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माँ दन्तेश्वरी की कथा पर शोध,आर्यन चिराम [हल्बा समाज]maa danteshwari ki katha par shodh aaryan chiram[ halba samaj]

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    दन्तेश्वरी की कथा पर शोध की आवश्यकता



































    मां दन्तेश्वरी की किवंन्दती 

    कौन सी सही व कौन सी केवल कहानी मात्र है। अभी वर्तमान में कहना कठिन है
    क्योकि कोई सा भी किवंन्दती की ठोस सबुत नही है। जिसके चलते विद्वानों में मतभेद की स्थिति है।

    एैसा भी माना जाता है। कि मां दन्तेश्वरी नेताम बेटी है। यह महज कल्पना ही मालूम पडता हैं कौन सी बात मे कितनी सच्चाई है। इसलिए शोध की अति आवश्यक है। ताकि मतभेद दुर हो और दुध का दुध और पानी का पानी हो जायें

    बस्तर अंचल के मां दन्तेश्वरी की मंदिर और मां दन्तेश्वरी की जानकारी और उस पर शोध की बहुत ही जरूरी महसुस हो रही है।

    प्रथम किवंन्दती

    बस्तरांचल में जगदुगुडा,जगदलपुर बचेली मार्ग पर दन्तेवाडा,तारलागुडा ग्राम है।जहां वेनदाई दन्तेश्वरी का मंदिर है। यहां फागुन में मेला लगता है। जिसमें बस्तर अंचल के कोया,कोयतूर समाज कंवर उराव

    ,हल्बा भतरा,दोरला धुरवा गोंड आदि जाति गोंडवाना के गण अलग अलग समुहो मे विभक्त होकर भी सामूहिक रूप से एक स्थल में आकर अपने वेनदाई की पूजा पाठ करतें ​है।गोण्डवाना के जीव गण जीवित अवस्था


    में वेन रूप और मृत्यु हो जाने पर पेन रूप अर्थात देव रूप या लिंगो वासी हो गए कहा जाता है।
    यहां डंकनी और शंकनी नदी के संगम पर ही मां दन्तेश्वरी का मंदिर है।बस्तर अंचल के लोगो का विश्वास हैं । तथा इसको शक्ति पीठ के रूप में माना जाता है।


    तथा बस्तर अंचल के दन्तेवाडा को अघोरियो का डेरा या अघोरी विद्या का केन्द्र माना जाता है। जनश्रुती के अनुसार दन्तेवाडा यह अघोरी पंथ के नियामक भैरव बाबा का शव साधना स्थल माना जाता है। Tumesh chiram   प्राचीन काल में पंच खंण्ड धरती के सवलालु
    ,66वां संभु का यहां निवास स्थान था।जो अघोरी विद्या के अधिष्ठाता थे। उनकी अर्धागंनी का नाम वेनअवाल था, जिसे बस्तर अंचल में वेनदाई कहा जाता है।


    अघोरी विद्या के शव साधक इसी स्थल पर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। सवसालु
    , संभु भैरव  बाबा से तंत्र मंत्र सीख लेकर दीक्षा लिया करते थे ।

    वेनदाई दन्तेश्वरी की आवास दन्तेवाडा से सवसालु संभु भैरव बाबा का आवास भैरमगढ़ मात्र बीस कि.मी अंन्तराल में है। जनश्रुतीयां भी वेनदाई दन्तेवाड़ीन को भैरव बाबा की सहधर्मिनी कहती है। संबंधो के अन्वेषण में आवासों की दूरियां अनेक प्रश्नो को जन्म देती है। वही तथ्यों के समर्थन में अनेक कथा सूत्र दृष्टिगोचर होते है। श्रध्दालूओ ने भी शंकनी नदी के उस पार भैरव बाबा,महादेव का देवालय स्थापिर किया हुआ है। जो भी हो, तथ्य यही है। कि भैरव बाबा और वेनदाई पति पत्नि थें। शंकनीडंकनी का बीहड जंगल साल, बीजा, सगौन,के उंचे उंचे पेड़ चार, महुआ, बेल,तेन्दु के फलदार वृक्ष ,वन कन्दों की बेलें एंव कटीली झाडियों में आच्छादित अंध विहड़ को तब सुर्य की किरणे भी भेद नही पाती थी। ऐसे घने अंधेरे में होती थी भैरव बाबा का शव साधना।

    हजारो शिष्य पाते थे। प्राकृतिक संबंधित मुर्त
    अमुर्त स्थानवार जंगम शक्तियों की शिक्षा और दिक्षा भैरव बाबा का यह क्षेत्र कोया वंशीय गण जीवो का शोध संस्थान था। इस कोया वंशीय गण जीवो की शिक्षा संस्थान में बस्तरांचल के हजारों गण भैरव बाबा और वेनदाई के शिष्य थे। सवसालु संभु भैरवबाबा शारीरिक संरचना के विशेषज्ञ थे। निरंतर शवशाधन कर वे ,,इल्हामाल,, मृत्युजयी हो चुके थे। तंत्रमंत्र साधित असाधारण मारक क्षमता प्राप्त कर वे ,,बरोआसरिया,,काल भैरव की उपाधि से विभूषित थे। तो वेनदाई दन्तेश्वरी ,,लेगुमाली,, वाणाीसिध्दी की दाई थी। तंत्र मंत्र की अनंत साधिका


    ,,आसरियाना आसरे,, भैरव की भैरवी थी। सम्पूर्ण बस्तरांचल काल भैरव और वेनदाई की महिमा से मंण्डित हो चुका था जहां तहां उनके शिष्य भैरव की पदवियां प्राप्त कर बिखरे हुऐ थे। पाट भैरव, घाट भैरव,मटकुल भैरव आदि प्रमुख है। एैसा कहा जाता है। कि शव साधना मुक्त काल में काल भैरव अपनी भैरवी को साथ लेकर शंकनीडंकनी के भयावह बीहड़ में स्वच्छंद रूप से वन विहार करते हुये एक दिन वन पुष्प गुच्छों से श्रृंगारित एंव परिरम्भित वेनदाई दन्तेश्वरी की रूप माधुरी का पान कर बाबा काल भैरव प्रणय अधीर हो गये थे। भैरव की अंत:दशा का अवलोकन कर वेनदाई


    दन्तेश्वरी आत्ममुग्ध हो चंचल हिरणी सी फुदक रही थी। तंत्र मंत्र
      एंव तंदरी जोग की अनन्त साधिका वेनदाई दन्तेश्वरी प्रणय की इस मधुर बेला में तंत्र


    मंत्र प्रयोग से बाज नही आ रही थी । विभिन्न पशु पक्षियों कारूप धारण र भैरव के आगे पीछे घुमती कभी विलुप्त हो जाती ।कभी भैरव पर चंचल चितवन फेक अल्प कटाक्ष करती
    , तो कभी झाडियों में समा जाति प्रण्यातूर भैरव असमय इस परिहास से खिन्न होकर वेनदाई के पीछे कष्टसाध्य परिश्रम करते रहें।अंत में थक हार कर भैरव बाबा डंकनी शंकनी के मध्य स्थित विशालकाय शिलाखण्ड पर खडें होकर अधीर भाव से वेनदाई दन्तेश्वरी को पुकारने लगें। भैरव बाबा का इस तरह अ​धिरता युक्त प्रणय निवेदन


    करते देखा
    , वेनदाई दन्तेश्वरी ने छ: वर्षीय की अबोध बालिका कारूप धारण किया और शंकनी डंकनी के मघ्य भैरव के सामने खेलने लगी । Tumesh chiram   भैरव बाबा क्रोधाग्नि से उबल पडे क्रोधाग्नि के तेज से शिलाखण्ड पृथ्वी तल पर धसने


    लगी क्रोध ने विवेक को हर लिया था। वेनदाई दन्तेश्वरी की असहय धृतष्ट व्यवहार से विक्षुप्त भैरव बाबा ने डंकनी शंकनी की प्रवाहित जलधारा को अंजली में भर कर उसे अभिमंत्रित कर वेनदाई पर उछाल दिया और कहा
    ,,आज से तु सर्व काल छ:वर्ष की अबोध बालिका ही बनी रहेगी।,,एैसा शापित कर दिया कुपित

    अवस्था में जिस शिलाखण्ड पर भैरव बाबा बैठे थे ।उस पर आज भी भैरव बाबा के पदचिन्ह स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। वेनदाई को श्रापित कर क्रोध से भैरव बाबा एक दिशा में आगें बढ़ गयें औश्र भैरव कुटी मे जाकर स्थानापन्न हा गये। उसी स्थल पर आज भैरमगढ़ बसा हुआ है।


    बाबा की स्मृति मे भैरमगढ की स्थापना शिष्यों ने किया है।भैरव बाब की चमत्कारिक शक्ति से भिज्ञ श्रध्दालु गण शक्ति साधना हुतु भैरमगढ को श्रध्दा से वंदन कर मनौती लेते है।उधर अभिशप्त वेनदाई दन्तेश्वरी छ:वर्ष की बालिका बनकर बीहड में बसहाय भटकती रही कहा जाता है।


    कि वन भ्रमण करते समय उसकी भेंट अपने कोयतुर दाउ दाई से हुई। वे वेनदाई को नही पहचान पाये क्योकि वेनदाई छ: वर्ष की बालिका के स्वरूप में ​थी। उसने अपने पुरी कहानी अपने दाउ दाई को कह सुनाई
     उनके दाउ दाई द्रवित होकर उसे अपने आश्रय में ​ले


    लिये ।जब वेनदाई की विवाह हुआ था। तब उसके दाउ दाई बहुत निर्धन थे। किन्तु जैसे ही उनके घर में वेनदाई का पुन:आगमन हुआ वे धन धान्य से परिपुर्ण हो गयें।एंव वैभव सम्पन्न हुए सुख शांति का वातावरण बना उसके माता पिता वृध्दावस्था में पहुंच गयें ।किन्तु वेनदाई छ:


    वर्ष की अबोध बालिका ही रही उसका शारिरीक विकास अवरूध्द हो चुका था। वेनदाई कष्टसाध्य दायरे मे सीमटकर तड़प रही थी नित्य भैरव बाबा का आराधना करती थी पर मुक्ति का कोई मार्ग प्रशस्त नही हो रहा था। वह अपने कृत्यो पर पश्चाताप कर रही थी। कालांतर एक दिन एक चुडी बेचने वाली दम्पती चुडी बेचते हुए बाल देवी वेनदाई के दर्शन हेतु पहुंची वेनदाई का बाल मन खिल उठा सुंन्दर सुंदर चुड़िया देख मन ललक उठा।देवी की आंतरिक मन भापकर चुडी बेचने वाले

    दम्पती ने चुडिंया समर्पित करना चाहा किन्तु आश्चर्य की बात यह हुई की एक भी चुडी वेनदाई की हाथ मे नही पहनायी जा सकी सभी चुडिया टूट टूट कर बिखर गया देखते देखते ​चुडिया से भरा टोकरा खाली हो गया। तथा टूटी चूडियों का ढेर हो गया। चुडियों वानी दम्पति की स्थिति दयनीय हो गयी वे आश्चर्य में पड़ गये। जन श्रुतियो से पता चलता है।


    कि तब कोई कृषक रूप में व्यक्ति भीड़ को चिरते हुए आया।उसके हाथमें मदार की एक टहनी थी ।जिसमें मदार की पुष्प गुच्छ था ।

    वेनदाई को समदृष्टि होते ही हल्की मुस्कान के साथ मदार की टहनी उसने बाल देवी वेनदाई को समर्पित किया, और थोडा रूकने के पश्चात उल्टे पांव वापस हो गया, वेनदाई दन्तेश्वरी ने मदार के पुष्प को हृदय से लगा लिया और वह शुन्य गगन को ताकने लगी ।वेनदाई समझ गयी थी


    की जो मदार के पुष्प लाया है। वह कौन है
    ? वे और कोई नही भैरव बाबा था  जो रूप बदलकर वेनदाई को श्राप से मुक्त करने आया था।कोयतुर गण मे एैसी मान्यता है।कि अभिशप्त ​व्यक्ति को मदार फुल देने से श्राप से मुक्त हो जाता है। इस तरह वेनदाई समझ गई थी की वह भैरव बाबा के श्राप से मुक्त हो चुकी है।वेनदाई को उसकी सभी शक्ति पुन: प्राप्त हो चुकी थी।


    ठीक उसी वक्त अने नन्हे हाथो से उसने टूटी हुई चुडीयों को हाथ ​लगाई।वे सारी टूटी चुडियां स्वर्ण तारों में परिणित हो गया यह देखकर सभी गण आश्चर्य एवं हर्ष विभोर हो गये। वे सभी वेनदाई दन्तेश्वरी की जय जयकार करने लगे जयकार की इस गुंज की बीच मां दन्तेश्वरी विलुप्त हो गई तब वहां पर उपस्थित लोग एक दुसरे को पुछने लगे
    ,,बेगा दांतोनबेगा दांतोन ,, अर्थात  कहां गर्ई कहां गई कोई कहने लगा ,,दान्तेवाडिन दान्तेवाडिन अर्थात


    चली गई चली गई
    । लोग उसी स्थल पर जमे रहे कि वेनदाई आयेगी सोचकर
    , उनका विश्वास पक्का था कि वेनदाई दन्तेश्वरी जरूर आयेगी रात्रि की कालिमा छाने लगे पर लोग टस से मस न हुए । रात्रि पुरी तरह फैल जाने के पश्चात लोगो के इस विश्वास ने उन्हे चौका दिया।


    अचानक वातावरण मे एक अजब सा सुगंध बिखर गया मंद मंद शीतल पवन के स्पर्श उनके अंग अंग रोमांचित करने लगा। ध्रालत पर हल्का सा कंपन महसुस हुआ धम
    धम जैसे कोई चल रहा हो एैसा आवाज आने लगा साथ ही साथ रूनझुन रूनझुन की आवाजे सुनाई देने लगी सभी लोग मंत्र मुग्ध होकर वे सम्मोहन अवस्था में आवाज के दिशा में अने आप बढने लगें धमधम रूनझुन रूनझुन की आवाज आगे आगे लोग पिछे पिछे लोग चलते चलते डंकनी शंकनी तक आ पहुंचे वे बहुत थक चुके थें। वे डंकनी शंकनी के स्वर्ण रेत पर खडें होकर एक दुसरे को ताक रहे थे। वे अंतिम श्वास की पुरी शक्ति लगाकर चीख उठे बंगा दांते बगा दांते । पीछे से मधुर स्वर में रूनझुन रूनझुन की आवाज पुन: सुनाई पडने लगा लोग पुन: उत्साहित हो उठें ।व चल पडे किन्तु तब तक सुबह का लालिमा चारो

    दिशा में फैल चुका था। और वे तथा वे सब डंकनी शंकनी के एक टापू में एक मूर्तिमान शिलाखण्ड के समक्ष कुछ मदार के पुष्प बिखरें पडे थे। ​कीर्ति ध्वज लहरा रहा था । और आवाज वही से आ रही थी जिस पर वरूण की रक्ताम्बर आभा चमक रहा था।


    तब से वेनदाई यही बस गयी ।उसे दांते वाडिन कहा जाने लगा कालांतर मे उसे दन्तेवाडा कहा जाता है।

    यह जानकारी निम्न ग्रंथ से लिया गया है।

    गोंडवाना दर्शन पत्रिका मई 1995 पृ 15—19 शुभम नेताम
    बस्तर का इतिहास एंव संस्कृति पृ 102—111
    गोंडों का मूल निवास स्थल परिचय
    यह पाम्पलेट से लिया गया जानकारी है। जिसे एम्बस संगठन ने प्रकाशित करवाया है।

    इसमे आदिवासी संस्कृति को हिन्दु संस्कृति से इतना दुर बताया गया है। कि एक पूर्व तो दुसरा पश्चिम जिसका मिलन कभी संम्भव ही नही है।


    पर लाला जगदलपुरी की वही पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में पृष्ट क्रमांक 106 में  यह कहा गया है। कि लिंगोपेन और कोई नही भगवान श्री लिंगराज अथवा नटराज ही है। संकलनकर्ताओ ने इस बात को नही बताया है। और सामान्य हिन्दु संस्कृति मे नटराज को भगवान शिव का रूद्र रूप तांडव रूप में दर्शाया जाता है।
    और 

    दुसरी हिन्दु कथा

     में इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
     'बस्तर 'की कुल देवी के दंतेश्वरी देवी के मंदिर के बारे में-:सम्बंधित पौराणिक कथा-कहा जाता है कि सती पार्वती ने अपने पिता द्वारा अपने पति, भगवान शिव काअपमान किए जाने पर हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी. भगवान शिव को आने में थोड़ी देर हो गई, तब तक उनकी अर्धांगिनी का शरीर जल चुका था. उन्होंने सती का शरीर आग से निकाला और तांडव

    नृत्य आरंभ कर दिया. अन्य देवता
    गण उनका नृत्य रोकना चाहते थे, अत: उन्होंने भगवान विष्णु से शिव को मनाने का आग्रह किया. भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए और भगवान शिव ने नृत्य रोक दिया.कहा जाता है कि डंकिनी-शंखनी नदी के तट पर परम दयालु माता सती का दांत वहां गिरा था और यह जगह एक शक्तिपीठ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया और दंतेश्वरी माता


    के रूप में देवी को यहाँ पूजा जाने लगा.इसी मंदिर से सम्बंधित बस्तर के राजा की एक कहानी और सुनिए--बस्तर के राजा अन्नमदेव वारांगल
    , आंध्रप्रदेश से अपनी विजय के बाद बस्तर की ओर बढ रहे थे साथ में मॉं दंतेश्वरी का आशिर्वाद था . गढों पर कब्जा करते हुए बढते अन्नमदेव को माता दंतेश्वरी नें वरदान दिया था जब तक तुम पीछे मुड कर नहीं देखोगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगी . राजा अन्नमदेव बढते रहे, माता के पैरों की नूपूर की ध्वनि पीछे से आती रही, राजा का उत्साह बढता रहा .शंखिनी-डंकिनी नदी के तट पर विजय मार्ग पर बढते राजा अन्नमदेव के कानों में नूपूर की ध्वनि आनी अचानक बंद हो गई . वारांगल से पूरे बस्तर में अपना राज्य स्थापित करनेके समय तक महाप्रतापी राजा के कानों में गूंजती नूपूर ध्वनि के अचानक बंद हो जाने से राजा को वरदान की बात याद नही रही, राजा अन्नमदेव कौतूहलवश पीछे मुड कर देखा.माता का पांव शंखिनी-डंकिनी के रेतों में किंचित फंस गया था! अन्नमदेव को माता नें साक्षात दर्शन दिये पर वह स्वप्न सा ही था . माता ने उनसे कहा 'अन्नमदेव तुमने पीछे मुड कर देखा है, अब मैं जाती हूं . बस वहीँ 'डंकिनी-शंखनी' के तट पर माता सती के दंतपाल के गिरने वाले उक्त स्थान पर ही जागृत शक्तिपीठ, बस्तर के राजा अन्नमदेव ने अपनी अधिष्ठात्री मॉं दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया दिया .----------------------------ऐसा भी कहा जाता है कि यह नाम देवी का नया नाम है इनका पुराना नाम मानिकेश्वरी देवी था.-यह मंदिर चार भागों में है-गर्भ गृह,महा मंडप,मुख्य मंडप, और सभा मंडप..-पहले दो भाग पत्थर में बने हैं.यह मंदिर भी कई बार बनवाया गया है और वर्तमान स्वरुप ८००


    साल पुराना है.एक गरुड़ स्तम्भ भी मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने बाद में ही बनवाया गया था.यहाँ का ५०० साल से चलता आ रहा बस्तर दशेहरा मेला बहुत ही प्रसिद्द है.एक लकडी के रथ पर माता की कैनोपी को रख कर यहाँ की
    tribes के लोग खींचते हैं.

    ,,देवी भगवत,, में वर्णित ,दन्डकारण्य में सती देवी के गिरे दांतो से जुडे दन्त प्रधान प्रसंग का दण्डकारण्य के लाक मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा।

    ,,दुर्गा सप्तसती ,, में सन्दर्भित रक्त​दन्तिका या रक्तदन्ता मूल की एक सिंहवाहिनी अवतरित हुई सार्वजनीन आस्था ने उन्हे अपनी भावना के अनुरूप मूर्त कर लिया। दांतो वाली उन्ही रक्तदन्ता को इधर दन्तावला या दन्तेश्वरी के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।उनकी मुर्ति प्राथमिक रूप से श्रुति परम्परानुसार बारसुर में स्थापित की गयी थी।

    यह जानकारी संर्दिभित ग्रंथ बस्तर लोक कला संस्कृति के पृष्ट 9—11 में से लिया गया है। इसके लेखक एंव साहित्यकार  लाला जगदलपुरी जी है।

    अब यह तय करना कठिन है। कि कौन सी किव्ंदती सही वा सार्थक है। व कौन सी किवंन्दती केवल कहानी है।​ यह जब तक सिध्द नही हो सकती जब तक कोई ठोस सबुत नही मिल जाता। ठोस सबुत पाने वा जानने के लिए खोज व शोध की अति आवश्यक है। ​ताकि विद्वानों के मतों में जो भिन्नता है। या मतभेद की भावना है। उसे खत्म किया जा सके इसके लिए,


    इसका केवल एक ही हल दृष्टिगोचर होता है। सच्चाई की खोज
    , एंव शोध किवंदतीयों पर तर्क वितर्क की महत्ती आवश्यक है।। ताकि कहानी के पीछे जो सच्चाई है। वे सब के सामने आ सके वे केवल कहानी या किवन्दती के रूप में जनश्रुती ही न बनकर रह जाये इसलिए इस विषय पर शोध एक अकुल पुकार है।कि कौन सी किवंदती मे कितनी सच्चाई है। सब जान सकें। जय मां दन्तेवरी

    पर अगर आप इतिहास पर रुचि रखते है तो रिजल्ट और भी रोचक प्राप्त होगा 




    // लेखक // कवि // संपादक // प्रकाशक // सामाजिक कार्यकर्ता //

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