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दास प्रथा // das prtha

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    आज हम जानने वाले है दास प्रथा के बारे में की यह किस प्रकार हमारे सभ्यता व संस्क्रती में सामिल होती गई और किस प्रकार क्रूर रूप धारण कर हमारे भाइयो को किस प्रकार से प्रताड़ित करते गए इस दास प्रथा की 

    दास प्रथा 

    (अंग्रेज़ी: Slavery) काफ़ी पुराने समय से सिर्फ़ भारत में ही बल्कि दुनिया के कई देशों में व्याप्त रही है। मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है। यद्यपि चौथी शताब्दी ई. पू. में भारत के विषय में मेगस्थनीज ने लिखा था कि "भारतवर्ष में दास प्रथा नहीं है", तथापि कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' तथा मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों में प्राचीन भारत में 'दास प्रथा' प्रचलित होने के संकेत उपलब्ध होते हैं। Tumesh chiram   दास प्रथा के द्वारा प्राय: ऋणग्रस्त अथवा युद्धों में बन्दी होने वाले व्यक्तियों को दास बनाया जाता था। फिर भी प्राचीन भारत में यूरोप की भाँति दास प्रथा न तो व्यापक थी और न ही दासों के प्रति वैसा क्रूर व्यवहार होता था।
    दास प्रथा के द्वारा प्राय: ऋणग्रस्त अथवा युद्धों में बन्दी होने वाले व्यक्तियों को दास बनाया जाता था। मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह  दासता की प्रथा है। मनुष्य के हाथों मनुष्य का ही बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इस प्रथा के अंर्तगत हुआ है। दास प्रथा को संस्थात्मक शोषण की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका आदि सभी भूखंडों में उदय होने वाली सभ्यताओं के इतिहास में दासता ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं के निर्माण एवं परिचालन में महत्वपूर्ण योगदान किया है। जो सभ्यताएँ प्रधानतया तलवार के बल पर बनी, बढ़ीं और टिकी थीं, उनमें दासता नग्न रूप में पाई जाती थी।
    पश्चिमी सभ्यता के विकास के इतिहास में दास प्रथा ने विशिष्ट भूमिका अदा की है। किसी अन्य सभ्यता के विकास में दासों ने संभवत: न तो इतना बड़ा योगदान दिया है और न अन्यत्र दासता के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य का इतना व्यापक शोषण तथा उत्पीड़न ही हुआ है। पाश्चात्य सभ्यता के सभी युगों में - यूनानी, रोमन, मध्यकालीन तथा आधुनिक- दासों ने सभ्यता की भव्य इमारत को अपने पसीने और रक्त से उठाया है।

    'दास प्रथा' शुरुआत

     की शुरुआत कई सदियों पहले ही हो चुकी थी। माना जाता है कि चीन में 18वीं-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व 'ग़ुलामी प्रथा' का ज़िक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ 'मनुस्मृति' में भी दास प्रथा का उल्लेख किया गया है।
    भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, बीजए रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए कर्ज़ लेते रहे हैं। इस कज के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं। कर्ज़ से कई गुना रकम चुकाने के बाद भी जब उनका कर्ज़ नहीं उतर पाता। यहाँ तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं। देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहाँ मजदूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मजदूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती। अफसोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के जरिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिक सुरेंद्र कहता है कि मजदूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहाँ भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मजदूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।  एक रिपोर्ट के अनुसार ६५० ईस्वी से १९०५ के दौरान पौने दो करोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी साम्राज्य में बेचा गया। १५ वीं शताब्दी में अफ्रीका के लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। १८६७ में करीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में गुलाम के तौर पर बेच दिया गया। गुलाम प्रथा के खिलाफ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद होने लगीं। इस पर १८०७ में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन कानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी गुलामों की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगा दी। १८०८ में अमेरिकी कांग्रेस ने गुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। १८३३ तक यह कानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। कहने को तो भारत में दास मजदूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम कानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मजदूरों को शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार जैसे संगठनों को गुलाम प्रथा के खिलाफ अपनी मुहिम को और तेज करना होगा। साथ ही गुलामों को मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। इसमें बात में कोई राय नहीं है कि विभिन्न देशों में अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की जिन्दगी बसर कर सकें।
    दुनिया भर में आज भी अमानवीय गुलाम प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की खरीद-फरोख्त की जाती है। इन गुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा गुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। गुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं।

    सम्पूर्ण विश्व की समस्या 

    यह दास प्रथा दक्षिण एशिया विशेष रूप से भारत, पाकिस्तान और नेपाल में ग़रीबी से तंग लोग ग़ुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर दास प्रथा जारी है। हालांकि सरकार ने वर्ष 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के जरिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, किंतु इसके बावजूद यह सिलसिला आज भी जारी हैसंयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में करीब पौने तीन करोड़ गुलाम हैं। एँटी स्लेवरी इंटरनेशनल की परिभाषा के अनुसार वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना मेहनताने के काम करना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त नजर रखना गुलामी माना जाता है। १८५७ में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन गुलामी की चरम अवस्था ‘किसी पर मालिकाना हक जताने’ को मानता है। फ़िलहाल दासता की श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मजदूरी, यौन दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल है।

    अमेरिका में करीब ६० देशों से लाए गए करोड़ों लोग गुलाम के तौर पर जिन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं। ब्राजील में भी लाखों गुलाम हैं। हालांकि वहाँ के श्रम विभाग के अनुसार इन गुलामों की तादाद करीब ५० हज़ार है और हर साल लगभग सात हज़ार गुलाम यहाँ लाए जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद लाखों में है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००३ में चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका में भी बड़ी तादाद में गुलाम हैं, जिनसे बाग़ानों और उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में गुलामी प्रथा को बढ़ावा मिला।

    पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार की मान्यता मिली हुई है। यहाँ अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मजदूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में गुलामों को ले जाने के लिए जहाज़ों का इस्तेमाल किया जाता था। इन जहाज़ों में गुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएँ और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई गुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर अपनी जान दे देते थे। चीन और बर्मा में भी गुलामों की हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारख़ानों और खेतों में काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और फ़िलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता है।


    भारत में दास

    ऋग्वेद में दास-दासी दोनों का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में पुरुष दास कम ही रहे होंगे। दासी को दान की वस्तु के रूप में उल्लेखित किया गया है। स्पष्ट है कि आर्यों एवं देशों के मध्य धार्मिक मतभेद की दीवार थी। आर्य वेदों की उपासना करते थे यज्ञ करते थे इंद्र को अपना देवता मानते थे और वह जो यज्ञ नहीं करते थे इंद्र वरूण की उपासना के पक्षपाती नहीं थे। ऐसे जन भी दास कहलाए जो वैदिक धर्म में आस्था नहीं रखते थे।
    दासो के प्रकार — दास अनेक प्रकार के होते थे जैसे-

    (1) युद्ध में जीता गया दास-  युद्ध में दो राजाओं के बीच जीत किसी एक की ही होनी होती है उसी दौरान जो राजा जीतता है वह हारने वाले राजा को अपन यहां दास बना लेते थे।

    (2) स्वेच्छा से दास कार्य स्वीकारने वाले- स्वेच्छा से इसका मतलब अपनी मर्जी से दास कार्य करना।

    (3) गृहस्थ कोटि के दास दासी से उत्पन्न पुत्र- गृहस्थ कोटि इसका मतलब है कि जिनके माता-पिता पहले से ही किसी के यहां दास कार्य कर रहे हैं तथा उनके पुत्र भी उन्हीं के अनुसार ही किसी के यहां दास कार्य कर रहे हो।

    (4) क्रय विक्रय से प्राप्त दास- क्रय विक्रय अर्थात दातों को खरीदा जाना ऋग्वेद में उल्लेख किया गया है Tumesh chiram   कि उस समय दूसरे राजाओं के यहां से दसों को खरीदा जाता था।

    (5) दान प्रथा से प्राप्त दास- दान प्रथा से तात्पर्य यह है कि एक राजा किसी अन्य राजा को दासों को दान में दिया करता था।

    (6) वंश परंपरागत दास- वंश परंपरागत दास इसका मतलब यह है कि जो लोग पहले से ही दास कार्य कर रहे हैं तथा उनके पुत्र पुत्रियां भी किसी के यहां दास कार्य कर रहे हैं।

    (7) दंड स्वरूप दस्य कर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य- इसका मतलब  किसी व्यक्ति को दंड के रूप में दास कर्म करना। 
    उत्तर वैदिक काल में दास - दासिया को भेंट में प्रदान करने की प्रथा पूर्ण विकसित हो चुकी थी। दास-दासियों को अपनी सेवा में रखना उसका का प्रतीक माना जाने लगा। दासों का मुख्य कार्य घरेलू कामों में मदद करना था। दास- दासियों के साथ उच्च वर्णों का व्यवहार मानवीय एवं सहायक रहता था। ऐसा कुछ लोगो का मत है पर वास्तविकता कुछ और है जो इस विचार धारा से कोसो दूर है ...,,,

    दास प्रथा के कुछ मामले 

    यह कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगीकरण के चलते इसमें और भी इज़ाफ़ा ही हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ/दास मज़दूरी जारी है। भारत के 'श्रम व रोजगार मंत्रालय' की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश में 19 प्रदेशों से दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और उन्हें मुक्त कराया गया। उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ मज़दूर को पुनर्वासित नहीं किया गया। केंद्रीय सहायता एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज़्यादा तमिलनाडु में 65 हज़ार 573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कर्नाटक में 63 हज़ार 437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज़्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हज़ार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च, 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई। 

    बिहार

    बिहार के गांव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मजबूर जवाहर मांझी को ४० किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ ३० साल तक बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी। करीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नजर में आया। मामले के अनुसार ३३ साल पहले जवाहर मांझी ने एक विवाह समारोह के लिए जमींदार से ४० किलो चावल लिए। उस वक्त तय हुआ कि उसे जमींदार के खेत पर काम करना होगा और एक दिन की मजदूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक तक मजदूरी करने के बावजूद जमींदार के ४० किलो का कर्ज़ नहीं उतर पाया। एँटी स्लेवरी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में देहात में बंधुआ मजदूरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएँ और बच्चे बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी यही हालत है।

     राजस्थान 

    -राजपूतों में स्त्रियां और लड़के-लड़कियां को खरीदने व बेचने की काफी प्रथा थी । कुछ सामन्त व सम्पन्न लोग स्त्रियों को रखैलों के रूप में रखने को खरीदते थे तो कुछ अपनी पुत्री के विवाह में दहेज के साथ दास-दासी देने के लिये उनको खरीदते थे । कई वेश्यायें भी लड़कियों को अनैतिक पेशा कराने के लिये खरीदती थीं । लड़कोें को साधु अथवा चेला बनाने को तथा सम्पन्न लोग अपने घरों में काम कराने के लिये खरीदते थे । इस प्रथा को समाप्त करने के लिये अंग्रेज सरकार ने राजाओं पर काफी दबाब डाला । इसके फलस्वरूप सन् 1847 में जयपुर रियासत ने इस व्यापार को अवैध घोषित कर दिया । अन्य राज्यों ने भी बाद में उसे अवैध घोषित कर दिया । लेकिन यह व्यापार छिपे रूप से देश की स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलता रहा । सामान्यतः घरेलू दास-दासियों सम्पन्न लोगों की अवैध संतानें थीं और वंशानुगत सेवकों के रूप में अपने स्वामी की सेवा करती थी । इन्हें गोला, दरोगा, चाकर, दास, खानजादा, चेला आदि के नाम से पुकारा जाता था । स्त्रियां गोली, दरोगन, डावड़ी, बडारन आदि कहलाती थीं । इन लोगों को अपनी मर्जी से विवाह करने की स्वतंत्रता नहीं थी।मालिक इन्हें अपने पुत्री के विवाह पर दहेज में दे देता था या सुंदर लड़की को नाम के लिये किसी गोले से विवाह कर अपने रनिवास में डाल लेता था । ऐेसी उप-पत्नी ‘पड़दायत‘ कहलाती थी । राजाओं की चहेती उप-पत्नी ‘पासवान या खवासन’ कहलाती थी । उसका पद रानी के बाद रहता था । जिन लड़कियों को रनिवास में सम्मिलित किया जाता था वे ‘डावड़ी या गोली’ कहलाती थी । वे दासी के रूप में काम करती थी या स्वामी की पुत्री के दहेज में दे दी जाती थी । इन दास -दासियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी । -23/238-9.
     

    विदेशो में भारतीय दास 

    पोंटिन मार्शे में करीब 30 हजार भारतीय रहते हैं. इनमें से ज्यादातर पंजाब से आये सिख हैं. 1930 के दशक में इटली की फासीवादी सरकार ने इन्हें कृषि कामों के लिए अलग कर दिया था. ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं और हाड़तोड़ मेहनत के बदले जो पैसा मिलता है वह इतना कम होता है कि उन एजेंटों का कर्ज चुकाने में ही खर्च हो जाता है जो शानदार नौकरी का लालच दे कर उन्हें यहां अवैध तरीके से लाते हैं. यह एक तरह से कर्ज में फंसे बंधुआ मजदूर हैं जो संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक आधुनिक दौर की सबसे प्रचलित गुलामी प्रथा है. एक अनुमान है कि इस तरह से पूरी दुनिया में साढ़े चार करोड़ से ज्यादा लोग दासों का जीवन जी रहे हैं. 

    हब्सी  दास
    1510 ई. के करीब जब अफ्रीकी हब्शी दासों से लदा पहला जहाज नई दुनिया पहुँचा तो दासता के इतिहास में एक नया मोड़ आया। मूलनिवासी दास कभी कभी अपनी विद्रोही गतिविधियों के कारण श्वेत महाप्रभुओं का सरदर्द बन जाते थे और साथ ही स्पेन एवं पुर्तगाल के राजा तथा धर्मगुरु भी उन दासों के प्रति सहिष्णुता बरतने की चर्चा करने लग जाते थे। मूलनिवासी दासों की तुलना में ये नए हब्शी दास अधिक आज्ञाकारी तथा कठोर श्रमी थे जिसका प्रधान कारण इन हब्शियों का अपनी अफ्रीकी मातृभूमि से दूर सात समूद्र पार रहना था। अत: हब्शियों की माँग बढ़ने लगी। गन्ने, कपास के खेतों में और खानों में दास-श्रम पहले से भी अधिक उपयोगी हो गया। फलत: हब्शियों का आयात इतना बढ़ा कि शीघ्र ही पश्चिमी द्वीप समूहों में उनका बहुमत हो गया। लालची यूरोपीय शक्तियों के तत्वावधान में दास व्यापार की निजी कंपनियों में ऐसी घोर प्रतिस्पर्धा चली कि 18वीं सदी के प्रारंभ तक हब्शी दास व्यापार पराकाष्ठा पर पहुँच गया। अंग्रेज तो इस काम में रानी एलिजाबेथ के काल में ही निपुण हो चुके थे क्योंकि रेले, गिलबर्ट, हाकिंस तथा ड्रेक जैसे व्यक्ति अपहरण, लूटमार आदि तरीकों से दास व्यापार चलाकर इंग्लैंड को समृद्ध बना रहे थे।
    अफ्रीकी देश सॆनॆगल के तट से थोड़ी दूर, डकार नगर के पास ईल ड गॉरे द्वीप है। ३१२ साल तक, १८४८ तक यह द्वीप फल-फूल रहे दास व्यापार का केंद्र था। फ्रांसीसी बंदरगाह नैनट्‌स के पुरालेख दिखाते हैं कि मात्र १७६३ से १७७५ के बीच गॉरे में १,०३,००० से ज़्यादा लोगों को दास बनाकर नैनट्‌स बंदरगाह से रवाना किया गया।
    आज हर दिन औसतन २०० लोग मॆज़ॉन्‌ डेज़ॆसक्लाव, दास घर संग्रहालय देखने जाते हैं। टूर गाइड ज़्होज़ॆफ न्डयाई ने ऐसी कुछ भयंकर बातों का वर्णन किया जो उन असहाय लोगों ने सही थीं: “हमारे पूर्वजों को दूर देश भेज दिया गया, उनके परिवार तितर-बितर कर दिये गये, मवेशियों की तरह उनकी चमड़ी दागी गयी।” पूरे-पूरे परिवार बेड़ियों में पहुँचते थे। “माँ को शायद अमरीका भेजा जाता, पिता को ब्राज़ील, बच्चों को ऐंटिलीज़,” गाइड ने बताया।
    “तौले जाने के बाद,” न्डयाई ने समझाया, “पुरुषों को उनकी उम्र और जाति के हिसाब से आँका जाता था, किसी-किसी जाति के लोगों को हट्टा-कट्टा या खूब बच्चे पैदा करने वाला समझा जाता था और उन्हें ज़्यादा पसंद किया जाता था। उदाहरण के लिए, योरुबा जाति को ‘भैंसे’ की तरह माना जाता था।”
    कम वज़न वाले बँधुवों की नीलामी करने से पहले उन्हें मोटा किया जाता था। दास व्यापारी हर रात अपनी काम-वासना संतुष्ट करने के लिए जवान औरतों को चुन लेते थे। बगावत करनेवाले दासों को गले के बजाय छाती बाँधकर फाँसी दी जाती थी ताकि वे देर तक तड़पें।
    पोप जॉन पॉल द्वितीय ने १९९२ में गॉरे का दौरा किया। द न्यू यॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट किया कि “उसने दास व्यापार के लिए क्षमा माँगी, उन सब की तरफ से क्षमा माँगी जिन्होंने इसमें हिस्सा लिया था। इसमें कैथोलिक मिशनरी भी शामिल थे जिन्होंने अफ्रीकियों की बँधुवाई को सामान्य बात मान लिया था।”
    लेकिन, जो कुछ हुआ उसे हर कोई मानने को तैयार नहीं। आज से ढाई साल पहले, नैनट्‌स अभिलेख मिलने से पहले, एक फ्रांसीसी जेसुइट ने दावा किया कि गॉरे में सिर्फ २०० से ५०० दास सालाना बेचे जाते थे। श्री. न्डयाई ने कहा कि अब तक “संसार ने कभी न समझा और न स्वीकार किया है कि यह आखिर कितना घोर अत्याचार था।”
    हब्शियों को वस्तुओं के बदले प्राप्त कर और जहाजों में जानवरों की तरह ठूँसकर अंटार्टिका पार अमरीका ले जाया जाता था। वहाँ उन्हें बेचकर चीनी, कपास, चावल तथा सोने से लदे जहाज यूरोप लौटते थे। वास्तव में इंग्लैंड, अमरीका तथा यूरोपीय पूँजीवाद का एक प्रमुख आधार दास व्यापार है। एक अनुमान के अनुसार सन् 1680-1786 के बीच लाख हब्शियों को अतलांतिक पार ले जाया गया। इन दासों को अपने विभिन्न यूरोपीय स्वामियों की भाषा तथा धर्म को भी ग्रहण करना पड़ता था क्योंकि उन्हें उस नरक में अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने के अवसर ही कहाँ प्राप्त हो सकते थे। आत्महत्या या पलायन के आलावा मुक्ति के कोई मार्ग न थे। हब्शी दास श्वेत स्त्रियों के साथ संपर्क की कल्पना भी नहीं कर सकते थे जब कि श्वेत स्वामी हब्शियों के साथ यौन संबंध कर लेते थे। किंतु वर्णसंकर संतानें कुछ अपवादों को छोड़कर दासता का ही स्तर प्राप्त करती थीं। हब्शी दासों के आवास अत्यंत दयनीय तथा भोजन निकृष्टतम होता था। दास झुंडों के श्वेत निरीक्षक खेतों या खानों में काम कराते समय उनपर चाबुकों का खुलकर प्रयोग करते थे।
    उत्तरी अमरीका तथा विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका के इतिहास में हब्शी दासता तथा तज्जनित स्थितियों का प्रारंभ से लेकर आज तक विशेष महत्व रहा है। दास प्रथा के कारण ही वहाँ तंबाकू, कपास आदि की कृषि में आश्चर्यजनक प्रगति हुई तथा भूमि से अप्रत्याशित खनिज संपत्ति निकाली गई; दासव्यवस्था ने ही संयुक्त राज्य को पूँजीवादी तथा औद्योगिक प्रगति में विश्व का अगुआ बनने में सबसे अधिक सहायता दी है; तथा दासप्रथा ने ही संयुक्त राज्य के राजनीतिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है क्योंकि दासता के प्रश्न पर उक्त राष्ट्र भीषण गृहयुद्ध से गुजरकर विभाजित होते होते बचा है। यद्यपि संयुक्त राज्य में दासता पहले अवैधानिक करार दी जा चुकी थी तथापि आज भी वहाँ की सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या हब्शी समस्या है जिसका पूर्ण समाधान दृष्टिगत नहीं हो रहा है। यह उन्हीं हब्शियों की समस्या है जिनके पर्वज श्वेत महाप्रभुओं के क्रीतदास थे।
    संयुक्त राज्य में 18वीं शती में जब हब्शियों के विद्रोहों की कुछ संभावना होने लगी तो वैधानिक रूप से हब्शियों के लिए शस्त्रधारण, ढोल नगाड़े रखना तथा रात्रि में सड़कों पर निकलना वर्जित कर दिया गया। जब वर्जिनिया में, जो संयुक्त राज्य में काले दासों का प्राचीनतम तथा विशालतम केंद्र था, नेट टर्नर नामक दास पादरी के नेतृत्व में एक छोटा विद्रोह हुआ तो दास राज्यों में हब्शियों को पढ़ना-लिखना सिखाना भी अवैधानिक घोषित कर दिया गया। संयुक्त राज्य में दासप्रथा की प्रधान विशेषता रंगभेद रही है।
    यद्यपि प्रारंभ में दासों पर भयावह अत्याचार होते थे और उन्हें असहनीय कष्ट उठाने पड़ते थे, फिर भी धीरे-धीरे उनके प्रति अधिक उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाने लगा। एथेंस में यदि किसी दास के साथ कष्टकर दुर्व्यवहार होता था तो वह किसी दूसरे स्वामी के हाथ बेच दिए जाने की माँग कर सकता था। उसके स्वामी को यह अधिकार न था कि जब इच्छा हो तब उसके प्राण ले ले। मालिक के परिवार के किसी व्यक्ति की हत्या कर देने पर भी उसके स्वामी को यह अधिकार न था। सामान्यतया न्यायालय में मुकदमा चलाए बिना उसे प्राणदंड नहीं दिया जा सकता था। रोम में उनकी स्थित सुधारने में अधिक समय लगा। वहाँ दास के प्राण ले लेने की पूरी छूट स्वामी को थी। उसे विवाह करने का अधिकार न था। बहुत से दासों को अक्सर रात में जंजीरों से बाँधकर रखा जाता था। क्रमश: इस स्थिति में थोड़ा सुधार होता गया। कुछ मालिकों ने अपने बच्चों की अच्छी तरह देखभाल करने पर दासों को स्वतंत्र कर देने का आश्वासन देना शु डिग्री किया और कुछ ने उन्हें निर्धारित अवधि तक कड़ी मेहनत करने पर छोड़ देने का वचन दिया। कानून के अनुसार बच्चों को गुलाम के रूप में बेचने की मुमानियत कर दी गई और कर्ज चुकाने के लिय भी किसी को दास बनाने पर रोक लगा दी गई।

    यूरोपीय देश 

    दासता को निर्ममता के शिखर पर पहुँचाने वाले रोमन साम्राज्य के विघटन के उपरांत यूरोप में दास प्रथा की कठोरता में कुछ कमी आई। अब यूरोपीय देशों को अधिकतर दास स्लाव क्षेत्र से प्राप्त होते थे। दास शब्द के अंग्रेजी, यूरोपीय भाषाओं के पर्याय "स्लेव" शब्द की व्युत्पत्ति इसी से हुई है। यूरोप में 10वीं तथा 14वीं शती के बीच दास प्रथा सामान्य रूप में चलती रही। 14वीं शती के आस पास पूर्वी यूरोप तथा पश्चिमी एशिया पर होनेवाले आक्रमणों से पश्चिमी यूरोप को पुन: युद्धबंदियों की प्राप्ति होने लगी। मध्ययुग के अंतिम चरण में राष्ट्रवाद और कट्टर धार्मिकता के सम्मिश्रण से युद्ध बंदियों के प्रति असहिष्णुता बरती गई। गैर ईसाई बंदियों को ""यीशु के शत्रु"" घोषित कर दासों के रूप में उन्हें क्रय करने का धर्मादेश एक बार सर्वोच्च धर्मगुरु पोप ने स्वयं जारी किया था। पादरियों की सेवा के लिए रखे जानेवाले गिरजाघर के दासों की स्थिति कुछ मानों में घरेलू दासों से भी बदतर थी। युद्धबंदियों की प्राप्ति से एक बार फिर इतालवी दास व्यापारियों का भाग्य चमक उठा। मनुष्यों के यह व्यापारी तुर्की से सीरियाई, आर्मीनीयाई तथा स्लाव दासों को लाकर भूमध्यसागरीय देशों की माँग पूरी करते थे। इसी काल से ओटोमन तुर्कों के इस्लामी साम्राज्यप्रसार ने भी दासता को बढ़ाया।
    15वीं शती के मध्य के करीब पुर्तगाली नाविकों ने हब्शी दास व्यापार में अरबों का एकाधिकार समाप्त कर दिया। पहली बार अफ्रीकी दासों का व्यापार समुद्री मार्ग से प्रारंभ हुआ। पुर्तगाल में दासों की माँग निरंतर बढ़ती जा रही थी क्योंकि मूर युद्धों एवं औपनिवेशिक प्रसार के कारण पुर्तगाली जनसंख्या घटती जा रही थी। दासों का आयात इतना बढ़ा कि 16वीं शती में पुर्तगाल के अनेक क्षेत्रों में श्वेतों की अपेक्षा हब्शियों की संख्या अधिक हो गई थी। चूँकि दासता में रंगभेद प्रबल नहीं था अतएव मुक्त रूप से रक्तसंमिश्रण होता था। पुर्तगालियों की धमनियों में आज भी हब्शी रक्त तथा श्वेत रक्त साथ साथ बहता है। पुर्तगाल के अलावा स्पेन में भी काले दास रखे जाते थे।
    रोम 
    रोमन सभ्यता में भी कुछ अमानवीय प्रथाएँ एकदम प्रारंभ से ही विद्यमान थीं, जैसे कि दास प्रथा। दास प्रथा यूरोपीय सभ्यता के इतिहास में एक काला धब्बा है। दास प्रथा यूरोप के सभ्य समाज में इस प्रकार व्याप्त थी कि सदियों तक वह किसी-न-किसी रूप में वहाँ जारी रही, यहाँ तक कि जब यूरोपीय लोग अमेरिका में जाकर बसे और वहाँ से स्थानीय निवासियों का भयानक नरसंहार करके अपना शासन स्थापित किया तो दास प्रथा अपने वीभत्स रूप में वहाँ भी विद्यमान रही। दास प्रथा से मुक्ति के लिए अमेरिका में गृहयुद्ध ही करना पड़ा था। इस दास प्रथा का मूल रोमन सभ्यता में भी मिलता है। यह दास प्रथा भारत की दास प्रथा या शूद्र वर्ण की व्यवस्था से काफी अलग और अमानवीय रही है। एक वर्णन देखें। रोमन समाज का तीसरा हिस्सा दासों का था। यह असंतुष्ट हिस्सा काफी प्रारंभ से ही समाज का एक बड़ा हिस्सा था। अफ्रीका की स्थिति भी कोई खास अच्छी नहीं थी। यूरोप का पूरा दास व्यापार अफ्रीका के स्थानीय लोगों पर ही चलता था। राजीव मल्होत्रा लिखते हैं, 'वर्ष 1517 से 1840 के बीच में एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग दो करोड़ अफ्रीकियों को पकड़कर अमेरिका ले जाया गया और इस प्रकार दास बनाया गया, जिसे एक प्रकार से नरसंहार ही कह सकते हैं। अठारहवीं शताब्दी में जब दासत्व यूरोप की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन चुका था, हेमेटिक मिथक रेस-संबंधों की चर्चा में प्रमुखता पा रहा था, जिससे दासत्व की प्रथा को न्यायोचित ठहराया जा सके।
    रोम के उत्थान के साथ दास व्यवस्था भी अपने पूर्णत्व को प्राप्त हुई। दासता का सबसे अधिक सबंध युद्ध विजय से रहा है। विजेताओं द्वारा अपनी सेवा के लिए पराजितों का उपयोग करना युद्ध की स्वाभाविक परिणति रही है। रोमन साम्राज्य का अभ्युदय एवं प्रसार सैन्यबल पर हुआ अत: रोम में दासप्रथा का प्रचलन अत्यधिक हुआ। रोमन गणराज्य के उत्तरार्ध (ई.पू. तीसरी एवं दूसरी शती) में जब अधिकांश स्वस्थ रोमन नागरिकों को कार्थेजी युद्धों में संलग्न होना पड़ा तो भूस्वामियों ने युद्धबंदियों को कृषिकार्यों के लिए दासों के रूप में क्रय करना प्रारंभ किया। इन युद्धों के कारण रोम में दासता का अभूतपूर्व प्रसार हुआ। प्रकार का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उस समय डेलोस द्वीप के एक प्रमुख दासबाजार में एक दिन में 10,000 दासों का क्रयविक्रय साधारण बात थी। कहते हैं कि आगस्टस के समय में जब एक नागरिक की मृत्यु हुई तो अकेले उसके अधिकार में ही उस समय चार हजार दास थे। शीघ्र ही इतालवी ग्राम समुदायों में दासों का बहुमत हो गया। नगरों में भी दासों का घरेलू कार्यों के लिए रखा जाता था। रोमन नागरिकों के मनोंजनार्थ दास योद्धाओं-ग्लैडियेटर्स-को कवचहीन स्थिति में शस्त्रयुद्ध करना पड़ता था। इस युद्ध में मृत्यु हो जाना साधारण घटना थी।
    जब रोमन साम्राज्य में बहुसंख्यक दासों पर होनेवाला दुस्सह अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुँच गया तो इटली तथा सिसली के ग्रामीण क्षेत्रों में दासविद्रोहों का सिलसिला शु डिग्री हो गया। सबसे प्रबल दास विद्रोह ई.पू. 73 के करीब ग्लैडियेटर्स के वीर नेता स्पार्टाकस के नेतृत्व में हुआ।(इसपर एक फिल्म भी बना है जिसे निचे लिंक से देख सकते  है) विद्रोही दास सेनाओं का आकार निरंतर बढ़ता गया और एक समय तो समस्त दक्षिणी इटली दासों के हाथ में चला गया था। रोमन साम्राज्य के अंतिम चरण में जब साम्राज्य प्रसार रुक गया तो नए दासों का प्राप्त होना बंद हो गया। फलत: रोमन दासों की स्थिति भी सुधरने लगी। दासता के स्थान पर अर्ध-दासता बढ़ने लगी। रोमन साम्राज्य तथा व्यवस्था की अस्थिरता एव पतन का एक प्रधान कारण दासप्रथा थी। बहुसंख्यक दासों का अपने शोषण और उत्पीड़न पर खड़ी व्यवस्था से कोई लगाव न होना स्वाभाविक था। ऐसी स्थिति में रोमन व्यवस्था की जड़ें सामाजिक दृष्टि से अधिक पुष्ट न हो सकीं।

    यूनान 

    यूनानी इतिहास के प्राचीनतम स्त्रोतों में दासव्यवस्था के अस्तित्व का वर्णन प्राप्त होता है। यूनान के आदि कवि होमर (ई.पू. 900 के करीब) के महाकाव्यों - ओडिसी तथा इलियड - में दासता के अस्तित्व तथा उससे उत्पन्न नैतिक पतन का उल्लेख है। ई.पू. 800 के पश्चात् यूनानी उपनिवेशों की स्थापना तथा उद्योगों के विकास के कारण दासों की माँग तथा पूर्ति में अभिवृद्धि हुई। दासों की प्राप्ति का प्रधान स्रोत था युद्ध में प्राप्त बंदी किंतु मातापिता द्वारा संतानविक्रय, अपहरण तथा संगठित दासबाजारों से क्रय द्वारा भी दास प्राप्त होते थे। जो ऋणग्रस्त व्यक्ति अपना ऋण अदा करने में असमर्थ हो जाते थे, उन्हें भी कभी कभी इसकी अदायगी के लिए दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। एथेंस, साइप्रस तथा सेमोस के दासबाजारों में एशियाई, अफ्रीकी अथवा यूरोपीय दासों का क्रय विक्रय होता था। घरेलू कार्यों अथवा कृषि तथा उद्योग धंधों संबंधी कार्यों के लिए दास रखे जाते थे। दास अपने स्वामी की निजी सपत्ति समझा जाता था और संपत्ति की भाँति ही उसका क्रय विक्रय हो सकता था। कभी कभी स्वामी प्रसन्न होकर स्वेच्छा से दास को मुक्त भी कर देते थे और यदाकदा दास अपनी स्वतंत्रता का क्रय स्वयं भी कर लेता था।
    यूनान में दास बहुत बड़ी संख्या में थे और ऐसा अनुमान है कि एथेंस में दासों की संख्या स्वतंत्र नागरिकों से भी अधिक थी। दासों तथा नागरिकों के भेद का आधार प्रजाति न होकर सामाजिक स्थिति थी। प्राय: सभी यूनानी विचारकों ने दासता पर अपने मत प्रकट किए हैं। अरस्तू के अनुसार दासता स्वामी तथा दास दोनों के लिए हितकर है किंतु अफलातून ने दासता का विरोध किया था क्योंकि इसे वह अनैतिक समझता था।

    आधुनिक युग

    पश्चिमी सभ्यता के आधुनिक युग में पदार्पण करने पर एक बार फिर रोमन युग की तरह दासता का प्रसार तब बढ़ा जब साहसिक यूरोपीय नाविकों ने अमरीकी महाद्वीपों की खोज की तथा उपनिवेशों की नींव रखी। नई दुनिया के पश्चिमी द्वीपसमूह, मैक्सिका, पेरू, ब्राजील आदि देशों में उत्पादित गन्ने, कपास, तंबाकू जैसी वस्तुओं की माँग यूरोप में होने लगी। इन वस्तुओं का सबसे सस्ता उत्पादन दास की मेहनत के आधार पर होता था। स्पेन के तत्वावधान में सर्वप्रथम नई दुनिया की खोज करनेवाले कोलंबस ने स्वयं ही पश्चिमी द्वीपसमूहों के मूलवासियों को दास बनाना प्रारंभ किया था। तदुपरांत इन यूरोपीय उपनिवेशों की धरती के पुत्रों की जो दुर्दशा दासों के रूप में की गई उसका कुछ अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि स्पेन के औपनिवेशिक युग का अंत होते होते पश्चिमी द्वीपसमूहों के कैरिबी मूल निवासियों का नामोनिशान मिट चुका था। उधर दक्षिणी अमरीका के ब्राजील आदि देशें में पुर्तगालियों ने बड़े पैमाने में व्यापार चलाया। ख्रिस्तानी यूरोपीय "सभ्यों" के अनुसार "असभ्य" मूल निवासियों को "सच्चे धर्म" में दीक्षित कर सभ्य बनाने का एकमात्र मार्ग उन्हें दास बना लेना था और सभ्य बनाने की इस प्रक्रिया में सब कुछ क्षम्य था।

    अन्य जानकारी 

    पूरी दुनिया में आज भी दास प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की ख़रीद-फ़रोख्त की जाती है। इन ग़ुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया जाता है। इसके अलावा ग़ुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। ग़ुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं।

     टॉप टेन गुलामो वाला देश 

    नंबर 1, भारत

    दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में एक करोड़ 83 लाख लोग गुलाम हैं. ये भारत की कुल आबादी का 1.4 

    फीसदी है.


    नंबर 2, चीन

    दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन में 33 लाख गुलाम हैं. आबादी के लिहाज से 0.247 फीसदी.


    नंबर 3, पाकिस्तान

    देश की 1.13 फीसदी आबादी यानी करीब 21 लाख 34 हजार लोग गुलाम हैं.


    नंबर 4, बांग्लादेश


    भारत के इस पड़ोसी देश में 15 लाख 31 हजार लोग गुलाम हैं. यहां गुलामों की संख्या में बीते एक साल में 

    काफी ज्यादा इजाफा हुआ है.

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    नंबर 5, उज्बेकिस्तान

    यह देश 12 लाख से ज्यादा गुलामों का घर बन चुका है.


    नंबर 6 उत्तर कोरिया

    परमाणु हथियार जुटाने में लगे देश में गुलामों की संख्या भी अच्छी खासी है. यहां कुल 11 लाख लोग गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हैं.


    नंबर 7, रूस

    दुनिया की ताकत बनने को लड़ते रूस में 10 लाख गुलाम हैं.


    नंबर 8, नाइजीरिया

    यहां 8 लाख 75 हजार गुलाम हैं.
    2017 में कहां कितने गुलाम

    नंबर 9, डीआर कांगो

    इस अफ्रीकी देश में एक साल के भीतर दासों की संख्या दोगुनी हो गई है अब यहां 8 लाख से ज्यादा गुलाम हैं.
    नंबर 10, इंडोनेशिया

    इंडोनेशिया में सात लाख से ज्यादा लोग गुलाम हैं. यह शीर्ष के 10 देशों में इसी साल शामिल हुआ है. 2017 में कहां कितने गुलाम



    दुनिया के ऐसे ही कुछ मशहूर दासों के बारे में–

    स्पार्टाकस

    स्पार्टाकस एक डकैत था.
    सरकार ने स्पार्टाकस को हिरासत में ले लिया था और उसके बाद उसे दास के रूप में बेच दिया. वह एक ग्लेडियेटर स्कूल में अपनी सेवाएं दिया करता था, लेकिन वह थोड़े समय में ही वहां से भाग गया. उसे जबरन दास प्रथा रास नहीं आई और वह इसे खत्म करना चाहता था. उसने कई ग्लेडियेटर्स को भी अपने साथ कर लिया था. उसने अपने जैसे कई और भागे हुए दासों को इकठ्ठा किया और खुद की एक विशाल 90,000 सैनिकों की सेना बनाई.उसकी सेना में अधिकतर संख्या उन दासों की थी जो इस प्रथा को खत्म करने में लगे हुए थे. वह अपनी सेना लेकर सीधा रोमन सेना पर आक्रमण करने पहुँच गया. स्पार्टाकस का यह दाव काफी सफल भी रहा. दो हिस्सों में उसने रोमन सेना को हरा दिया और इटली के एक बड़े हिस्से पर अपना राज शुरू कर दिया.
    इसके बाद वह उत्तर की तरफ अपनी सेना लेकर गया कुछ दासों को आजादी दिलाने के लिए, लेकिन उन सभी ने स्पार्टाकस के साथ आने से मना कर दिया. उसके बाद स्पार्टाकस दक्षिण की तरफ निकला सिसिली पर हमला करने पर इस बार वह जीत हासिल नहीं कर पाया.
    अपनी सेना के साथ स्पार्टाकस भी उस जंग में मारा गया पर उसका नाम इतिहास में दर्ज हो गया.

    ईसप

    आज से कई सौ सालों पहले प्राचीन यूनान में एक लेखक हुआ करता थ ा जिसका नाम था ईसप.
    लेखक होने के बाद भी वह एक दास था जो एक राजा के सलाहकार के रूप में अपनी सेवाएं दिया करता था. ईसप लेखक तो जरूर था पर उसने अपनी कहानियां कभी भी लिख कर संरक्षित करनी नहीं चाही. वह हमेशा ही लोगों को अपनी कहानियाँ मुंह जबानी सुनाया करता था.
    कहते हैं कि ईसप की कहानियों के पात्र अक्सर तेज दिमाग वाले जानवर और बेवकूफ इंसान होते थे.
    ईसप को दास की जिंदगी से उसकी कहानियों ने ही निजात दिलाया. माना जाता है कि उस समय में ईसप की कहानियों के लोग दीवाने हुआ करते थे. अपनी कहानियों के जरिए कई बार वह बहुत से गंभीर मुद्दों को भी उठाता था जिसके कारण उसे कई बार परेशानी में भी फंसना पड़ता था.
    कहते हैं कि ईसप की कहानियों से खुश हो के ही उसके मालिक ने उसे दास की जिंदगी से आजाद कर दिया. ऐसी धारणाएं हैं कि ईसप अपनी पूरी जिंदगी में कई बार फंसा, लेकिन हर बार उसकी कहानियों ने उसे बचा लिया.
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    Aesop (Pic: sundayobserver)

    सेंट पैट्रिक

    सेंट पैट्रिक का जन्म ब्रिटेन में लगभग 390 ई.पू. हुआ था. सेंट पैट्रिक जब पैदा हुआ था उस समय दासों की प्रथा आम बात हुआ करती थी. माना जाता है कि सैंट पैट्रिक की ईसाई धर्म में कोई खास रूचि नहीं थी.
    जब वह 16 साल का हुआ तो उसकी दुनिया एक दम बदल गई क्योंकि उसका अपहरण कर लिया गया था. अपहरण के बाद लगभग 7 साल तक वह आयरलैंड के पहाड़ी इलाकों में एक गुलाम के रूप में अपनी जिंदगी व्यतीत करता रहा.
    दास की जिंदगी इतनी कठिन थी कि सैंट पैट्रिक को भगवान पर विश्वास होने लगा. वह पूरी तरह से धार्मिक राह पर चलने लगा. कहते हैं कि उसे सपने में एक आवाज सुनाई देती थी. उस आवाज ने ही पैट्रिक से कहा कि उसे वापस अपने घर की ओर भाग जाना चाहिए. आखिर में उसने ऐसा ही किया और वह समुद्री लुटेरों के एक जहाज पर छिप कर वापस अपने घर चला गया अपने परिवार के पास.
    पैट्रिक वापस आया ही था कि उसे वह आवाज फिर सुनाई दी और उसने कहा कि आयरलैंड जाके आयरिश लोगों को ईसाई धर्म से रूबरू करवाओ. पेट्रिक ने एक बार फिर उसे आवाज की बात मानी और अपनी पूरी जिंदगी आयरलैंड में ईसाई धर्म फैलाने में लगा दी.
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    Saint Patrick (Pic: funcoolfacts)

    फ्रेडरिक डगलस

    फ्रेडरिक डगलस का जन्म 1818 के आसपास  मैरीलैंड में हुआ था. वह अपने जन्म के साथ ही एक गुलाम थे पर जब वह धीरे-धीरे बड़े हुए तो उनका नाम दासों में नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों के बीच आने लगा. वह राष्ट्रपति के सलाहकार हुआ करते थे.
    फ्रेडरिक कभी एक आयरिश परिवार के दास हुआ करते थे. उन्होंने अपने जीवन में बहुत कठिनाई देखी हुई थी. जैसे ही गृह युद्ध छिड़ा और दास प्रथा खत्म हुई फ्रेडरिक ने अपनी एक नई जिंदगी शुरू कर दी. उन्होंने अपनी दास की दर्दनाक जिंदगी को कागज़ पर उतार दिया जिसने उन्हें इतना प्रसिद्ध कर दिया कि वह सबके लिए खास हो गए.
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    Frederick Douglass (Pic: steller)

    नेट टर्नर

    नेट टर्नर भी एक ब्लैक अमेरिकी गुलाम था, जिसने यू.एस के इतिहास में निरंतर दास विद्रोह किया. नेट टर्नर का जन्म  वर्जीनिया में हुआ था. नेट टर्नर को बचपन में दास-प्रथा के चलते तीन बार बेचा गया था और आखिरी में उसको जॉन ट्रेविस 1820 ने किराए पर लिया. काफी समय तक फिर नेट उसी के पास काम करता रहा. आगे चलकर नेट टर्नर अफ्रीकी-अमेरिकी दासों का नेता बन गया.
    नेट चाहते थे कि अमेरिका से दास प्रथा किसी भी तरह खत्म हो जाए. अपने इस सपने के लिए उन्होंने कई अमेरिकी गोरों से पंगा भी लिया जिसके चलते उनके कई साथियों की मौत भी हुई. जाना का खतरा तो नेट पर भी कई बार आया, लेकिन वह डटे रहे और अपने हक के लिए लड़ते रहे.
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    Nat Turner (Pic: medium)

    एना जे.कूपर

    एना जे कूपर एक अमेरिकी शिक्षिका और लेखक थी.
    उनको अफ्रीकी अमेरिकी महिलाओं के लिए किये गए कामों के लिए जाना जाता है . एना जन्म से एक दास थी, लेकिन उन्होंने बहुत कोशिशों के बाद अपनी दास की नौकरी से छुटकारा पा ही लिया.
    खुद दास प्रथा से बच जाने के बाद भी एना रुकी नहीं और बाकी अफ्रीकी महिलाओं को बचाने में लग गई. उनकी पहली पुस्तक ‘वॉयस फॉर द साउथ: बाय ए वूमन फ्रॉम दे साउथ’ की काफी आलोचना हुई. क्योंकि उनकी किताब में जिक्र था कि आखिर काली महिलाओं पर अत्याचार हुआ करते थे.
    उनकी किताब ने ब्लैक महिलाओं की गुलामी और नस्लवाद के प्रति जागरूकता पैदा की. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी दास और महिलाओं के लिए नागरिक आंदोलन किये.
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    Anna J. Cooper (Pic: pinterest)
    यह थे कुछ वह दास जिन्होंने अपने बलबूते अपनी दास की जिंदगी को पीछे छोड़ा और नई जिंदगी की ओर कदम रखा.
    Web Title: Famous Slaves In World History, Hindi Article
    Featured image credit: biography/mountainx/libcom
    प्रतिबंध 
    सन 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन क़ानून के तहत अपने देश में अफ़्रीकी ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख्त पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी। 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने ग़ुलामों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। वर्ष 1833 तक यह क़ानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। भारत में ब्रिटिश शासन के समय 1843 ई. में इस प्रथा को बन्द करने के लिए एक अधिनियम पारित कर दिया गया था।  पश्चिम में दासप्रथा उन्मूलन संबंधी वातावरण 18वीं शती में बनने लगा था। अमरीकी स्वातंत्र्य युद्ध का एक प्रमुख नारा मनुष्य की स्वतंत्रता था और फलस्वरूप संयुक्त राज्य के उत्तरी राज्यों में सन् 1804 तक दासता विरोधी वातावरण बनाने में मानवीय मूल अधिकारों पर घोर निष्ठा रखनेवाली फ्रांसीसी राज्य क्रांति का अधिक महत्व है। उस महान क्रांति से प्रेरणा पाकर सन् 1821 में सांतो दोमिंगो में स्पेन के विरुद्ध विद्रोह हुआ और हाईती के हब्शी गणराज्य की स्थापना हुई। अमरीकी महाद्वीपों के सभी देशों में दासता विरोधी आंदोलन प्रबल होने लगा।
    संयुक्त राज्य अमरीका के उदार वादी उत्तर राज्यों में दासता का विरोध जितना प्रबल होता गया उतनी ही प्रतिक्रियावादी दक्षिण के दास राज्यों में दासों के प्रति कठोरता बरती जाने लगी तथा यह तनाव इतना बढ़ा कि अंतत: उत्तरी तथा दक्षिणी राज्यों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में दासविरोधी एकतावादी उत्तरी राज्यों की विजय हुई। सन् 1888 के अधिनियम के अनुसार संयुक्त राज्य में दासता पर खड़े पुर्तगाली ब्राजील साम्राज्य का पतन हुआ। शनै: शनै: अमरीकी महाद्वीपों के सभी देशों से दासता का उन्मूलन होने लगा। 1890 में ब्रसेल्स के 18 देशों के सम्मेलन में हब्श दासों के समुद्री व्यापार को अवैधानिक घोषित किया गया। 1919 के सैंट जर्मेन संमेलन में तथा 1926 के लीग ऑव नेशंस के तत्वावधान में किए गए संमेलन में हर प्रकार की दासता तथा दास व्यापार के संपूर्ण उन्मूलन संबंधी प्रस्ताव पर सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए। ब्रिटिश अधिकृत प्रदेशों में सन् 1833 में दासप्रथा समाप्त कर दी गई और दासों को मुक्त करने के बदले में उनके मालिकों को दो करोड़ पौंड हर जाना दिया गया। अन्य देशों में कानूनन इसकी समाप्ति इन वर्षों में हुई - स्विडेन 1859, ब्राजिल 1871, अफ्रिकन संरक्षित राज्य 1897, 1901, फिलिपाइन 1902, अबीसीनिया 1921। इस प्रकार 20वीं शती में प्राय: सभी राष्ट्रों ने दासता को अमानवीय तथा अनैतिक संस्था मानकर उसके उन्मूलनार्थ कदम उठाए। संभवत: अफ्रीका में अंगोला जैसे पुर्तगाली उपनिवेशों की तरह के दो एक अपवादों को छोड़कर इस समय कहीं भी उस भयावह दास व्यवस्था का संस्थात्मक अस्तिव नहीं है जो आज की पाश्चत्य सभ्यता की समृद्धि तथा वैभव का एक प्रधान आधार रही है।


    संदर्भित सूचि:-
    wikipedia.org/

    bharatdiscovery.org

    unionpedia.org

    दास प्रथा एक घिनौना अतीत

    facebook.com/story

    गुलामी की चपेट

    www.prashnpatr.com



    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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