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मावली मेला (मावली माता) mavli mata

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    मावली माता मेला

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    मावली माता मेला नारायणपुर विशेष


    समूचे बस्तर में प्रसिद्ध इस मालवी मेला में ऐतिहासिकता व परम्परा के साथ आदिवासी संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। इस मावली मेला में क्षेत्र के लोग पूरी आस्था के साथ अपनी और आंगादेव के साथ सहभागिता निभाते हैं। इस दौरान अबूझमाड़ क्षेत्र के आदिम संस्कृति की भी अलग छटा देखने को मिलती है। नारायणपुर के ऐतिहासिक मावली मेला की ख्याति न केवल देश बल्कि विदेशों तक फैली हुई है। इसी के फलस्वरूप इस मावली मेला को देखने के लिए न केवल देश के विभिन्न प्रांतों से लोग आतेहै वरन् विदेशों से भी सैलानी मावलीमेला में आते हैं। Tumesh chiram   ज्ञात हो कि यह मावली मेला बहुत प्राचीन काल से लगातार भरता आ रहा है। 

    किवदंतियों के अनुसार 

    यह मेला आज से लगभग 800 वर्ष पूर्व से भी अधिक समय से आयोजित हो रहा है। सन् 1300 ई. के प्रारंभिक काल में पाण्डुवंशी राजा रूद्रप्रताप देव आंध्र प्रदेश के वारंगल रियासत से बारसूर आकर यहां के नागवंशीय राजाओं को युद्ध में परास्त कर बस्तर स्टेट के महाराजा की उपाधि प्राप्त की थी। इस समय उत्तर भारत में अलाउद्दीन खिलजी का शासन काल था। मेला लगने के पीछे एक ऐतिहासिक कारण रहा है। माँ दंतेश्वरी से विशाल भू-भाग के भूपति होने की प्रबल इच्छा राजा रूद्रप्रताप देव द्वारा जताई गयी, तब माँ दंतेश्वरी ने राजा को यह आशीर्वाद दिया कि- राज्य विस्तार के समय तुम आगे चलना, जहां-जहां तेरी इच्छा होगी राज्य विस्तार करते जाना, मैं तेरे पीछे-पीछे चलूंगी।  माँ दंतेश्वरी ने राजा से एक शर्त भी रखी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेगा। राजा ने देवी के आदेश को शिर्रोधार्य करते हुए बस्तर राज्य की सीमा को विस्तार करने के लिए जाते गये, चलते-चलते दक्षिण बस्तर के शंकनी-डंकनी नदी केरेत पर पहुंचते ही माँ दंतेश्वरी के पायल की आवाज नहीं आने से राजा को शंका हुई कि माँ कहीं ठहर तो नहीं गई ऐसा सोचकर राजा ने पलटकर देखा इस तरह राजा ने माँ के शर्त का पालन नहीं किया। माँ ने कहा राजा अब मैं तेरा राज्य विस्तार बंद कर रहीं हूँ, तुम बस्तर में 21 पीढ़ी तक एक छत्र राज्य करोगे। माँ ने कहा मैं इसी जगह पर निवास करूंगी, ऐसा कहकर माँ अंर्तध्यान हो गयी।राजा रूद्रप्रताप कुल देवी माँ दंतेश्वरी का एक भव्य मंदिर दंतेवाड़ा में बनवाया एवं बारसूर से नागवंशीय राजाओं द्वारा बनाये गये मंदिर के गरूड़ खंभ को उखाड़कर दंतेवाड़ा में माँ के मंदिर के सामनेगड़वाया जो वर्तमान में देखने लायक सिद्धपीठ मंदिर है। कुल देवी के प्रति राजा की असीम श्रद्धा थी, जिसके कारण कई बड़े गांवों जैसे छोटेडोंगर, नारायणपुर, परतापुर, परलकोट आदि प्रमुख गांवों में माँ दंतेश्वरी देवी की मंदिर बनवाकर मूर्ति की स्थापना की गई। प्रत्येक मंदिर में पुजारी नियुक्त करवाया गया हर मंदिर में वार्षिक मेला का भी शुभारंभ किया गया। इसी समय से लगभग 800 वर्ष पूर्व से नारायणपुर में मावली देवी का मेला भरते आ रहा है।नारायणपुर में राजा ने देवी के पुजारी के पद पर हल्बा जाति के पात्र गोत्र के हल्बाओं को नियुक्त किया। इस गोत्र के अंतिम पुजारी बहेटी पात्र व कृपाल पात्र दो भाई थे व देवी का मंदिर बाकुलवाही रोड़ किनारे गढ़गुडरा के ऊपर (वर्तमान में पहाड़ी मंदिर) था। पूर्व समय में बस्तर स्टेट सड़क विहीन था, बस्तर स्टेट के अधिकारी हाथी-घोड़े से क्षेत्रीय दौरा करते थे। नारायणपुर के मावली मेला के अवसर पर जीवनोपयोगी आवष्यक वस्तुएं जैसे सूत, कपड़ा, नारियल, सुपाड़ी, नमक, को व्यापारी बैलों की पीठ पर लादकर लाते थे जिससे यहां के रहवासी उनसे लेते थे।

    वार्षिक मावली मेला

     में ही व्यापारियों से कांसे, पीतल के बर्तन, कंबल सोना चांदी उपलब्ध होताथा।नारायणपुर में 1360 ई. के लगभग चंद्रवंशीय क्षत्रिय राजाओं का शासन काल था गढ़गुडरा के ऊपर राजा का किला पत्थरों से बना था एवं नीचे दुश्मनों से सुरक्षा के लिए घुमावदार गहरी खाई थी जहां सालभर पानी भरा रहता था। इस समय का साप्ताहिक बाजार चंडीबड़ कुम्हारापारा के आगे लगता था व वार्षिक मेला मावली देवी का मार्च में व शीतला देवी का अप्रैल में प्रतिवर्ष शीतला मंदिर प्रांगण से लेकर पाटदेव मंदिर तक भरता था।सन् 1872 में बस्तर के चौदहवें क्रम के महाराज दलपतदेव ने बस्तर ग्राम से राजधानी उठाकर जगदलपुर ले गया जहां एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया गयाजिसे आज भी दलपत सागर के नाम से जाना जाता है। इन्हीं के कार्यकाल में नारायणपुर का साप्ताहिक बाजार कुम्हारपारा चंडीबड़ से उठाकर बुधवारी बाजार (गढ़पारा) स्थल पर लगना प्रारंभ हुआ।मावली मेला प्रारंभ होने के तीन दिनपूर्व गढ़िया बाबा के मंदिर में रात को पूजा अर्चना नया सिरहा चढ़ाने का कार्यक्रम चलता है। प्रथम रात्रि को ही देव उतारना पूजा होती है इसी दिन मावली मेला व शीतला माता मेला के लिए काजल बनाया जाता है। काजल बनाये जाने की विधि बहुत ही गोपनीय है जिसे सार्वजनिक नहीं किया जाता। इस काजल को लोग बहुत पवित्र मानते हैं, मेला परिक्रमा दो बार होने पर आड़मावली पूजा स्थल में इस काजल को मस्तक पर लगाने की होड़ मच जाती है। मेले के दिन मावली मंदिर में सर्वप्रथम कोकड़ीकरिन देवी का आंगा कोकोड़ी ग्राम से आता है। दोपहर दो बजे शीतला मंदिर से शीतला देवी व सोनकुंवर देवता आते हैं, तत्पश्चात् मावली देवी दोनों सफेद- सफेद ध्वज के साथ सभी देवी देवतागण आंगा देव बुधवारी बाजार (देवी-देवतासंगम स्थल) में पहुंचते हैं। इसके पश्चात् ही मावली देवी का निमंत्रण लेकर सोनकुंवर देवता नगाड़ा के साथ गढ़िया मंदिर पहुंचते हैं, तब पांच पांडव व पांचाली सती सिरहाओं में चढ़नी कर बुधवारी बाजार पहुंचता है। जिस सिरहा पर भंवरदेवता (साकरराव) चढ़नी करता है इनके दोनों पैरों में लोहे की बेड़ी लगाये बगैर खड़ी नहीं रह सकती। Tumesh chiram   फिर सभी देवी-देवता भेंट कर मावली देवी के दोनों श्वेत ध्वज सती देवी व सोनकुंवर देवता के अनुवानी में लगभग तीन बजे दोपहर को जुलूस के रूप में मेला परिक्रमा हेतु बुधवारी बाजार में प्रस्थान करते हैं। मेले की दो परिक्रमा के बाद मेला स्थल के पूजा स्थान (अड़मावली) में कुछ देर रूककर नाच-गान, उछल-कूद कर फिर वापस एक उल्टा परिक्रमा लगाकर पुनः बुधवारीबाजार वापस आते हैं। यहीं देवी देवताओं को श्रीफल आदि देकर स-सम्मान बिदाई दी जाती है और वे अपने गंतव्य की ओर चले जाते हैं। मावली देवी का झुंड मावली मंदिर मेंपुनः वापस आ जाती है। मेला परिक्रमाके पूर्व रात्रि के 12 से 4 बजे के बीच गढ़िया बाबा के पुजारी द्वारा मेला स्थल में माँ मावली की विशेष पूजा की जाती है।

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