बेगारी प्रथा का अर्थ:-
आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिये कराने को कुली बेगार कहा जाता था। विभिन्न ग्रामों के प्रधानों का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इस कार्य हेतु प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम लिखे होते थे और सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था।
प्रधानो, जमीदारो और पटवारियों के मिलीभगत से व आपसी भेद-भाव के कारण जनता के बीच असन्तोष बढता गया क्योंकि गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिये इस कुरीति को बढावा देने लगे। इस कुप्रथा के खिलाफ लोग एकत्रित होने लगे। कभी-कभी तो लोगों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। जैसे कि अंग्रेजों की कमोङ या गन्दे कपङे आदि ढोना। अंग्रेजो द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से दोहन किया जा रहा था,देश के विभिन्न हिस्सों में किसी न किसी रूप में बेगार और बंधक श्रम की परंपराएं मिलती हैं जो लोकतंत्र के नाम पर धब्बा है। रामशरण जोशी ने अपनी पुस्तक ‘आदमी, बैल और सपने’ में ऐसी तीस से ज्यादा बेगार, बंधक और ऋण प्रथाओं का उल्लेख किया है - असम में हलबा; आंध्रप्रदेश में वेट्टीचाकरी, जीतम, पालीहानाम; बिहार में कमिया बंधुआ मज़दूर, हरवाइस, बारमासिया; केरल में पनाम, बेगार मिलपु, चकैया; गुजरात में हाली, हालीपात्र; कर्नाटक में जीथा; मध्यप्रदेश में बंधुआ मज़दूर, लगुआ, कबाड़ी, हरवाही, माहीदारी, हाली, कमिय; पंजाब में संजी, सेरी; जम्मू-कश्मीर में जाना, मंझी, लझड़ी, इजहारी; महाराष्ट्र में वेट, बेगार; उड़ीसा में गोथी, हलया, हलिया, नाग; राजस्थान में सागड़ी, हाली; तमिलनाडु में पडियाल, बेगार; उत्तरप्रदेश में बंधुआ मज़दूर, बंधक, खुंडिर, मुंडिर, मार, संजायत और बंगाल में नित मज़दूर। बेगार और बंधक श्रम प्रथाओं के कोल्हू में पेरा जाना दलित और आदिवासी, दोनों की समान नियति रही है। बेगार से तात्पर्य बलात् कराये जाने वाले श्रम से है जिसकी एवज़ में बहुत कम मूल्य चुकाया जाता है और बहुधा कुछ दिया भी नहीं जाता। इसका मूल संबंध सामंतयुगीन कृषकदास प्रथा से है। इसकी जड़े राजा-रजवाड़ों की अत्याचारी शासन व्यवस्था तक चली गयी है। सामंतवाद दलितों-आदिवासियों को अपना गुलाम मानता था। एक व्यक्ति के रूप में इनकी कोई अस्मिता नहीं थी। मालिक-हुक्काम को जब मजदूरों की आवश्यकता पड़ती तब दलित-आदिवासी को बेगार में झौंक दिया जाता। प्रायः भव्य इमारतों के निर्माण, तालाब की खुदाई, शिकार अभियान आदि में इन्हें विभिन्न कार्यों में लगाया जाता। उत्सव और विवाह आदि विशेष अवसरों पर भी ये लोग बिन पैसों के गुलाम थे। राजा-रजवाड़े इनसे अपनी पालकियां ढुलवाने में अपनी शान समझते थे। इन बेगारों की मजदूरी प्रायः जीने भर का अनाज हुआ करती थी।रत्नकुमार सांभरिया की कहानी ‘बदन दबना’ के हलकासिंह के पूर्वज गांव के मालिक-हुक्काम रहे हैं। हल्कासिंह के दादा खब्बा ने हाथी से भी ऊंचे दरवाजे वाली हवेली बनवाई थी। पुराने हुक्मरानों-ठिकानेदारों की हवेली होने के कारण गांववाले सिर झुकाए हवेली के द्वार से आते-जाते थे। राजा-महाराजाओं-सामंतों की आन-बान-शान रही ये हवेलियां और किले-महल सब बेगार में बनवाये गये हैं। पूछाराम का बाप रेवाराम इस हवेली की चमक-दमक के नीचे दफन इसके दागदार इतिहास से हमें वाकिफ कराता है। इस हवेली की बेगार में पूछाराम के पड़दादा को भी खपना पड़ा था। पाव भर चना और पाव भर गुड़ की बेगार पर उन जैसे दलितों को हवेली निर्माण में बलात् जोता गया था। बड़े-बड़े महल इसीप्रकार पाव भर गुड़ और पाव भर चने की बेगार पर बने हैं। दलितों-गरीबों से बेगार-गुलामी करवाना ही सामंतों-रजवाड़ों की प्राणवायु थी। लेकिन जब देश आजाद हो गया तो सदियों से चली आ रही सामंती बेगार-गुलामी की भी चूलें हिल गयीं। अतः इस हवेली के निर्माता हलकासिंह को देश की आजादी का ऐसा सदमा लगा कि वे असमय ही काल कवलित हो गये दया पवार के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अछूत’ में लेखक दया पवार ने अपने गांव में मराठा उच्च जातियों द्वारा अछूतों से ली जाने वाली सामूहिक बेगार का चित्रण किया है। लेखक दया पवार स्वयं अस्पृश्य समझी जाने वाली महार जाति से है। उपन्यास दिखाता है कि इन महारों को स्वतंत्र मनुष्य ही नहीं समझा गया है। महारों को गांव की मराठा उच्च जातियां चैबीसों घंटों का नौकर मानती आयी हैं। उन्हें बेगार में किसिम-किसिम के काम करने होते हैं। देश आजाद हो जाने पर भी लेखक के सजातीय बंधुओं को इस बेगार से मुक्ति नहीं मिली थी। दया पवार महारों द्वारा की जाने वाली बेगार की फेहरिस्त गिना देते हैं
- ‘‘गांव का सारा लगान तालुके में पहुंचाना, गांव में आये बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, उन्हें चारा-पानी देना, ढिढ़ोरा पीटना, गांव में कोई मर जाये तो उस मौत की सूचना गांव-गांव पहुंचाना, मरे ढोर खींचना, लकडि़यां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दूल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना आदि काम महारों के हिस्से आते।’’बेगरी और बेध व्यवस्था बेगारी व्यवस्था पहाड़ी राज्यों के राजा को राज्य करने का अधिकार पत्र 'सनद देने से ही शुरू हो गया है। जो आगे चलकर एक महामारी का रूप धारण कर रहा था। बेगार को भूमि कर के साथ भी जोड़ा गया। बेगारी के लिए व्यक्ति गांव से एक या प्रत्येक घर से भी एक व्यक्ति होता था, इसकी देखरेख का कार्य बंदोबस्त अधिकारी का था। अगर किसी घर से व्यक्ति बेगारी के लिए नहीं जाता था, तो वह अपने बदले आदमी लगाना पड़ता था। इस बेगार प्रथा को आगे चलकर राजा ने स्वयं की कार्य, महल की देखरेख और राज परिवार के सदस्य की सेवा के लिए उपयोग में लाय ा। यह व्यवस्था एक प्रकार का शोषण ही थी, जिसमें गरीब और असहाय कृषकों और श्रमिकों का शोषण किया गया था, इस व्यवस्था के तहत गुलामी का दयनीय जीवन व्यतीत करते हैं । शिल्पकार, सुनार, लोहार, बढ़ई, दुकानदार आदि जिनकी जमीन पर कब्जा था,ये भी बेगार के लिए उत्तरदायी थे। शिल्पकार बेगारी के रूप में राजा के महल में कार्य कर बेगारी से बच सकते थे। राज्य के उच्च अधिकारी, विधवा,अनाथ,बच्चा,बूढे और बेकार आदमी भी बेगार से छूट पाने का अधिकार था। बेगार प्रथा को कई भागों में बांटा गया। जो इस प्रकार से था-
बागेश्वर का कुली बेगार आन्दोलन
कुली बेगार उतार आंदोलन यद्यपि कुमाऊँ की एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय घटना थी लेकिन इसका संबंध देश में रौलट एक्ट की खिलाफत से उपजे सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन से भी था. कुली बेगार का यह आंदोलन एक दिन में उपजे असंतोष का परिणाम नहीं था. कुली बेगार आंदोलन की उत्पत्ति और उस वक्त की सामाजिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम से कुमाऊं की सामाजिक संरचना को समझना होगा. 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव कुमाऊँ में नहीं के बराबर था क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1815 के गोरखा शासन के उपरांत कोई नया अत्याचारी कर यहां नहीं लगाया था. इसकी वजह से यह क्षेत्र कंपनी शासन के विरुद्ध सामूहिक आकार नहीं ले पाया. यद्यपि काली कुमाऊँ चंपावत के कालू सिंह महर आदि ने ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध बगावत की थी और बगावत की यह चिंगारी अल्मोड़ा, नैनीताल तक भी पहुंच गयी थी, कुल मिलाकर कुमाऊँ तब भी शांत था. 1858 में जब शासन कंपनी से ब्रिटिश क्राउन को स्थानांतरित हुआ और रेल की खोज ने जंगलों के दोहन की नई कहानी शुरू कर दी, तो 1864 मे वन विभाग की स्थापना की गई. वन सर्वेक्षक के रूप में बेवर की नियुक्ति की और 1868 में ऐसा वन कानून लागू किया गया जिसने उत्तराखंड के जंगलों में उत्तराखंड के गांव वालों के परंपरागत हक हकूक को समाप्त कर दिया. इससे भी बड़ी बात यह थी कि जो जंगल काटे जा रहे थे उनके ढुलान का कार्य गांव वालों के ऊपर बेगार के रूप में कर-स्वरुप थोप दिया गया. गांव मालगुजार और थोकदार के जरिए कुली बेगार के लिए रजिस्टर बना दिए गए. सब ग्रामीण बारी बारी लाट साहब को बेगार में अपनी सेवाएं देते थे. इस प्रथा से उत्तराखंड वासियों के आत्मसम्मान को गहरी चोट पहुंची और विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गई.
1878 में नए वन कानून से वनों में प्रवेश के अधिकार से स्थानीय नागरिकों को और अधिक कड़ाई से वंचित कर दिया. ग्रामीण समाज में इस कर व्यवस्था के विरुद्ध बड़ी गहरी छटपटाहट देखी जा रही थी.
1903 में जब लॉर्ड कर्जन बंगाल विभाजन से पूर्व भारत आए तो अल्मोड़ा में बुद्धिजीवियों के एक शिष्टमंडल ने लॉर्ड कर्जन को कुली बेगार के विरोध में एक प्रत्यावेदन दिया.
1903 में ही खत्याड़ी में सामूहिक रूप से बेगार करने से मना कर दिया गया और इसी वर्ष सोमेश्वर में भी एक ऐसी ही घटना घटित हुई. इस विरोध को जुर्माने के दंड और अन्य दमन की विधियों से कुचल दिया गया लेकिन अल्मोड़ा में सामाजिक सक्रियता के चलते ब्रिटिश हुकूमत ने इस विद्रोह की अनदेखी कर दी.
1905 के बंगाल विभाजन का असर उत्तराखंड में भी देखा गया.
1907 में अल्मोड़ा में एक विशाल सभा आयोजित की गई. बंगाल विभाजन के विरोध के साथ वनों में स्थानीय नागरिकों के अधिकार और कुली बेगार को लेकर भी बात की गई.
1907 में ही श्रीनगर गढ़वाल में गिरजा दत्त नैथानी ने कुली बेगार के विरोध में एक प्रत्यावेदन ब्रिटिश हुकूमत को प्रस्तुत किया और अपील भी जारी की.
कांग्रेस की स्थापना के साथ ही कुमाऊँ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेना जारी था.
आंदोलन की सुगबुगाहट
इस प्रथा के विरुद्ध आंदोलन की सुगबुगाहट बीसवीं सदी में होने लगी. पहाड़ की जनता ने इस प्रथा को खत्म करने की मांग को लेकर तत्कालीन कमिश्नरों को कई पत्र लिखे जिसे अनसुना कर दिया गया. वर्ष 1910 में पहली बार एक किसान ने इस प्रथा के खिलाफ इलाहाबाद न्यायालय में याचिका भी दायर की. न्यायालय ने बेगार प्रथा को गैर कानूनी प्रथा करार दिया.
परिषद का दूसरा सम्मेलन 1918 में हल्द्वानी में, तीसरा सम्मेलन 1919 में कोटद्वार में और चौथा सम्मेलन काशीपुर में हुआ जिसमें 1000 तक संख्या में लोगों की भागीदारी होने लगी.
परिषद की सक्रियता ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से गहरे संबंध स्थापित किये.
1918 के कांग्रेस के दिल्ली सम्मेलन में 100 से अधिक प्रतिनिधि कुमाऊँ क्षेत्र से पहुंचे जहां कुली बेगार के विषय में राष्ट्रीय नेताओं तक यह बात पहुंचा दी गई और महात्मा गांधी को कुमाऊँ आने का निमंत्रण दिया गया.
1920 के नागपुर अधिवेशन में बड़ी संख्या में कुमाऊँ से लोग पहुंचे थे. महात्मा गांधी को बेगार के बाबत बताया गया. महात्मा गांधी ने हरगोविंद पंत, बद्री दत्त पांडे आदि आंदोलनकारियों से कहा – “मेरे कुमाऊनी भाइयों से कह दो अब कुली बेगार देना नहीं होता.”
गांधी के इस वाक्य ने मंत्र का कार्य किया और पूरे कुमाऊं क्षेत्र में इस बार कुली बेगार के विरोध में एक स्वतःस्फूर्त लहर चल पड़ी.
एक घटना 1 जनवरी 1921 की है जब बागेश्वर के पास चामी गांव में 400 से अधिक लोगों ने खड़े होकर हरज्यू के मंदिर में शपथ ली कि वे कुली बेगार नहीं देंगे.
फिर कुमाऊं परिषद के बागेश्वर अध्यक्ष शिवदत्त पांडे ने हरगोविंद पंत आदि को उत्तरायणी मेले में आने का निमंत्रण दिया.
10 जनवरी को हरगोविंद पंत, चिरंजीलाल, बद्री दत्त पांडे, चेतराम सुनार सहित 50 से अधिक कार्यकर्ता कत्यूर होकर बागेश्वर पहुंच गए थे. जहां उनका बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया गया.
12 जनवरी को एक बड़ा जलूस ‘कुली उतार बंद करो’ के नारों के साथ बागेश्वर बाजार में घूमा जिसमें 10 हजार लोग थे. दूसरे दिन सरयू के बगल में 10 हजार से अधिक लोग एकत्रित हुए.
हरगोविंद पंत के आह्वान पर कुली बेगार के रजिस्टर सरयू में प्रवाहित कर दिए गए और लोगों ने सरयू के जल से संकल्प लिया कि अब भविष्य में कुली बेगार नहीं देंगे.
डिप्टी कमिश्नर डायबिल मेले के दौरान डाक बंगले में ठहरा हुआ था. उसने हरगोविंद पंत, बद्री दत्त पांडे और चिरंजीलाल को बुलाकर डांट-फटकार लगाई लेकिन आंदोलनकारी नहीं डरे.
इन लोगों ने वापसी में यह संदेश जनता के बीच दिया. हरगोविंद पंत ने खुद की लाश ले जाने की बात कही तो जनता और अधिक उद्वेलित हो गई. बचे हुए रजिस्टर भी मालगुजार द्वारा सरयू नदी के जल में प्रवाहित कर दिए गए.
डायबिल जनता के दबाव में था और बल प्रयोग नहीं कर सका.
एक तरफ बड़ी संख्या में बागेश्वर में स्थानीय नागरिक थे वहीं डेविल के पास मात्र 21 अफसर, 25 सिपाही और 500 गोलियां ही थी. इससे भी बड़ी बात यह थी कि थोकदार और मालगुजार भी पक्ष में न होकर जनता के साथ खड़े थे.
इस प्रकार वर्ष 1921 में उत्तरायणी के दिन कलंक की बड़ी दास्तान यानी कुली बेगार का समूचा हिसाब सरयू नदी में प्रवाहित कर दिया गया. कुली बेगार आंदोलन की सफलता ने उत्तराखंड में आजादी की लड़ाई में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सरयू का यह संदेश कुमाऊँ तथा गढ़वाल के अन्य भागों में भी पहुंचा जहां आंदोलनकारियों का उत्साह द्विगुणित हो गया और आजादी की लड़ाई और तेज हो गई.
आज भी उत्तरायणी मेले से नए राजनीतिक संकल्पों को लिए जाने की परंपरा जारी है हमें कुली बेगार के इतिहास पर गर्व है.
उत्तरायणी पर्व पर फूटा जनाक्रोश
सरकार को हार माननी पड़ी
परंपरा कायम है
बंधुआ मजदूरी निषेध अधिनियम
ऐसी कोई भी व्यवस्था जिसके अंतर्गत ऋण लेने वाले अथवा उसके आश्रितों को ऋण चुकाने के लिए बिना किसी मजदूरी के ऋणदाता हेतु कार्य करना पड़ता है वह बंधुआ मजदूरी है और यह कानून द्वारा प्रतिबंधित है|
बेगार की व्यवस्था अथवा बाध्यकारी श्रम के अन्य रूप बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के अंतर्गत एक अपराध है|
यदि कही ऐसी प्रथा प्रचलित है तो उसकी सूचना जिलाधिकारी/किसी सामाजिक कार्यकर्ता/एनजीओ.अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति अधिकारी/स्थानीय सतर्कता समिति, जो जिले तथा प्रत्येक उप मंडल में होती है, को दी जानी चाहिए|
बंधुआ मजदूरी पर उच्चतम न्यायालय की घोषणाएं/निर्णय
बंधुआ मजदूरी के मुद्दे को उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिकाओं के रूप में उठाया गया था| उच्चतम न्ययालय ने निम्नानुसार निर्णय दिए –
बंधुआ मुक्ति मोर्चा मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि जहाँ कहीं ऐसा कहीं ऐसा स्पष्ट हो की किसी श्रमिक को बंधुआ मजदूरी मुहैया करवाने के लिए बाध्य किया गया है वहाँ अदालत इस खंडन की जाने वाली अवधारणा को मान लेगी कि उसके द्वारा प्राप्त किए गए किसी अग्रिम अथवा आय आर्थिक साधन के एवज में किया जा रहा है और इसलिए वह बंधुआ मजदूर है (बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम संघ एवं अन्य 1984, 2 एससीआर)| बंधुआ मजदूरों की पहचान की जानी चाहिए तथा उन्हें छुड़वाया जाना चाहिए और छुड़ाए जाने पर उनका उचित रूप से पुर्नवास किया जाना चाहिए| बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के प्रावधानों के क्रियान्यवन में राज्य सरकार की ओर से किसी विफलता को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 तथा 23 का उल्लंघन माना जाएगा (नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1984, 3 एससी सी 243)|
जब कभी भी किसी व्यक्ति को बिना किसी पारिश्रमिक अथवा नाम मात्र पारिश्रमिक के श्रम मुहैया करवाने के लिए बाध्य किया जाता है तो यह मन लिया जाएगा कि वह बंधुआ मजदूरी थी जब तक कि नियोक्ता अथवा राज्य सरकार अन्यथा सिद्ध करने के स्थिति में न हो (नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य)|
बंधुआ मजदूरी का पता लगाने के लिए नियोक्ताओं द्वारा उत्तर दिए जाने की आवश्यकता वाले कुछ प्रश्न निम्नलिखित हैं –
- क्या विभिन्न श्रम कानूनों जैसे कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, मजदूरी संदाय अधिनियम आदि का पालन किया जा रहा है?
- क्या रजिस्टरों का अनुरक्षण किया जा रहा है?
- नियोक्ता ठेका श्रम अधिनियम अथवा आवश्यकता होने वाले अन्य किसी कानून के अंतर्गत पंजीकृत है?
सामान्य सूचि: -
इतिहास अवलोकनविकिपीडिया बेगर आन्दोलन
प्रचेतन भारत का समाजिक और अर्थिक इतिहस हिंदू समाजिक संस्थान
कुली बेगार का अंतकुली बेग आन्दोलन
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उतराखंड गजेटियर
बेगारी और बंधुआ मजदूरी
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