मन में एक बात तो स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है की वे एक अदृश्य शक्ति के प्रति विश्वास रखते थे व उस शक्ति को वे परम शक्ति मानते थे या यु कहे की उन्हें यह लगता था


    की इस दुनिया से परे भी एक शक्ति होती है जिन पर किसी का बस नही चलता परन्तु उनके हिसाब से बहुत कुछ चीजे बदली जा सकती है और वहि बात बढ़ते बढ़ते आदिवासियों को अन्धविश्वासी कहलाने के लिए
    मजबूर कर दिए आज भी आदिवासियों को अंधविश्वासी और झाड फुक में विश्वास करने वाला माना जाता है वास्तव में इसे अन्धविश्वासी कहा जाए या अटूट आस्था कहा जाय यह सोचने वाली बात है, अदिमानवो की अपने प्राकृतिक शक्ति के प्रति आस्था इतनी अधिक बढ़ने लगी की जब वे सिकार के लिए जाते थे तो भी अपने उस प्राकृतिक शक्ति के पास प्रार्थना करके जाते थे और आने के पश्चात् भी वे अपने प्रक्रितक शक्ति के पास जाते थे वे मानते थे की वे ही हमे पालन करने वाला है और वे ही हमे समस्या से बचाने की शक्ति रखता है आदिमानवो की आस्था पूर्ण रूप से परिपक्व हो रही थी  चर्चा को आगे बढ़ाते है जैसे जैसे समय बीतता गया आदिमानवो का उस प्राकृतिक शक्ति के प्रति आस्था बढती गई, और उन्ही अदृश्य व अजेय शक्ति को वे संकेतो के माध्यम से दर्शाने लगे पेड़ पौधों को उस शक्ति के स्वरुप बनाकर पूजा किया जाने लगा फिर पत्थरो को उनका स्वरुप बनाकर पूजा किया जाने लगा फिर समय के साथ साथ वर्तमान मनुष्य में सोचने व भविष्य के लिए खाद्य सामग्री इकट्टा करने की सोच भी विकसित होने लगी और यह यूग था लौह यौगीन का प्रारम्भिक दौर इस यूग के प्ररम्भ से पहले मानव की मष्तिष्क कम विकशित था


    लौह युग में

     अधिक विकशित होने के साथ साथ सद्यन्त्रकारी भी होने लगा भविष्य के लिए खाद्य व अन्य सामग्री इकट्टा करना व अपने आने वाले पीढ़ी को अछे भविष्य देने के लिए लोग अब अधविश्वासी होने के क्षेत्र में अत्यधिक अग्रसर होने लगे पहले जंहा लोग सिकार मिलने पर अपने प्राकृतिक शक्ति को उस चीज का कुछ मात्रा अर्पित करते थे Tumesh chiram   परन्तु अब थोडा उलट होने लगा था उस प्राकृतिक अद्रश्य शक्ति से मांगने लगे थे जैसे की अगर आज हमे शिकार में हिरन मिल गया तो एक खरगोश या मुर्गी देंगे आदि ,,,,यही से आरंभ होता है असली बलि प्रथा लोग लालच में आकर या खुद की स्वार्थ सिद्धि के लिए वर मांगने लगे की अगर यह चीज मिला तो हम आपको यह चड़ाएंगे फीर मानलो एकात ख्वाहिस धोके से पूरी हो गई तो वे उसी के नाम से बलि देना शुरू कर दिए व अब धीरे धीरे लोगों में एक दुसरे से आगे बढ़ने की चाहत व बैर की भावना का विकास होने लगा व वे एक दुसरे से आगे बढ़ने के लिए भी बलि व टोने टोटका तंत्र विधा आदि करने लगे और केवल पशु बलि ही नही अपितु मानव बलि या और कई प्रकार का बलि बनने लगा इस यूग में अन्धविश्वास इसकदर लोगों को जकड लिया की एक दुसरे से आगे बदने के लिए लोग तरह तरह का अज्ञ अनुष्ठान और तंत्र विद्या का पाठ और पूजा करने लगे  और देखा जाए तो इसी वैदिक यूग में कई प्रकार के बलि का जन्म हुआ या यू कहे की असली मायने में बलि प्रथा का शुरुवात हुआ


    बलि प्रथा आरंभ होने के पीछे मुख्य रूप से स्वार्थ सिद्धि व लालच है लोग अपने स्वार्थ के लिए मूकबधिर पशु पक्षियों का बलि देना प्रारंभ कर दिए व इसी यूग में वर्ण व्यवस्था का भी आरंभ हुआ तो कई बलियां तो धार्मिक अनुष्ठान के रूप में किया गया कई बलिया तो अज्ञानता वस् किया गया और कई बलिया तो वर प्राप्त के लिए की गई लाखो लाख जीवो की हत्या इस बलि प्रथा के कारण हुई और
    फिर धीरे धीरे यह परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी हस्तांतरित होते गई और एक समय ऐसा मानसिकता बैठ गया लोगों के मन में की यह हमारे पुराने परम्परा है कई पीढ़ी से चली आ रही है अगर हम बलि नही देंगे तो कुछ न कुछ अनर्थ होगा इसी डर से आज भी लोग बलि प्रथा गुप्त रूप से निभा ही रहे है लोग शिक्षित होने के बावजूद आज भी बलि प्रथा के प्रति आशक्त जान पड़ते है
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    बलि प्रथा मानव समाज के लिए बहुत बड़ा कलंक है इस पर रोक लगाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए । बलि प्रथा को एक सामाजिक व्यवस्था बना दी गई है, जो परंपरागत रूप से चलती आ रही है ,निश्चित रूप से यह एक सामाजिक कुरीति ही है  ।इस पर रोक लगाने के लिए सबसे पहले जनजागरूकता फैलाने की आवश्यकता है
    कुछ जानकारिया कंहा कंहा बलि प्रथा होती थी उनकी जानकारी
    किसी धार्मिक अनुष्ठान के भाग (अनुष्ठान हत्या) के रूप में किसी मानव की हत्या करने को मानव बलि कहते हैं। इसके अनेक प्रकार पशुओं को धार्मिक रीतियों में काटा जाना (पशु बलि) तथा आम धार्मिक बलियों जैसे ही थे। इतिहास में विभिन्न संस्कृतियों में मानव बलि की प्रथा रही है। इसके शिकार व्यक्ति को रीति-रिवाजों के अनुसार ऐसे मारा जाता था जिससे कि देवता प्रसन्न अथवा संतुष्ट हों, उदाहरण के तौर पर मृत व्यक्ति की आत्मा को देवता को संतुष्ट करने के लिए भेंट किया जाता था अथवा राजा के अनुचरों की बलि दी जाती थी ताकि वे अगले जन्म में भी अपने स्वामी की सेवा करते रह सकें. कुछ जाति समाजों में काफी हद तक इससे मिलती जुलती प्रथाएं नरभक्षण तथा सिरों के शिकार के रूप में पाई जाती हैं। लौह युग तक धर्मों में सम्बंधित विकास के कारण (अक्षीय युग), पुरातन विश्व में मानव बलि का चलन कम हो गया था, इसे पूर्व-आधुनिक समय तक बर्बरतापूर्ण माना जाने लगा था (क्लासिकल एंटिक्विटी). ब्लड लाइबल रीत हत्या का एक झूठा प्रकार है।
    हालांकि जाहिरा तौर पर यह धर्म से जुड़ा नहीं हैप्राण दंड दिए जाने में भी बहुत सी रीतियां जुडी होती हैं तथा इसका मानव बलि से स्पष्ट रूप से भेद किया जाना कठिन होता है।


    ऐतिहासिक रूप से जला कर मारे जाने के दोनों पहलू हैं
    , मानव बलि (विकर मैन, टॉफेट) तथा मृत्यु दंड (ब्रेज़न बुल, टामरट्युनिका मोलेस्टा). मृत्यु दंड की आलोचना करने वाले मृत्यु दंड के सभी रूपों को मानव बलि के धर्मनिरपेक्ष प्रकार ही मानते हैं।[1] इसी तरह, गैरक़ानूनी ढंग से हत्या, सामूहिक हत्या तथा जातिसंहार को भी थियोडोर डब्ल्यू. अडोर्नो के अनुसार कभी-कभी मानव बलि ही समझा जाता है।[2]

    आधुनिक समय में,

    पशु बलि की प्रथा, जो किसी समय सर्वत्र थी, लगभग सभी प्रमुख धर्मों से गायब हो गयी है (अथवा इसे अनुष्ठान हत्या के रूप में किया जाता है), तथा मानव बलि अत्यधिक दुर्लभ हो गयी है। सभी धर्मों में इसकी भर्त्सना की जाती है; तथा वर्तमान धर्म-निरपेक्ष कानून इसे हत्या ही मानते हैं। ऐसे समाजों में, जो मानव बलि की निंदा करते हैं, इसे अनुष्ठान हत्या ही कहा जाता है।
    अनुष्ठान के प्रयोजन से की गयीं हत्याएं कभी-कभी ही देखने में आती है, जैसा कि 2000 के दशक में सहारा के निकट के अफ़्रीकी इलाकों की रिपोर्टों से स्पष्ट है (समूह-हत्याएं), परन्तु ये यूरोप में अप्रवासी अफ़्रीकी जन विसर्जन को अलग रखती हैं। Tumesh chiram  


    [3][4] भारत में सती प्रथा, जिसमें किसी विधवा को बलपूर्वक उसके पति की चिता में डाल दिया जाता है, 19वीं सदी तक प्रचलन में थी, परन्तु वर्तमान प्रथाओं में यह दुर्लभ हो गयी है।



    मानव बलि के विचार की जड़ें गहरे प्रागैतिहासिक काल में हैं
    ,[5] ये मानवीय व्यवहार की उत्पत्ति में हैं।


    पौराणिक रूप से यह पशु बलि से निकट का सम्बन्ध रखती है
    , अथवा मूलरूप से ये दोनों सामान ही हैं। वॉल्टर बरकार्ट का तर्क मानवीय धार्मिक व्यवहार को अपर पैलियोलिथिक युग (लगभग 50,000 वर्ष पूर्व) में व्यावहारिक आधुनिकता के प्रारंभ में शिकार की अवधारणा को पशु तथा मानव बलि के ज़रिये मौलिक पहचान दिलाने के प्रयास को दर्शाता है।
    मिथक बनाम रिवाज की प्रमुखता के विषय में काफी वाद-विवाद हो चुका है, तथा मानव बलि के मिथक का तात्पर्य आवश्यक रूप से वास्तविक ऐतिहासिक प्रथा के रूप में नहीं निकाला जाना चाहिए: मानव बलि को एक प्राचीन मिथक के पुनर्व्यवस्थापन के रूप में सोचा जा सकता है, या इसके विपरीत एक मिथक को मानव-बलि की प्राचीन प्रथा की स्मृति के रूप में लिया जा सकता है। एकेश्वरवादियों द्वारा मानव बलि की बुद्धिसंगत व्याख्या में किसी विशिष्ट अवसर पर ईश्वर द्वारा किये गए हितकारी हस्तक्षेप के लिए अर्पण किया जाना, किसी अशुभ घटना को रोक लेना, अथवा भौतिक विश्व के विषय में कोई प्रकटीकरण सम्मिलित हैं
    कई अलग अलग संस्कृतियों में विभिन्न अवसरों पर मानव बलि की प्रथा रही है।

    मानव बलि के पीछे के तर्क

     सामान्य रूप से धार्मिक बलिदान के जैसे ही हैं। मानव बलि का अभीष्ट उद्देश्य अच्छी किस्मत लाना और देवताओं को शांत करना होता है, उदाहरणस्वरुप एक मंदिर या पुल की तरह किसी भवन के समर्पण का सन्दर्भ. एक चीनी पौराणिक कथा है कि चीन की महान दीवार के नीचे हजारों लोग दफ़न हैं।


    प्राचीन जापान में,

    हीतोबशीरा ("मानवीय स्तम्भ") के विषय में किवदंतियां हैं, जिसमें किसी निर्माण के आधार में, अथवा इसके निकट प्रार्थना के रूप में किसी कुंवारी स्त्री को जीवित ही दफ़न कर दिया जाता था जिससे कि इमारत को किसी आपदा अथवा शत्रु-आक्रमण से सुरक्षित बनाया जा सके.[6] 1487 में टेनोक्टिटलान के महान पिरामिड के पुनर्निर्माण के लिए, एज्टेकों ने चार दिनों के अन्दर लगभग 80,400 बंदियों की बलि दे दी. रॉस हास्सिग, जो कि एज्टेक वॉरफेयर के लेखक हैं, के अनुसार समारोह में "10,000 से 80,400 के बीच मनुष्यों" की बलि दी गयी।[7]
    मानव बलि को युद्ध में देवताओं का अनुग्रह पाने के इरादे से भी किया जाता है। होमर की पौराणिक कथाओं मेंट्रोजन युद्ध में उसके पिता ऐगामेम्नन द्वारा इफ़ीजेनिया की बलि चढ़ा दी गयी थी। बाइबिल के अनुसार, यिप्तह ने संकल्प लेने के बाद अपनी पुत्री का बलिदान कर दिया था (जजेस 11).[8][9] मानव बलि के लिए एक अन्य प्रेरणा दफनाना है: अगले जन्म के कुछ मतों में, मृतक को अपनी अंत्येष्टि में पीड़ितों की मृत्यु से लाभ होता है। मंगोलों, स्काइथियनों, प्रारंभी मिस्र के लोगों तथा कई मेसोअमेरिकन नायक अपने साथ अपना घरेलू सामान, जिसमें उनके नौकर तथा रखैलें शामिल होते थे, अगली दुनिया के लिए ले जाते थे। इसे कभी कभी "सेवक बलि" कहा जाता है, क्योंकि इन नायकों के साथ इनके सेवक अपने स्वामियों के साथ ही बलिदान दे देते थे, जिससे कि वे अगले जन्मों में भी उनकी सेवा कर सकें.
    एक अन्य उद्देश्य शिकार के शरीर के अंगों से भविष्यवाणी करना होता है। स्ट्रैबो के अनुसार, सेल्ट लोग तलवार से किसी पीड़ित को मार कर उसकी मृत्यु की पीड़ा व ऐंठन से भविष्य जानने की कोशिश करते थे।[10]
    सिरों का शिकार अपने विरोधी की हत्या करने के बाद उसका सर काट कर समारोहों अथवा जादू के लिए अथवा सिर्फ प्रतिष्ठा हेतु लगाने की प्रथा थी। यह कई पूर्व-आधुनिक आदिवासी समाजों में पायी जाती थी।
    मानव बलि को किसी स्थिर समाज में किये जाने वाले संस्कार के रूप में अथवा सामजिक बन्धनों के सुचालक के रूप में (देखें धर्म का समाजशास्त्र), बलिदान करने वाले समाजों को जोड़ने वाला बंधन स्थापित करने के लिए, तथा मानव बलि तथा प्राणदंड को जोड़ने वाले के रूप में, ऐसे व्यक्तियों को हटाते हुए, जिनका सामाजिक स्थावित्व पर गलत प्रभाव पड़ सकता है (अपराधी, धर्म विरोधी, विदेशी गुलाम तथा युद्ध बंदी). लेकिन नागरिक धर्म से हटकर, मानव बलि "रक्त उन्माद" के आवेग के रूप के साथ ही समूह हत्याओं के रूप में परिणित हो सकती है, जिससे समाज का संतुलन खो सकता है। इसी प्रकार, ठगी पंथ के लोग जो कि भारत में व्याप्त थे


    , देवी काली के भक्त थे जो कि मृत्यु एवं विनाश की देवी हैं।[11][12] गिनीज़ बुक ऑफ रेकॉर्ड्स के अनुसार ठगी पंथ लगभग 2 मिलियन मृत्युओं के लिए जिम्मेदार था। यूरोपियन विच-हंट (चुड़ैलों का शिकार) के दौरान अथवा फ्रांसीसी क्रन्तिकारी आतंक के साम्राज्य के दौरान भी मृत्यु-दंड की बाढ़-सी आ गयी, तथा इससे भी यही समाजशास्त्र सम्बन्धी स्वरुप देखने को मिला (यह भी देखें नैतिक भय).
    कई संस्कृतियों में उनकी पौराणिक कथाओं में प्रागैतिहासिक मानव बलि के निशान देखने को मिलते हैं, लेकिन उनके ऐतिहासिक अभिलेखों की शुरुआत से पहले यह सब समाप्त हो चुका था। इब्राहीम तथा इसहाक की कथा (जेनेसिस 22)


    मानव बलि को समाप्त करने वाले इस मिथक का एक उदाहरण है। इसी तरह
    , वैदिक पुरुषमेध, शब्दशः "मानव बलि", भी अपने प्रारंभ से ही सिर्फ एक प्रतीकात्मक प्रथा थी। प्लाईनी दि एल्डर के अनुसारप्राचीन रोम में मानव बलि 97 ईपू में सीनेट की एक राजाज्ञा के द्वारा समाप्त कर दी गयी थी, हालांकि इस समय तक यह प्रथा वैसे ही दुर्लभ हो चुकी थी अतः यह राजाज्ञा सिर्फ सांकेतिक मात्र थी। समाप्त किये जाने के पश्चात् मानव बलि के स्थान पर या तो पशु बलि अथवा पुतलों की "सांकेतिक बलि" दी जाने लगी उदाहरण के रूप में प्राचीन रोम में अर्जेई की रस्म.
    क्षेत्रानुसार इतिहास
    प्राचीन निकट पूर्व
    प्राचीन मिस्र
    समाज,साहित्य,बलि प्रथा,आदिवासी,रीती रिवाज,प्राकृतिक,शक्ति,samaj,sahitya,bali pratha,adiwasi,ritirivaj,prakritik,shakti,आर्यन चिराम,हल्बा समाज,aaryan chiram,halba samaj,अबैडोज़ राजवंश के प्रारंभिक शासन काल के वर्षों में अनुचर बलि के प्रमाण मिलते हैं, जब किसी राजा की मृत्यु होने पर उसके सेवक साथ ही जाते थे, तथा संभवतः उच्च अधिकारी भी,


    जिससे कि वे अनंत काल तक उसकी सेवा कर सकें. प्राप्त कंकालों में किसी आघात का कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखता है
    , जिससे कि यह अनुमान लगाया जाता है कि अपने राजा के लिए प्राण त्यागना शायद एक स्वैच्छिक कार्य था, तथा शायद यह किसी नशे के अंतर्गत किया जाता था। लगभग 2800 ईसा पूर्व में ऐसी किसी परम्परा के प्रमाण मिलना समाप्त हो गए, हालांकि इसका स्थान प्राचीन राजशाही में सेवकों की प्रतिकृति को दफनाने ने ले लिया।[13][14]

    मेसोपोटामिया

    प्राचीन मेसोपोटामिया के शाही मकबरों में भी अनुचर बलिदान की प्रथा थी। दरबारी, पहरेदार, संगीतकार, नौकरानियां और साईस की मृत्यु हो जाती थी, अनुमान लगाया जाता था कि शायद उन्होंने विष ले लिया होता था।[15][16] पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ईराक में लगभग एक शताब्दी पूर्व प्राप्त उर के शाही कब्रिस्तान से प्राप्त खोपड़ियों के नवीन अध्ययन से इसके पहले किये जाने वाली मानव बलियों की तुलना में एक और अधिक भयानक विवेचना प्राप्त होती है। शाही अंत्येष्टि अनुष्ठान के भाग के रूप में महल के परिचारकों को विष देकर शांतिपूर्ण मृत्यु नहीं दी जाती थी। इसके बजाय, कोई नुकीला उपकरण, संभवतः एक बर्छी को उनके सिरों में घुसाया जाता था।[17]
    लेवांत
    बाइबल 


    से प्राप्त सन्दर्भ निकट पूर्व के रीति-रिवाजों के इतिहास में मानव बलि की जानकारी की ओर इंगित करते हैं। इजराइलियों के साथ युद्ध के दौरान मोआब के राजा द्वारा अपने प्रथम पुत्र तथा उत्तराधिकारी को जला कर बलि देने की कथा है (ओलाह
    , जैसा कि मंदिर की बलि को कहा जाता था) (2 राजा 3:27).[18]
    जेनेसिस 22 के साथ ही कुरान में भी इब्राहीम द्वारा इसाक को बांधे जाने की कहानी कही गयी है, हालांकि कुरान में उसके पुत्र का नाम नहीं दिया गया है तथा उसे इस्माइल माना गया है। इस कहानी के बाइबल संस्करण मेंईश्वर इब्राहीम का इम्तिहान लेते हुए उसे अपने पुत्र इसाक की भेंट, माउंट मोरिआह पर बलिदान के रूप में, चढ़ाने को कहते हैं। इस पाठ्य में कोई कारण नहीं दिया गया है। इब्राहीम बिना किसी तर्क के उनके आदेश का पालन करता है। यह कहानी एक देवदूत द्वारा इब्राहीम को आखिरी क्षणों में रोके जाने पर समाप्त होती है, जब वह इसाक के बलिदान को अनावश्यक बताते हुए उसे पास की झाड़ियों में फंसा हुआ एक भेड़ा देता है और उसकी बलि देने को कहता है। बाइबिल के कई विद्वानों का सुझाव है कि इस कहानी की उत्पत्ति ऐसे युग की याद दिलाती है जब मानव बलि बंद हो चुकी थी एवं उसका स्थान पशु बलि ने ले लिया था।[19][20]
    बाइबिल में मानव बलि का एक और उल्लेख जजेस 11 में यिप्तह की पुत्री के बलिदान के रूप में मिलता है। यिप्तह ईश्वर से यह प्रण करता है कि जब वह विजयी होकर वापस जायेगा तो जो भी सबसे पहले दरवाज़े पर उसका अभिवादन करेगा, वह उसका बलिदान करेगा. यह प्रण जजेस 11:31 में इस प्रकार वर्णित है "तो यह निश्चित है, कि जो भी मेरे घर के द्वार पर मुझसे मिलने आयेगा, जब मैं एम्मोन की संतानों से शांतिपूर्वक लौटूंगा, अवश्य ही ईश्वर का होगा, तथा मैं उसे अग्नि द्वारा समर्पित करूंगा. "


    जब वह लड़ाई वापस लौटा तो उसकी कुंवारी बेटी दौड़ती हुई उससे मिलने आई. रब्बी यहूदी परंपरा के टिप्पणीकारों के अनुसार यिप्तह की पुत्री की बलि नहीं दी गयी
    , परन्तु पूरी उम्र उसका विवाह नहीं किया गया तथा वह कुंवारी रही, उस प्रण की पूर्ति के रूप में जो उसने ईश्वर से किया था।[21]

    फ़ोनीशिया




    रोमन और ग्रीक स्रोतों के अनुसार फोनीशियन तथा
     कार्थाजीनियन अपने ईश्वर को नवजातों की बलि चढाते थे। आधुनिक समय में कार्थाजीनियन पुरातत्व के स्थानों से बहुत से नवजात बच्चों की हड्डियां प्राप्त हुई हैं, परन्तु बच्चों की बलि चढ़ाने का विषय विवादास्पद है।[22] पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा टॉफेट कहे जाने वाले बच्चों के एक कब्रिस्तान से लगभग

    20,000 कलश (मृतक की राख रखने का बर्तन) प्राप्त हुए थे।[23]
    प्लूटार्क (लगभग 46-120 ईसवीं के आसपास) ने ऐसी प्रथा का वर्णन किया है, साथ ही टेर्तुलियन, ओरोसियस, डियोडोरस सिक्युलस तथा फिलो में भी यह पायी जाती थी। लाइवी तथा पोलीबिआस में यह प्रथा नहीं थी। बाइबिल का दावा है कि बच्चों को टॉफेट ("भूनने का स्थान") नामक एक स्थान पर मोलोच देवता के लिए बलिदान किया जाता था। कार्थेजियंस के विषय में डियोडोरस सिक्युलस के वर्णन के अनुसार:[24]
    प्लूटार्क का दावा है कि बच्चे पहले से ही मर चुके होते थे, उनकी मृत्यु उनके माता-पिता के हाथों ही होती थी, जिनकी सहमति आवश्यक थी, साथ ही बच्चों की भी; टेर्टुलियन के अनुसार बच्चों की सहमति उनकी अल्पायु के विश्वास का परिणाम होती थी।[24]
    ऐसी कहानियों की विश्वसनीयता कुछ आधुनिक पुरातत्वविदों और इतिहासकारों द्वारा विवादित है।[25]
    यूरोप
    नियोलिथिक यूरोप
    नियोलिथिक से एनियोलिथिक यूरोप में मानव बलि के पुरातात्त्विक प्रमाण प्राप्त होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभिक इंडो-यूरोपियन धर्म में अनुचर बलि आम थी। उदाहरण के लिए, यमन सभ्यता में लुहांस्क बलि स्थल मानव बलि के प्रमाण प्रदर्शित करता है।

    ग्रीको-रोमन पुरातनता

    शास्त्रीय पौराणिक कथाओं में मानव बलि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एफिजेनिया के कुछ संस्करणों में ड्यूस एक्स मशीना की मुक्ति (जिसे अपने पिता ऐग्मेम्नान द्वारा बलिदान किया जा रहा था) तथा देवी आर्टेमिस द्वारा उसके स्थान पर एक हिरण का बलिदान ग्रीक लोगों में मानव बलि पर लगी रोक तथा अप्रतिष्ठा की अल्पविकसित स्मृति का प्रतीक हो सकता है, तथा इसके स्थान पर पशुओं को बलि चढ़ाने को बढ़ावा दिया जाने लगा था। कई विद्वानों द्वारा इसकी संभावित तुल्यता बाइबल में पिता इब्राहीम द्वारा इसाक की बलि के प्रयास से की गई है, इसे भी दैवीय हस्तक्षेप द्वारा आखिरी क्षणों में रोक दिया गया था (हालांकि प्रारंभ में इसे बढ़ावा दिया गया था).


    रोमनों में मानव बलि के विभिन्न स्वरुप थे; एट्रुस्कन से (अथवा अन्य स्रोतों के अनुसार सैबेलियनों से), उन्होंने ग्लैडियेटर युद्ध के मूल रूप को स्वीकार किया था जहां शिकार को एक परम्परात्मक युद्ध में मार दिया जाता था। शुरूआती गणतंत्र के दौरान अपराधियों को शपथ तोड़ने पर अथवा दूसरों को धोखा देने पर "ईश्वर को समर्पित" कर दिया जाता था (इसका अर्थ यह है कि उन्हें मानव बलि के रूप में मार दिया जाता था). रेक्स नेमोरेंसिस एक भगोड़ा गुलाम था जो कि अपने पूर्ववर्ती को मार कर नेमी में देवी डायना का पुजारी बन गया था। युद्ध के कैदियों को मेंस तथा डी इन्फेरी (अधोलोक के देवता) को चढ़ावे के रूप में जीवित ही दफना दिया जाता था। पुरातत्वविदों को इमारतों की नींव में दफन बलि पीड़ित प्राप्त हुए हैं। आमतौर पर, मृत रोमनों को दफ़नाने के स्थान पर उनका दाह संस्कार किया जाता था। Tumesh chiram   किसी विजयी नायक के विजयोल्लास के रूप में शत्रु नेताओं को परम्परात्मक रूप से मार्स, युद्ध के देवता, की मूर्ति के सामने गाड़ दिया जाता था। हैलीकार्नासस के डायनासियस[26] वेस्टल परम्परा में अर्जेई के बलिदान को इंगित करता है, जिसमें मूलरूप से बूढ़े लोगों की बलि दी जाती थी। प्लिनी दि एल्डर के अनुसार 97 ई.पू. में पब्लियस लिकिनियस क्रैसस तथा नेयस कोर्नेलीयस लेंटुलस के कोंसुल शासन के दौरान मानव बलि पर औपचारिक रूप से पाबन्दी लगा दी गयी थी, हालांकि इस समय तक यह वैसे ही इतनी दुर्लभ थी कि यह राजाज्ञा सांकेतिक मात्र ही थी।[27] अधिकांश अनुष्ठानों, जैसे टौरोबोलियम में या तो पशु बलि दी जाती थी अथवा ये सिर्फ सांकेतिक ही होते थे। रोमन जनरल अपनी विजय के लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए अपने से मिलती जुलती मूर्ति दफनाते थे। हालांकि अनुष्ठानों से प्रारंभ हुई गतिविधियां मानव बलि से मिलती जुलती होती थीं, उदाहरण के रूप में ग्लैडियेटर खेल तथा मारने के अन्य रूप, कई वर्षों तक जारी रहे तथा लोकप्रिय भी हो गए।
    केल्ट लोग
    रोमन सूत्रों के अनुसार, केल्ट ड्रुइड मानव बलि में अत्यधिक संलिप्त थे।[28] जूलियस सीजर के अनुसार, गुलाम तथा गॉल ऑफ रैंक के आश्रितों को अन्येष्टि क्रिया के दौरान अपने स्वामियों के शरीर के साथ ही जीवित जला दिया जाता था।[29] उन्होंने यह भी बताया है कि वे कैसे लकड़ी की खपच्चियों से ऐसी संरचनाएं बनाते थे जिन्हें जीवित मनुष्यों से भर कर जला दिया जाता था।[30] यह ज्ञात है कि इन बलिदानों की देख-रेख पुरोहित किया करते थे। कैसियस डियो के अनुसार बौडिका की सेना ने रोमन साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के समय रोमन बंदियों को सूली पर चढ़ा दिया, उन्होंने ऐसा आन्डेते के पवित्र बाग़ में ख़ुशी तथा बलिदान देने के लिए किया।[31] विभिन्न देवताओं को कथित रूप से विभिन्न प्रकार के बलिदान की आवश्यकता होती है। इसस के लिए बंदियों को सूली पर चढ़ाया जाता है, टेरेनिस इसके लिये उन्हें बलि चढ़ाया जाता है तथा ट्यूटेट्स के लिए उन्हें डुबा दिया जाता है। लिंडो मैन की तरह कुछ लोग ने शायद स्वेच्छा से मृत्यु को स्वीकार किया था।
    नियोलिथिक काल से रोमन युग तक संरचनाओं की नींव में प्राप्त मानव अवशेषों में दिखने वाली चोटों से तथा उनकी स्थिति से यह तर्क प्राप्त होता है कि शायद वे नींव में दी जाने वाली बलि के मामले हैं।[
    एल्वेसटेन, इंग्लैंड में प्राप्त कंकाल 150 लोगों के हैं तथा रोमन विजय के काल के हैं। पुरोहितों ने इन सभी व्यक्तियों को शायद एक ही कार्यक्रम में मारा था।[32]
    पुरातात्त्विक रिकार्डों में धार्मिक शिरच्छेदन के कई मामले दिखते हैं, उदाहरण के लिए गौरने-सर-ऐरोंड नामक फ़्रांसिसी लौह युग के अभयारण्य में 12 बिना सर के शव.[33]
    जर्मैनिक लोग
    जर्मैनिक लोगों के बीच मानव बलि सामान्य घटना नहीं थी, वे इसका सहारा तब लेते थे जब कि असाधारण परिस्थिति पैदा हो जाती थी, जैसे कि पर्यावरणीय आपदा (ख़राब फसल, अकाल, भुखमरी) अथवा सामाजिक आपदा (युद्ध), इन्हें राजा द्वारा अपनी भूमि पर समृद्धि तथा शांति (árs ok friðar) बनाये रखने में अक्षम होने से जोड़ कर देखा जाता था।[34] बाद में स्कैंडिनेवियाई परंपरा में मानव बलि का संस्थापन हो गया था, तथा इसे एक अधिक बड़े बलिदान के रूप में सामयिक रूप से किया जाता था (ब्रेमेन के ऐडम के अनुसार प्रत्येक 9 वर्षों में एक बार).[35]
    जर्मैनिक लोगों के बीच मानव बलि के प्रमाण पुरातत्व विज्ञान के अनुसार वाइकिंग युग से पहले के हैं तथा कुछ ग्रीसो-रोमन एथनोग्राफी के बिखरे हुए अभिलेखों में से हैं। उदाहरण के लिए, टैकिटस के अनुसार जर्मैनिक लोगों में मानव बलि (जैसी कि इसकी व्याख्या की जाती है) मरकरी के लिए की जाती थी, तथा आईसिस के लिए भी,


    विशेष रूप से स्युबियन लोगों में. जॉर्डेन्स की रिपोर्ट से पता चलता है कि किस तरह
     गोथ लोग युद्धबंदियों को मार्स के सम्मुख बलिदान करते थे तथा उनकी अलग की गयी भुजाओं को पेड़ की टहनियों से लटकाते थे।
    8वीं शताब्दी तक जर्मैनिक मूर्तिपूजा सिर्फ स्कैन्डिनेविया तक ही सीमित रह गयी थी। वर्ष 921 में वोल्गा बल्गर्स के दूतावास में अहमद इब्न फदलन द्वारा दिए गए वृतांत में लिखा था कि नॉर्स लड़ाकों को कभी कभी गुलाम महिलाओं के साथ ही इस प्रत्याशा में दफ़न कर दिया जाता था कि ये महिलाएं वाल्हल्ला में इनकी पत्नियां बनेंगी. किसी स्कैंडिनेवियन सैन्य प्रमुख के अंत्येष्टि संस्कार के अपने विवरण में दिया गया है कि ये गुलाम स्वेच्छा से नॉर्समैन के साथ अपने प्राण देती थीं। दस दिनों के उत्सव के बाद, किसी बड़ी उम्र की महिला द्वारा उसे चाकू से मार कर, जिसे वोल्वा अथवा "मृत्यु का फ़रिश्ता" कहते थे, मृतक के साथ ही उसकी नाव पर जला दिया जाता था। इस प्रथा को पुरातत्ववैज्ञानिक रूप से स्पष्ट किया जा चुका है, कई पुरुष योद्धाओं की कब्र में (उदाहरण के लिए आइल ऑफ मैन के बैलाडूल में नौका दफ़न में अथवा नौर्वे के ओस्बर्ग में[36]) महिलाओं के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें आघात के भी लक्षण हैं।


    एडम वॉन ब्रेमेन ने दर्ज किया है कि
    11वीं सदी के स्वीडन में औडीन को, उप्पसला के मंदिर में मानव बलि चढ़ाई जाती थी, यह ऐसी प्रथा थी जिसे जेस्टा डैनोरम 


    तथा नॉर्स कथाओं में पक्का किया गया है। यांग्लिंग कथाओं के अनुसार वहां राजा डोमल्ड की बलि इसलिए चढ़ाई गयी थी कि भविष्य में अच्छी फसलें आ सकें तथा भविष्य के युद्धों में पूर्ण विजय प्राप्त हो सके. यही कथा यह भी इंगित करती है डोमल्ड का उत्तराधिकारी राजा ऑन ने अपने नौ पुत्रों को ओडिन को अर्पित कर दिया जिससे उसे लम्बी आयु प्राप्त हो सके
    , तब स्वीडन के लोगों ने उसे रोक दिया जिससे उसका अंतिम पुत्र एजिल बच सका.
    हर्वरार गाथाओं में हेड्रेक अपने पुत्र का बलिदान देने के लिए तैयार हो गया था ताकि रीडगोटालैंड के एक चौथाई लोग उसके प्रभुत्व में आ सकें. इन के साथ उसने पूरे राज्य पर अधिकार कर लिया तथा अपने पुत्र का बलिदान भी बचा लिया, ऐसा करने के लिए उसने अपने यहां कैद अपराधियों को ओडिन को अर्पित कर दिया.


    स्लाविक लोग
    रूसी प्राथमिक क्रॉनिकल के अनुसार युद्ध-कैदियों का बलिदान पेरून, जो कि युद्ध के स्लाविक देवता थे, के समक्ष कर दिया जाता था। लियो दि डेकन ने स्वियातोस्लाव द्वारा रूस-बैज़ेन्टाइन युद्ध में बंदियों के बलिदान का वर्णन किया है। अंतिम ज्ञात बलिदान 978 में हुआ; इसके पीड़ित एक युवा ईसाई जिसका नाम आयोन था तथा उसका पिता, थियोडोर, जिन्होंने इस बलिदान को रोकने का प्रयास किया था। बाद में थियोडोर और आयोन का इसाई शहीदों के रूप में महिमामंडन किया गया (इन्हें संत की उपाधि दी गयी). 980 के दशक में रस के बैप्तिसम के पश्चात राजकुमार व्लादिमीर द्वारा मूर्ति-रूप देवताओं को बलिदान के साथ ही मूर्ति-पूजा पर भी रोक लगा दी गयी।

    चीन

    प्राचीन चीनी नदी के देवताओं को युवा पुरुषों एवं महिलाओं की बलि देने के लिए ज्ञात हैं, साथ ही अंत्येष्टि क्रिया में स्वामियों के साथ ही उनके अनुचरों को भी दफ़न किया जाता था। यह शांग तथा झोउ राजवंशों के दौरान विशेष रूप से प्रचलित था। युद्धरत राज्यों के काल में वेई के झिमेन बाओ ने गांव-वासियों को यह दिखाया कि नदी के देवताओं को किया गया बलिदान दरसल दुष्ट पुरोहितों की एक चाल थी जिसके द्वारा वे अपने लिए धन उत्पन्न करते थे।[37] चीनी विद्या में, झिमेन बाओ का आदर एक लोक नायक की तरह किया जाता है जिन्होंने मानव बलिदान की व्यर्थता को इंगित किया।
    उच्च वर्ग के पुरुष के गुलामों, रखैलों तथा अनुचरों का उसकी मृत्यु पर बलिदान (जिसे जुन जैंग 殉葬 अथवा विशिष्ट रूप से शेंग जुन 生殉 कहा जाता था) एक अधिक आम रूप था। इसका प्रयोजन मृतक को अगले जन्म में साथ प्रदान करना था। पहले के समय में इन लोगों को या तो मार दिया जाता था अथवा जिंदा दफन कर दिया जाता था, जबकि बाद में उन्हें आम तौर पर आत्महत्या करने को मजबूर किया जाता था।
    अंत्येष्टि मानव बलि को क्विन राजवंश द्वारा ई.पू. 384 में समाप्त कर दिया गया।इसके बाद में यह चीन के मध्य भाग में अपेक्षाकृत दुर्लभ हो गयी। हालांकि, मिंग राजवंश के सम्राट होंग्वु द्वारा 1395 में इसे पुनर्जीवित किया गया जबकि उसका बेटा मर गया और उसकी दो रखैलों को राजकुमार के साथ बलिदान कर दिया गया। 1464 में,

    सम्राट ज़्हेंगटोंग ने अपनी वसीयत में इस प्रथा को मिंग शासकों एवं राजकुमारों के लिए वर्जित कर दिया.
    मानव बलि की प्रथा मंचू लोगों द्वारा भी की जाती थी। सम्राट नुर्हची की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी लेडी अबाहाई तथा उनकी दो संगिनियों ने आत्महत्या कर ली. किंग राजवंश के दौरान 1673 में अनुचर बलि को सम्राट कांगज़ी द्वारा रोक दिया गया।

    तिब्बत

    7वीं शताब्दी में बुद्ध धर्म के आगमन से पहलेतिब्बत में मानव बलि तथा स्वजातिभक्षण निस्संदेह ही विद्यमान थे।[38]
    मध्ययुगीन बौद्ध तिब्बत में मानव बलि का चलन कम स्पष्ट है। लामाओं द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के पश्चात् वे रक्त बलिदान नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने व्यक्तियों के स्थान पर आटे से बने पुतलों की बलि देना प्रारंभ कर दिया. तिब्बती परंपरा में व्यक्तियों के स्थान पर पुतलों के बलिदान का श्रेय पद्मसंभव को जाता है जो कि 8वीं सदी के तिब्बती संत थे।[तथ्य वांछित]
    फिर भी, कुछ साक्ष्य हैं कि लामाओं से परे तांत्रिक मानव बलि की प्रथा थी जो कि मध्ययुग तक बची रही और संभवतः आधुनिक काल तक भी की जाती रही. 15वीं सदी का ब्लू ऐतिहासिक वृतांत जो कि तिब्बती बौद्ध धर्म का प्राथमिक दस्तावेज है, यह बताता है कि कैसे तथाकथित "18 लुटेरे-संत" पुरुषों एवं महिलाओं को मार कर अपनी तांत्रिक गतिविधियों के लिए प्रयोग करते थे।[39] इस तरह के प्रचलन में मानव बालि, जैसे कि मध्य-युगीन तिब्बत में थीं, का स्थान 20वीं सदी तक पशु बलि अथवा स्वयं को कष्ट देते हुए लगने वाले घावों ने ले लिया।[तथ्य वांछित] तिब्बत में मानव बलि के प्रमाण के 20वीं सदी के व्यवस्थित सर्वेक्षण में तीन घटनाएं प्रकाश में आती हैं:
    1.   1915 में ब्रिटेन के एक यात्री को बताया गया था कि पूर्व समय में जियांट्स मठ में बच्चों की बलि दी जाती थी।
    2.   चार्ल्स अल्फ्रेड बेल की रिपोर्ट में भूटान-तिब्बत सीमा पर स्तूप में आठ वर्ष के बालक तथा उसी आयु की बालिका के अवशेष मिले थे Tumesh chiram   जो कि स्पष्ट रूप से रिवाज़ के कारण मारे गए थे।[40]
    3.   अमेरिकी मानव विज्ञानी रॉबर्ट एक्वल ने 1950 के दशक में हिमालय के दूरदराज के क्षेत्रों में मानव बलि के कुछ मामलों के बारे में बताया था।[41]
    इस साक्ष्य के आधार पर, ग्रन्फेल्ड (1996) ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस से इंकार नहीं किया जा सकता है तिब्बत के दूर-दराज़ के इलाकों में मानव बलि 20वीं सदी के मध्य तक विद्यमान थी,


    परन्तु साथ ही यह दुर्लभ भी थी कयोंकि ऊपर दिए गए मामलों के अतिरिक्त कोई और मामला प्रकाश में नहीं आया।
    [42]
    भारत
    समाज,साहित्य,बलि प्रथा,आदिवासी,रीती रिवाज,प्राकृतिक,शक्ति,samaj,sahitya,bali pratha,adiwasi,ritirivaj,prakritik,shakti,आर्यन चिराम,हल्बा समाज,aaryan chiram,halba samaj,भारतीय उपमहाद्वीप में मानव बलि के पुरातन साक्ष्य कांस्य युग में सिंधु घाटी सभ्यता तक जाते हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर में उलटी लटकी एक नग्न महिला की आकृति बनी है जिसके पैर फैले हुए हैं तथा गर्भ से एक पौधा निकल रहा है। मुहर की दूसरी ओर प्रार्थना की मुद्रा में जमीन पर बैठे एक पुरुष एवं महिला को दर्शाया गया है जिसमें पुरुष एक दरांती लिए हुए है।


    कई विद्वान इसे मातृ-देवी के सम्मान में किया जाने वाली मानव-बलि बताते हैं।
    [43][44][45][46]
    वेदों में वर्णित मानव बलि के बारे में 19वीं सदी के सभी विचारों से बेहतर, हेनरी कोलब्रुक का कहना है कि मानव बलि को धर्मग्रन्थ सम्बन्धी अधिकार बस ज़रा सा ही है, वास्तव में यह नहीं पाया जाता है। वे छंद जो पुरुषमेध से सम्बंधित हैं, उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से पढ़ा जाना चाहिए,[47] अथवा इन्हें पुरोहित की कल्पना समझा जाना चाहिए. हालांकि, राजेंद्रलाल मित्रा ने इस विचारधारा के विरुद्ध प्रकाशन किया, इनके अनुसार, मानव बलि, जैसे कि बंगाल में वास्तव में की जाती है, वैदिक समय से लगातार की जाती रही है।[48] हरमन ओल्डेनबर्ग भी कोलब्रुक के विचार से सहमत रहे; परन्तु जन गोंडा ने इसके विवादस्पद स्वरुप को रेखांकित किया है।
    वैदिक काल के बाद से मानव और पशुओं की बलि दुर्लभ ही होती थी क्योंकि अहिंसा मुख्य धार्मिक विचारधारा का हिस्सा बन गयी थी। यह बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे धर्मों के प्रभावस्वरुप जिसमें भिक्षुकों के भ्रमण करने का विचार था, के अनुरूप हो सकती है। चन्दोग्य उपनिषद (3.17.4) में गुणों की सूची में अहिंसा भी सम्मिलित है।[47]
    यह कोलब्रुक द्वारा भी स्वीकार किया गया था कि पुराण काल में, कम से कम कालिका-पुराण के लिखे जाने तक मानव बलि स्वीकृत थी। कालिका-पुराण पूर्वोत्तर भारत में 11 वीं शताब्दी में लिखा गया था। इस पाठ्य के अनुसार रक्त बलिदान की अनुमति तब ही है जब देश खतरे में हो और युद्ध की उम्मीद हो. इस पाठ्य के अनुसार, बलिदान करने वाले की अपने दुश्मनों पर विजय प्राप्त होगी.[47] मध्ययुगीन काल में, यह अधिकाधिक गति से सामान्य हो गया था। 7वीं सदी में बाणभट्ट ने चंडिका के एक मंदिर में समर्पण के विवरण के विषय में लिखते हुए मानव बलि की एक श्रेणी के विषय में बताया है; इसी प्रकार 9वीं सदी में हरिभद्र ने भी उड़ीसा


     
    के चंडिका मंदिर में बलिदान के विषय में बताया है।[49] यह भारत के दक्षिणी भागों में "अधिक सामान्य" था। उत्तरी कर्नाटक के कुकनूर कस्बे में एक प्राचीन काली मंदिर है जिसका निर्माण 8वीं-9वीं सदी के लगभग हुआ है, इस मंदिर में मानव बलि का इतिहास रहा है।[49]
    शक्ति की पूजा के रूप में मानव बलि आधुनिक युग के प्रारंभ तक दी जाती रही है, तथा बंगाल में 19वीं सदी के प्रारंभ तक.[50] यद्यपि हिंदू संस्कृति की मुख्य धारा द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया जाता है, कुछ तांत्रिक सम्प्रदायों में मानव बलि दी जाती है, दोनों, वास्तविक एवं प्रतीकात्मक स्वरूपों में; यह एक अत्यधिक संस्कारों के साथ किया जाता है, कई मौकों पर इसे पूर्ण होने में महीनों लगते हैं।[50]
    कर्पूरादिस्तोत्रम (काली की स्तुति) के छंद 19 में दी गयी सूची में मानव को देवी द्वारा बलिदान के लिए स्वीकृत प्रजातियों में से एक माना गया है। हालांकि, 1922 में, सर जॉन जॉर्ज वूडरौफ ने कौला व्यख्याकर्ता स्वामी विमलानंद द्वारा कर्पूरादिस्तोत्रम की एक व्याख्या की है। इस रिपोर्ट में उन्होंने लिखा है कि 19वें छंद में दी गयी सूची में दिए गए पशु सिर्फ छह शत्रुओं के प्रतीक हैं और इसमें से "मानव" अहंकार का प्रतीक है।


    उन्होंने यह भी कहा गया है कि भौतिक बलिदान का समय काफी पहले ही समाप्त हो चुका है।
    [51]
    कोंड, जो कि भारत की एक आदिवासी जनजाति है, तथा जो सहायक नदियों के प्रदेश

     उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश के रहने वाले थे, अंग्रेजों द्वारा 1835 में उनके जिले पर अधिकार किये जाने के बाद वे कुख्यात हो गए, इसका कारण उनके द्वारा मानव बलि में की गयी क्रूरता थी।[52]
    देवरी समुदाय में एक उल्लेखनीय संस्कृति और परंपरा है जो कि समाजशास्त्रियों के लिए किसी छिपे खजाने से कम नहीं है। देवरी समाज पूरे चुतीया समाज के पुरोहित वर्ग से हैं (अब यह असम, भारत में है). 13वीं सदी के पहले दो दशकों में, अहोम के आने से पहले, इसका नाम सादिया था। देवरी नर बलि (मानव बलि) दिया करते हैं, वे ऐसा लड़ाइयां तथा युद्ध जीतने, तथा गांव वालों को दुष्ट वातावरण, जैसे बाढ़, सूखा आदि से बचाने के लिए करते हैं। यह प्रथा उन्हें शुद्ध बनाती है जिससे कि वे प्रधान देवी को प्रसन्न कर सकते हैं। केवल पतोर्गन्य वर्ग के लोग बलिदान के पात्र थे। सन्दर्भ (रेफ.)[14]
    कुछ हिन्दू सम्प्रदायों में सती प्रथा, जिसमें कोई विधवा अपने पति की चिता पर स्वयं की बलि दे देती है, उन्नीसवीं सदी तक भी बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। इससे उस जोड़े को मोक्ष प्राप्त होता है तथा अगले जन्म में उनका पुनर्मिलन भी हो जाता है, इसे अनुचर बलि के रूप में भी देखा जा सकता है। अंततः इसे समाप्त करने के लिये भारत के सती आयोग (निवारण) अधिनियम (1829) की रचना की गई।[53] देश भर में सती हुई महिलाओं की संख्या के विषय में कोई विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। संख्या का एक स्थानीय संकेत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल प्रेसिडेंसी के रिकॉर्डों से मिलता है। 1813 से 1828 के बीच ज्ञात मामलों की संख्या 8,135 है।[54]

    प्रशांत महासागरीय क्षेत्र

    प्राचीन हवाई में लुआकिनी मंदिर अथवा लुआकिनी हेयू जहां हवाई के मूल-निवासियों का एक पवित्र स्थल था, जहां मानव और पशु रक्त की बलि दी जाती थी। काउवा, जो कि निष्कासित अथवा गुलाम वर्ग के थे


    , अक्सर मानव बलि चढाने के लिए लुआकिनी हेयू में प्रयोग किये जाते थे। ऐसा विश्वास है कि वे युद्ध-बंदी अथवा युद्ध-बंदियों के वंशज हैं। परन्तु सिर्फ उनकी ही बलि नहीं चढ़ती थी; सभी वर्गों के कानून तोड़ने वाले अथवा हारे हुए राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की भी बलि चढ़ाई जाती थी।[55][56]
    पूर्व-कोलंबियाई अमेरिकी क्षेत्र
    प्राचीन मानव बलि के मामलों में से कुछ सबसे प्रसिद्ध अमेरिकी क्षेत्र के 0}पूर्व-कोलंबियाई सभ्यताओं के थे, जिसमें बंदियों के साथ ही स्वैच्छिक बलियां भी दी जाती थीं।[57] फ्रायर मार्कस डि नीका (1539) के लेख "चीचीमेकास": कि समय समय पर "इस वादी के लोग पर्ची डाल कर चुनाव करेंगे कि किसके भाग्य (सम्मान) की बलि चढ़ेगी, तथा जिनके समर्थन में निर्णय होगा वे प्रसन्न होंगे, तथा महान प्रसन्नता के साथ वे उसका अभिषेक फूलों के साथ करेंगे तथा मीठी जड़ी-बूटियों के साथ एक शय्या सजायेंगे, जिसपर वे उसको लिटा कर उसके दोनों ओर सूखी लकडियां लगायेंगे, तथा दोनों ओर से उसे जलाएंगे, तथा वह मृत्यु को प्राप्त होगा" तथा "उस व्यक्ति को बलिदान देने में महान सुख प्राप्त होगा".[58]
    मेसोअमेरिका
    जब खेल द्वारा दो शहरों के बीच का विवाद हल करने का प्रयास किया गया, तब मेसोअमेरिकेन बॉलगेम के मिक्स्टेक के खिलाड़ियों को बलिदान देना पड़ा. शासक लड़ाई के लिए जाने के बजाय एक खेल खेलकर विवाद सुलझाने का प्रयास करते थे। हारे हुए शासक को बलिदान देना होता था। शासक "एट डीयर" को एक महान बॉल खिलाडी माना जाता था तथा उसने इस तरह से कई शहरों को जीत लिया, तब एक बार वह खेल हार गया तथा उसकी बलि चढ़ा दी गयी।

    माया

    माया लोग यह मानते थे कि सेनोट्स अथवा चूना पत्थर की गुफाएं अधोविश्व के द्वार हैं तथा मानवों की बलि चढाने के लिए वे उन्हें सेनोट में डाल देते थे और ऐसा मानते थे कि इससे जल के देवता चाक प्रसन्न होंगे. "पवित्र सेनोट" का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण चिचेन इत्ज़ा है जहां व्यापत खुदाई करने से 42 लोगों के अवशेष प्राप्त हुए, उनमें से आधे बीस वर्ष से कम उम्र के थे।
    पोस्ट क्लासिक युग में ही यह क्रिया

    केन्द्रीय मेक्सिको जितनी बार ही होती थी।
    [59] पोस्ट क्लासिक युग में शिकार तथा वेदी का चित्रण जिसे धब्बेदार रंगों से बनाया गया है, तथा जिसे अब माया ब्लू कहते हैं, जिसे ऐनिल पौधे तथा मिटटी में प्राप्त होने वाला खनिज पैलीगोर्स्काईट से प्राप्त किया जाता था।[60]

    एज़्टेक

     लोगों को बड़े पैमाने पर मानव बलि देने वाला माना जाता है


    ; यह ह्युइत्ज़िलोपोश्ट्ली को अर्पण किया जाता था ताकि जो रक्त उन्होंने खोया है, उसकी पूर्ति हो सके कयोंकि वे रोज ही सूर्य के साथ युद्ध में विरत रहते हैं। उनके अनुसार यह दुनिया प्रत्येक 52 वर्ष चक्र में समाप्त हो सकती है तथा यह मानव बलि इसे रोक सकती है। 1487 में टेनोक्टिटलान के महान पिरामिड के पवित्रीकरण के विषय में अनुमान है कि इसमें 80,400 बंदियों की बलि दी गयी थी[61][62] हालांकि संख्या के विषय में अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि सम्पूर्ण एज्टेक पाठ्य को इसाई मिशनरियों द्वारा


    1528–1548 के दौरान जला दिया गया था।[63]
    रॉस हैसिग के अनुसार, जो कि एज्टेक वारफेयर के लेखक हैं,

    के अनुसार उस समारोह में "
    10,000 से 80,400 लोगों" की बलि दी गयी थी। कुछ लेखकों द्वारा ऐसे विशिष्ट अवसरों पर दी जाने वाली बालियों की संख्या को "अविश्वसनीय रूप से अधिक" बताया गया है[63] तथा यह भी कहा गया है कि सावधानीपूर्वक अनुमान लगाने पर, विश्वसनीय तथ्यों के आधार पर, ऐसे टेनोक्टिटलान में वार्षिक अवसरों पर यह संख्या सैकड़ों में आएगी.[63] 1487 के अभिषेक के दौरान बलिदान किये गए व्यक्तियों की वास्तविक संख्या अज्ञात है।
    माइकल हारनर ने अपने 1997 के लेख दि एनिग्मा ऑफ एज्टेक सैक्रीफाइस में केन्द्रीय मेक्सिको में 15वीं सदी में प्रतिवर्ष बलि दिए जाने वाले व्यक्तियों की संख्या 250,000 आंकी है। फर्नांडो डे अल्वा कोर्टेस इक्स्त्लील्क्सोकित्ल (Ixtlilxochitl), मेक्सिको का एक वंशज तथा कोडेक्स इक्स्त्लील्क्सोकित्ल के लेखक हैं, इनका दावा है कि मेक्सिको की प्रजा में पांच बच्चों में से एक प्रतिवर्ष क़त्ल कर दिए जाते थे। विक्टर डेविस हेन्सन का तर्क है कि कार्लोस जुमारागा का अनुमान जो कि प्रतिवर्ष 20,000 लोगों का है,


    अधिक विश्वसनीय है। अन्य विद्वानों का मानना है कि चूंकि एज्टेक लोग अपने शत्रुओं को सदैव भयभीत करने का प्रयास करते थे
    , इसलिए शायद वे इस संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करके दिखाने का प्रयास करते रहे होंगे.[64][65]
    त्लालोक को एज्टेक कैलेंडर के प्रथम मास में रोते हुए बच्चों की आवश्यकता होती होगी ताकि परंपरागत रूप से उनकी हत्या की जा सके.ज़ाईप तोतेक को चढ़ाई जनि वाली बलियों में शिकार को खम्बे से बांध कर तीर से मार दिया जाता था। मृत व्यक्ति की चमड़ी निकाल ली जाती थी तथा पुरोहित उस चमड़ी का उपयोग करता था। धरती माता टेटेओइनान को चमड़ी उतारी हुई महिला की आवश्यकता होती थी।

    दक्षिण अमेरिका

    कांस्य युग की सभी ज्ञात सभ्यताओं में इन्का लोग मानव बलिदान करते थे, विशेष रूप से बड़े त्योहारों अथवा शाही अंत्येष्टियों पर जहां अनुचरों को मारा जाता था ताकि वे मृतक के अगले जीवन में उसका साथ दे सकें.[66] उत्तरी पेरू के मोक़े लोग एक साथ बहुत से किशोरों की बलि देते थे, एक पुरातत्ववेत्ता स्टीव बौरगेट ने 1995 में 42 किशोरवय लड़कों की हड्डियां प्राप्त कीं.[67]
    मोक़े कला में प्राप्त चित्रों के अध्ययन से शोधकर्ताओं को इस सभ्यता के सबसे महत्वपूर्ण समारोह का पुनर्निर्माण करने में सहायता मिली, जिसका प्रारंभ अनुष्ठान लड़ाई से होता था तथा समाप्ति हारे हुए लोगों की बलि से होती थी। अच्छे कपड़ों और श्रृंगार से सजे सशस्त्र योद्धा अनुष्ठान लड़ाई में एक दूसरे का सामना करते थे। इस हाथ-से-हाथ की मुठभेड़ का उद्देश्य प्रतिद्वंद्वी को मारने के स्थान पर उसका साफ़ा हटाना होता था। लड़ाई का उद्देश्य बलि के लिए व्यक्तियों की प्राप्ति होता था। पराजित हुए व्यक्ति के कपड़े उतार कर उसे बांध दिया जाता था जिसके बाद जुलूस के रूप में उसे बलि-स्थल तक ले जाया जाता था। बंदियों को मजबूत और यौन रूप से शक्तिशाली के रूप में चित्रित किया जाता था। मंदिर में, पुरुष तथा महिला पुरोहित व्यक्ति को बलिदान के लिए तैयार करते थे। बलि के तरीके विविध थे


    लेकिन कम से कम एक व्यक्ति को रक्त बहा कर मृत्यु दी जाती थी। उसके रक्त को मुख्य देवताओं को चढ़ा कर उन्हें प्रसन्न तथा संतुष्ट करने का प्रयास किया जाता था।
    [68]
    पेरू के इन्का लोग भी मानव बलि देते थे। उदाहरण के लिए 1527 में इन्का हुयना कापक की मृत्यु होने पर लगभग 4,000 अनुचरों, दरबार के अधिकारियों, मनपसंद व्यक्तियों तथा रखैलों की हत्या कर दी गयी थी।[69] दक्षिणी अमेरिका के इन्का क्षेत्रों में बलि चढ़ाये गए बच्चों की बहुत सी ममियां प्राप्त हुई हैं, यह एक प्राचीन प्रथा थी जिसे कापाकोचा कहते थे। इन्का लोग महत्वपूर्ण अवसरों के दौरान अथवा पश्चात बच्चों की बलि चढ़ाते थे, उदाहरण के लिए सापा इन्का (शासक) की मृत्यु पर अथवा अकाल होने पर.[67]

    उत्तरी अमेरिका

    पॉनी लोग एक वार्षिक उषाकाल नक्षत्र प्रथा का अभ्यास करते थे, जिसमें एक युवा कन्या की बलि दे दी जाती थी। हालांकि यह प्रथा जारी रही किन्तु 19वीं शताब्दी में बलि का चढ़ाना बंद कर दिया गया।[70] ऐसा कहा जाता है कि इरोकोइस लोग कभी कभी अपनी महान आत्मा को अविवाहिता स्त्री की बलि चढ़ाते थे।[71]
    दक्षिण-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी संप्रदाय या माउंड बिल्डर्स भी मानव बलि चढ़ाया करते थे, कुछ ऐसी कलाकृतियां पायी गयी हैं जिनमें में इस प्रकार के चित्रण की अभिव्यक्ति है।[72] प्रारंभिक युरोपीय अन्वेषकों ने समूह में मानव बलि चढ़ाये जाने की घटनाओं का गवाह होने की जानकारी दी है।[73]
    पूर्वीय वुडलैंड के सांस्कृतिक क्षेत्र के कबीलों द्वारा युद्ध बंदियों को प्रताड़ित किये जाने के पीछे भी बलि चढ़ाने ही उद्देश्य दिखायी पड़ता है। देखें भारतीय अमेरिकी युद्ध में बंदी
    पश्चिमी अफ्रीका
    पश्चिमी अफ्रीका के राज्यों में 19वीं शताब्दी और इसके अंत तक मानव बलि आम थी। दहोमे लोगों की वार्षिक प्रथा इसका एक सबसे कुप्रसिद्ध उदाहरण है लेकिन संपूर्ण पश्चिमी अफ्रीकी तट और देश के अन्दर बलि चढ़ायी जाती थी। एक राजा अथवा रानी की मृत्यु के लिए बलि का चढ़ाया जाना सबसे अधिक प्रचलित था और इस प्रकार के अवसरों पर दासों की बलि चढ़ाये जाने के सैकड़ों या यहां तक कि हजारों मामले दर्ज हैं। दहोमे केबेनिन साम्राज्य में, जो अब घाना में और जहां अब दक्षिणी नाइजीरिया स्थित है, के छोटे राज्यों में बलि का विशेष प्रचलन था। जब दहोमे में किसी शासक की मृत्यु होती थी तो सैकड़ों, यां कभी-कभी हजारों बंदियों को मार डाला जाता था। 1727 में इसी प्रकार की एक प्रथा के दौरान, लगभग 4,000 लोगों के मार दिए जाने की जानकारी मिली थी।[74] इसके अतिरिक्त दहोमे में एक अन्य वार्षिक प्रथा भी हुई थी जिसमे 500 बंदियों की बलि चढ़ा दी गयी थी।[75]
    पश्चिमी अफ्रीका के उत्तरी हिस्सों में, प्रारंभ से मानव बलि बहुत कम होती थी क्योंकि इन हिस्सों में, जैसे हौसा स्टेट्स में, इस्लाम धर्म काफी मजबूती से स्थापित हो गया था। शेष पश्चिमी अफ्रीकी राज्यों में मात्र दबाव के द्वारा ही मानब बलि पर अधिकारिक रूप से प्रतिबन्ध लगाया गया, या कुछ मामलों में या तो ब्रिटिश या फ्रेंच लोगों के विनियोग द्वारा. इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम ब्रिटिश लोगों द्वारा शक्तिशाली गुप्त समाज एग्बो पर 1850 में मानव बलि के विरोध के लिए दबाव डालना था। यह समाज कई राज्यों के अन्दर शक्तिशाली अवस्था में था, यह राज्य अब दक्षिण-पूर्वीय नाइजीरिया हैं। फिर भी मानव बलि की प्रथा चलती रही, आमतौर पर गुप्त रूप से जब तक कि पश्चिमी अफ्रीका सकत उपनिवेशिक नियंत्रण में नहीं आया।
    लियोपर्ड मेन, एक गुप्त पश्चिम अफ्रीकी संस्था थी जो 1900 के दशक में मध्य में सक्रिय थी और नरभक्षण में संलग्न थी। सैद्धांतिक रूप से, नरभक्षण की प्रथा समाज के सदस्यों और और उनके संपूर्ण जनजाति वर्ग


    , दोनों को ही शक्ति प्रदान करती थी।[76] टंगनयिका में,  लायन मेन ने मात्र तीन महीने की अवधि में लगभग 200 हत्याएं कीं.[77]



    मानव बलि का अंतिम प्रमुख केंद्र आधुनिक नाइजीरिया में स्थित
     बेनिन साम्राज्य था। 1890 के दशक में बेनिन साम्राज्य मानव बलि पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए ब्रिटिश लोगों के साथ सहमत हो गया। हालांकि, फिर भी 5 वर्षों तक शासक बड़े पैमाने पर मानव बलि देते रहे. मानव बलि को देखने से रोकन एके प्रयास में एक ब्रिटिश निरीक्षणकर्ता की हत्या के मामले के बाद, ब्रिटिश अधिकारीयों ने बेनिन साम्राज्य पर विजय पान एके लिए अपनी सेनाएं एकत्र कर लीं. इसके फलस्वरूप मानव बलि के मामलों में तीव्र वृद्धि हो गयी क्योंकि बेनिन के शासक ब्रिटेन से अपनी रक्षा हेतु बलि द्वारा अपने देवता को प्रसन्न करने लगे. एक संक्षिप्त अभियान के बाद बेनिन साम्राज्य पर विजय प्राप्त कर ली गयी और मानव बलि कम हो गयीं.

    प्रमुख धर्मों में निषेध

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    यहूदी धर्म

    वर्तमान धार्मिक विचारधारा अकीदाह को मानव बलि के प्रतिस्थापन के केंद्र के रूप में देखती है; जबकि कुछ तल्मुदिक विद्वानों के अनुसार मानव बलि का प्रतिस्थापन मंदिरों में पशुओं की बलि के द्वारा हुआ है-


    एक्सोडस के
    3:2–12f; 22:28f; 34:19f; न्युमेरी 3:1ff; 18:15; ड्यूटरोनौमी 15:19 - जिसे अन्य खतना के प्रतीकात्मक पार्स-प्रो-टोटो 


    बलिदान के स्थान पर प्रतिस्थापित मानते हैं। लेविटिकस
    20:2 और ड्यूटेरोनौमी 18:10 विशेष रूप से बच्चों को मोलोच को दिए जाने को गैर-कानूनी ठहराता है, इसके लिए वह पत्थर द्वारा मारे जाने का दंड देता है; बाद में टनख लोगों ने भी बाल पुजारियों की एक निर्दयतापूर्ण प्रथा के रूप में मानव बलि की निंदा की.
    जजेज़ के अध्याय 11 में एक कहानी है जिसमे जेफ्थाह नाम का एक न्यायाधीश ईश्वर से यह प्रतिज्ञा करता है कि यदि ईश्वर एमोनाइट लोगों के विरोध में सैन्य युद्ध में उसकी सहायता करेंगे तो वह अपने घर से सबसे पहले बाहर आने वाले व्यक्ति की बलि चढ़ाएगा. उसके दुर्भाग्य से, जब वह जीत कर वापस लौटा तो उसकी इकलौती बेटी ने दरवाजे पर उसका स्वागत किया। जजेज़ 11:39 में कहा गया है कि जेफ्ताह ने ईश्वर को दिया अपना वचन पूरा किया। राबिनिक यहूदी प्रथा के समालोचकों के अनुसार, जेफ्ताह कि बेटी की बलि नहीं दी गयी, लेकिन उसे विवाह से प्रतिबंधित कर दिया गया और वह अपने पूर्ण जीवन काल में कुंआरी ही रही, इस वचन को निभाते हुए कि उसे ईश्वर के लिए समर्पित रहना है।[21] हालांकि प्रथम शताब्दी के के यहूदी इतिहासकार फ्लावियास जोसेफस ने इसका मतलब यह समझा कि जेफ्ताह ने याह्वेह की वेदी पर अपनी बेटी को जला दिया, जबकि प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध के के, स्यूडो-फिलो, ने लिखा की जेफ्ताह ने अपनी बेटी को एक जले हुए चढ़ावे के रूप में प्रस्तुत किया क्योंकि उन्हें इज़राइल में ऐसा कोई संत नहीं मिला जो उनके वचन का निरस्तीकरण कर सके.

    ईसाई धर्म

    ईसाई धर्म में यह मान्यता विकसित हो गयी थी कि इसाक के बंधन और जेफ्ताह की कुंआरी बेटी की कहानी ईसा मसीह केबलिदान का पूर्वाभास देती हैं और जिनके बलिदान और पुनर्जीवन ने मनुष्यों के पापों के धुल जाने में सहायता की. यह परंपरा है कि इसाक के बंधन का स्थान, मोरिआह, ही वह स्थान था जहां भविष्य में ईसा मसीह को शूली पर चढ़ाया गया।[78]
    ईसाई धर्म के कई सम्प्रदायों का मत एकमात्र, विशेष मानव बलि पर निर्भर है: जोकि ईसा मसीह की थी। ईसाइयों का यह मानना है कि अगले जन्म में स्वर्ग तक पहुंचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी पापों के प्रायश्चित हेतु किसी भी प्रकार से इस अतिमहत्वपूर्ण मानव बलिदान में सम्मिलित होना पड़ेगा. पूर्वीय कट्टरपंथी ईसाई संप्रदाय और रोमन कैथोलिक ईसाई यह मानते हैं कि वे युकैरिस्ट के माध्यम से कैल्वारी (ईसा का बलिदान स्थल) में भाग लेते हैं, युकैरिस्ट के सम्बन्ध में उनका मानना है कि यह वास्तव में ईसा मसीह का शरीर और रक्त है जिसे वह खाते तथा पीते हैं।[79][80] हालांकि अनेकों प्रोटेस्टेंट मतानुयायी इसे स्वीकार नहीं करते हैं और मानते हैं कि सम्प्रदाय की ब्रेड और वाइन मात्र इसके प्रतीक होते हैं। साम्राज्य रोमन में हालांकि जल्दी ईसाइयों नरभक्षी होने का आरोप लगाया गया,[81]मानव-बलि जैसी प्रथाएं उनके लिये घृणित थीं।[82]

    इस्लाम

    कुरान में मानव बलि की कठोर निंदा की गई है और इसे "गंभीर भूल या पापमय कर्म"[83] और इसे "भ्रष्ट हो चुके लोगों द्वारा किया गया एक अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण कार्य" कहा गया है,[84] तथा कुरान में इस बारे में भी चर्चा की गई है कि किस प्रकार "काफिरों को उनके देवताओं द्वारा अपने ही बच्चों की हत्या करने के लिये बहकाया जाता था".[84]

    पूर्वी धर्म


    पूर्वी धर्मों (बौद्ध धर्म और 



    >जैन धर्म) की अनेकों परम्पराएं अहिंसा (हिंसा का निषेध) के मत का स्वागत करती हैं जो

     शाकाहारवाद को अनिवार्य बनता है और जानवरों तथा मानव बलि को गैरकानूनी ठहराता है।
    हिन्दू धर्म मेंअहिंसा का सिद्धांत मौर्य काल की


     मनु स्मृति जितने प्राचीन काल से ही है। हालांकि यही लेख धार्मिक बलि को "हिंसा" की भावना से मुक्त करता है क्योंकि इसके अनुसार ऐसे में बलि के शिकार को बलि की इस क्रिया के माध्यम से किसी उच्च श्रेणी में जन्म लेने का लाभ मिलता है।[85]
    आधुनिक हिन्दू धर्मं में, परम्पराओं के अनुसार पौराणिक ग्रंथों में हत्या की अनुमति का सिद्धांत, वस्तुतः समाप्त ही हो गया है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में, भारतीय आध्यात्म की महान हस्तियों जैसे स्वामी विवेकानंद,[86] रमण महर्षि,[87] स्वामी सिवानन्द[88] और[89]ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी,[90] ने अहिंसा के महत्व पर बल दिया है।
    ब्लड लाइबेल
    यहूदियों 


    पर मानव बलि के आरोप आमतौर पर बच्चों के नरभक्षण या यूकैरिस्ट को अपवित्र करने के रूप में लगे हैं। वे समूह जिन पर ऐसे आरोप लगे हैं


    , उनमें 30s CE में एपिओन द्वारा यहूदियों के विरुद्ध ब्लड लाइबेल,[91] रोमन साम्राज्य के ईसाईयों द्वारा बाद में यहूदियों के एक षड़यंत्र का आरोप लगाया और 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में की गयी विच हंट.[92] 20वीं शताब्दी में, ब्लड लाइबेल के आरोप पैशाचिक परंपरा कुरीतियों द्वारा नैतिकता के प्रति भय के रूप में पुनः सामने आने लगे.[92]
     


    पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना
     
    और चाइनीज़ नैशनलिस्ट्स ने भी चीनी गणतंत्र में तिब्बतीय लामावाद की अपकीर्ति के प्रयास में तिब्बत में मानव बलि के सुपष्ट और नित्य सन्दर्भ दिए, इसके माध्यम से वे यह चित्र प्रस्तुत करना चाहते थे की 1950 मे पीपल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा तिब्बत पर किया गया आक्रमण एक मानवतावादी हस्तक्षेप मात्र था। चीनी स्रोतों के अनुसार, 1948 में, ल्हासा के राज्य के बलिदान विषयक पुजारियों द्वारा 21


    व्त्याक्तियों की हत्या शत्रु विनाश की परंपरा के एक हिस्से के रूप में की गयी थी
    , क्योंकि जादुई सामग्रियों के रूप में उनके शरीर के अंगों की आवश्यकता थी।[93]  तिबेतन रिवॉल्यूशन्स म्यूज़ियम जिसे ल्हासा में चीन द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था, में कई रुग्ण पारंपरिक वस्तुएं प्रदर्शन में रखी हैं जो इन दावों की व्याख्या करती हैं।[94] ताइवान में, ली आओ ने 2006 में अपने टीवी टॉक शो में यह दावा किया कि दलाई लामा ने मानव बलि के आदेश दिए हैं, उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा है कि "किसी धार्मिक अनुष्ठान " के लिये "मनुष्य की खाल को फाड़ दो".[95] मानव शरीर के अधिकांश अवशेष जिसे चीन तिब्बत के वीभत्स मानव बलि के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है, वास्तव में उन व्यक्तियों के शरीर के अंग हैं जो अपनी स्वाभाविक मृत्यु से मरे हैं और जिन्हें स्काई बरियल (आसमान को लाश समर्पित करना या मृत शरीर को खुले आकाश के नीच छोड़ देना) के बाद एकत्र करके अवशेष चिन्हों के रूप में रख लिया गया।[96]

    समकालीन मानव बलि

    भारत
    समाज,साहित्य,बलि प्रथा,आदिवासी,रीती रिवाज,प्राकृतिक,शक्ति,samaj,sahitya,bali pratha,adiwasi,ritirivaj,prakritik,shakti,आर्यन चिराम,हल्बा समाज,aaryan chiram,halba samaj,भारत में कुछ लोग निश्चित दैवीय सिद्धांतों के अनुयायी हैं जिसे तंत्र विद्या कहते हैं जो सभी, बौद्धों और हिन्दुओं के, तांत्रिक सम्प्रदायों और आधारभूत सिद्धांतों के निर्माण का आधार है। यह अधिकांशतः पशु बलि या प्रतीकात्मक पुतलों की बलि का प्रयोग करते हैं, लेकिन कुछ अल्पसंख्यक अभी भी अभियोग के जोखिम के बावजूद भी मानव बलि चढ़ाते हैं। यह बात दिमाग में रखते हुए भी कि, पशु बलि चढ़ाने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है, मानव बलि चढ़ाने वाले लोगों की संख्या तो उससे भी कहीं कम है और इसीलिए इसे अधिकांश तंत्र विद्या के प्रयोग करने वालों के द्वारा उचित तंत्र विद्या नहीं समझा जाता.
    भारत में मानव बलि अवैधानिक है। लेकिन देश के निर्जन और अविकसित इलाकों में कुछ मामले सामने आते हैं, जहां आधुनिकता पूरी तरह से नहीं पहुंच सकी है और कबीलाई/अर्ध-कबीलाई समूह अभी भी उन सांस्कृतिक परम्पराओं का पालन करते हैं जिनका पालन वे सस्राब्दियों से करते चले आ रहे हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2003 में मानव बलि की एक घटना हुई थी।[97] इसी प्रकार खुर्जा की पुलिस ने यह जानकारी दी कि 2006 में डेढ़ वर्ष की अवधि में, "दर्जनों बालियां" चढ़ायी गयीं.[98]


    ने आदतन उन लोगों के लिए मृत्यु दंड के आदेश जारी किये हैं जो मानव बलि चढ़ाते हुए पाए जायेंगे.
    [99]

    उप सहाराई अफ्रीका

    मानव बलि, धार्मिक परंपरा के सम्बन्ध में, अब भी पारंपरिक क्षेत्रों में घटित होती है, उदहारण के लिए, पूर्वी अफ्रीका में म्यूटी हत्याओं में. अब किसी भी देश में मानव बलि को आधिकारिक रूप से माफ़ नहीं किया जाता और इस प्रकार के मामले हत्या के तुल्य समझे जाते हैं।
    जनवरी 2008 में, लाइबेरिया के मिल्टन ब्लाह्यी ने मानव बालियों का हिस्सा होना स्वीकार किया, जिसमे "एक मासूम बच्चे की हत्यालाइबेरिया और उसका ह्रदय निकालना,


    जो बाद में उनके खाने के लिए टुकड़ों में काट दिया गया था" भी शामिल था। वह चार्ल्स टेलर की सेना के विरुद्ध लड़ा.
    [100]
    अगस्त 2004 में, आयरलैंड में एक म्यूटी हत्या की घटना हुईमलावी महिला की सिर रहित लाश पिलटाउन, काउंटी किल्केनी के निकट पायी गयी।[101]

    चिली

    खोजी पत्रकार पैट्रिक टियर्ने की 1989 में आई किताब, 1960 के महाविनाशकारी भूकंप और सुनामी के दौरान लागो बुडी संप्रदाय में मापुचे के माची द्वारा एक आधुनिक मानव बलि की रीति को प्रमाणित करती है।[102]
    पीड़ित, 5 वर्षीय जोस लूइस पेन्कर के हाथ और पैर जुआन परियान और जुआन जोस (पीड़ित के दादा) द्वारा निकाल दिए गए थे और समुद्र तट की रेत में एक खूंटे के समान गाड़ दिए गए थे। इसके बाद प्रशांत महासागर के पानी ने उसके शरीर को बाहर फेंक दिया. ऐसी अफवाह थी कि यह बलि स्थानीय माची, जुनाना नामुनक्योरा एरियन के आदेश पर दी गयी थी। दोनों व्यक्तियों पर इस अपराध का आरोप लगा और उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, किन्तु बाद में इसे अस्वीकार कर दिया. वे दो साल के बाद छोड़ दिए गए। "एक न्यायाधीश ने यह आदेश दिया कि वे लोग जो इन घटनाओं में शामिल थे "उन्होंने "स्वेच्छा से ऐसा नहीं किया, वे पूर्वजों की परंपरा के अप्रतिरोध्य बल द्वारा कार्य आकार रहे थे।"
    यह कहानी उस वर्ष की टाइम पत्रिका के एक लेख में भी उल्लिखित है, हालांकि उसमे बहुत ही कम विवरण दिए गए हैं।[103]

    अनुष्ठान हेतु हत्या

    एक समाज के अन्दर व्यक्तियों या समूहों द्वारा की जाने वाली आनुष्ठानिक हत्या, जिसकी वह समाज सामान्य हत्या के रूप में निंदा करता है, को "मानव बलि" या सिर्फ तर्कहीन नरहत्या में वर्गीकृत कर पाना कठिन है, क्योंकि इस बलि के सम्बन्ध में सामाजिक एकता का अभाव होता है।
    आधुनिक समाज के आपराधिक इतिहास में "आनुष्ठानिक ह्त्या" के काफी समीप के उदाहरण निम्न प्रकार से दिए जा सकते हैं,


    तर्कहीन लगातार हत्या करने वाले कातिल जैसे द जोडिएक किलर और डूम्सडे समुदाय की पृष्ठभूमि में हुई अनेकों आत्म हत्याएं
    , जैसे पीपल्स टेम्पल, ईश्वर के 10 आदेशों की पुनः स्थापना के लिए चलाया गया आन्दोलन, ऑर्डर ऑफ सोलर टेम्पल या हेवेन्स गेट घटना आदि. अन्य उदाहरणों में, "माटामोरोस किलिंग" जिसके लिए मैक्सिको के सामुदायिक नेता एडोल्फो कौन्सटेंजो जिम्मेदार थे और 1990 के दशक में ब्राजील में हुई "सुपीरियर युनिवर्सल अलाइन्मेन्ट" का उदहारण दिया जाता है।[104]

    काल्पनिक कथाओं में

    साहित्य, ओपेरा, वीडियो गेम और सिनेमा में एक विषय के रूप में मानव बलि का अपना इतिहास है। यह प्राचीन कृतियों के लिए एक आवर्ती विषय वस्तु है,


    जो यूरोपीय कल्पना में प्रख्याति की ओर लौटती है इसके साथ ही इसमें एज़्टेक परम्पराओं की स्पैनिश स्मृतियां भी होती हैं।
     कल्चर एंड सैक्रीफाइस में डेरेक ह्युघेस शेक्सपियर, ड्राईडेन और वॉल्टेयर की कृतियों द्वारा इस विषय की पुनरावृत्तियों और 20वीं शताब्दी की कृतियों, जैसे डी.एच. लौरेंस की कृतियां, में मोजार्ट से लेकर वैगनर तक के ओपेरा संबंधी परंपरा में इसकी केन्द्रीय स्थिति का पता लगाते हैं।


    [105]
    "द लॉटरी" 1948 की एक लघु कथा है जिसने संयुक्त राज्य में विवाद पैदा कर दिया. द विकर मैन, 1973 की एक फिल्म है जो इसी विषय पर है।
    रोसमेरी सूटक्लिफ के 1977 में आये ऐतिहासिक उपन्यास सन हॉर्स, मून हॉर्स में प्रमुख चरित्र, उफिन्ग्तन व्हाईट हॉर्स की रचना के उद्घाटन के दौरान, बलिदानी राजा के रूप में अपना कर्तव्य स्वीकार करता है और अपने लोगों के जीवन प्रतिदान के लिए अपना जीवन दे देता है।
    बीटल्स की फिल्म हेल्प! का अधिकांश कथानक उस समूह पर आधारित है जो रिंगो स्टार को मारने के लिए मानव बलि का अभ्यास करते हैं क्योंकि उसने बलिदान से सम्बंधित एक अंगूठी पहन रखी है।
    टिनटिन: प्रिज़नर्स ऑफ द सन में, इंका नेता परवलीय शीशों की सहायता से कुछ ही देर में प्रज्जवलित होने वाली एक चिता के समीप बलिदानी टिनटिन


    , कप्तान हैडोक और प्रोफ़ेसर कैलकुलस के पास आता है। यह कैलकुलस के लिए हो रहा था क्योंकि उसने रासकर कपक का ब्रेसलेट पहनकर उसे अपवित्र किया था।
    1984 की फिल्म इंडियाना जोन्स एंड द टेम्पल ऑफ डूम में, श्रेष्ठ पादरी मोला राम जादुई ढंग से एक हाथ से पुरुषों का ह्रदय निकालकर दूसरे हाथ से उन्हें खुलते हुए लावा में डालकर उनकी बलि दे देता है। इसमें बलि का ऐसा दृश्य दिखाया जाता है, जहां पीड़ित व्यक्ति के लावा में गिराने पर उसका ह्रदय अचानक जलने लगता है। मेल गिब्सन की एपोकैलिप्टो में देवताओं को शांत करने के लिए मानव बलि डी जाती है।
    डैन ब्राउन के उपन्यास द लॉस्ट सिम्बल में,


    किताब का प्रमुख खलनायक मलख पूरी कहानी के दौरान इस विश्वास के साथ स्वयं को मानव बलि के लिए तैयार करता है
    , कि वह अत्यंत भाग्यशाली है जो वह शैतानी ताकतों तक पहुंच सका.

    सन्दर्भ :-



    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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    2 Comments

    अपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !

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