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हल्बा संस्कृति |
संस्कृति :-
किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्ररूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने,नृत्य,गायन,साहित्य,कला,वास्तुआदि में परिलक्षित होती है।
संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है।‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)।
जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है।अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषाके ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’।संस्कृति का शब्दार्थ है
-उत्तम या सुधरी हुई स्थिति।मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है।सभ्यता(Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता।
वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वहसंगीत,साहित्य,मूर्ति,चित्र और भी
वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।संस्कृति की अवधारणा संस्कृति जीवन की विधि है। जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहाते हैं;
तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं; और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने केनाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। एक सामाजिक वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बन्ध रखती है
जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं। समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं। ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं; जिनमें मानव समूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं। इन्हें शिल्पकला कृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है। वास्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्रबिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं। संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, विचार करते हैं और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं।संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है। यह हमारे साहित्य में, धार्मिक कार्यों में, मनोरंजन और आनन्द प्राप्त करनेके तरीकों में भी देखी जा सकती हैं। संस्कृति
के दो भिन्न उप-विभाग कहे जा सकते हैं- भौतिक और अभौतिक। भौतिक संस्कृति उन विषयों से जुड़ी है जो हमारी सभ्यता कहते हैं, और हमारे जीवन के भौतिक पक्षों से सम्बद्ध होते हैं, जैसे हमारी वेशभूषा, भोजन, घरेलू सामान आदि। अभौतिक संस्कृति का सम्बध विचारों, आदर्शों, भावनाओं और विश्वासों से है।संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज तथा एक देश से दूसरे देश में बदलती रहती है। इसका विकास एक सामाजिक अथवा राष्ट्रीय संदर्भ में होने वाली ऐतिहासिक एवं ज्ञान-सम्बन्धी प्रक्रिया व प्रगति पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, हमारे अभिवादन की विधियों में, हमारे वस्त्रों में, खाने की आदतों में, पारिवारिक सम्बन्धों में, सामाजिक और धार्मिक रीतिरिवाजों और मान्यताओं में परिचम से भिन्नता है। सच कहें तो, किसी भी देश के लोग अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परम्पराओं के द्वारा ही पहचाने जाते हैं।
संस्कृतीकरण :-
भारत में देखा जाने वाला विशेष तरह का सामाजिक परिवर्तन है। इसका मतलब है वह प्रक्रिया जिसमें जातिव्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित जातियाँ ऊँचा उठने का प्रयास करती हैं। ऐसा करने के लिए वे उच्च या प्रभावी जातियों के रीति-रिवाज़ या प्रचलनों को अपनाती हैं। यह समाजशास्त्र की पासिंग् नामक प्रक्रिया के जैसा ही है।
श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि"इस प्रक्रिया में निचली या मध्यम जाति या जनजाति या कोई अन्य समूह, अपनी प्रथाओं, रीतियों और जीवनशैली को उच्च या प्रायःद्विजजातियों की दिशा में बदल लेते हैं। प्रायः ऐसे परिवर्तन के साथ ही वे जातिव्यवस्था में उस स्थिति से उच्चतर स्थिति के दावेदार भी बन जाते हैं, जो कि परम्परागत रूप से स्थानीय समुदाय उन्हें प्रदान करता आया हो....।
"[4]संस्कृतीकरण का एक स्पष्ट उदाहरण कथित "निम्न जातियों" के लोगों द्वारा किसी दूसरे जातियों के अनुकरण में उनके परंपरा को अपनाना है, जो कि परम्परागत रूप से नही मानते आ रहे होते है। संस्कृतिकरण कहलाता है।।
जैसा की ऊपर आप लोगों को समझ आ ही गया होगा की संस्कृति और संस्कृतिकरण क्या होता है फिर भी अगर नही आया हो तो सरल शब्दो में समझते है।।संस्कृति जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि सदियों से आ रही परंपरा या कर रहे नियम, जिसे हमारे खुद के द्वारा खुद को अनुशासित करने के लिए बनाया गया है।। ये परंपरा और रहन सहन,वेशभूषा, बोलचाल,नाच, गान खान-पान,और नियम ही संस्कृति कहलाता है।।
अब संस्कृतिकरण को समझे अपने सदियों से आ रही नियम परंपरा को छोड़कर या कुछ परिवर्तन कर,किसी दूसरे जाति या जनजाति के परंपरा को लागू करना संस्कृतिकरण कहलाता है।। जैसा की हमारे हल्बा समाज में पहले केवल प्राकृतिक पूजा किया जाता था,
जिसमे हुम् और ,दिया,नीबू ,और लाली बस अपने इष्ट देव को अर्पण किया जाता था ।किंतु वर्तमान में नारियल ,अगरबत्ती ,फूल पत्र और न जाने क्या क्या अर्पण किया जाता है।। इसी को कहा जाता है संस्कृतिकरण, पहले हमारे समाज में फलदान रिंग शेरेमनी नही होता था न ही सात भांवर होता था।और न ही सेंदुर लगाया जाता था न ही जयमाला होता था और न ही मंगलशुत्र। दूसरे का देखते गये और सीखते गये और संस्कृति करण होता गया आपको जानकारी कैसे लगा जरूर बताये
श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि"इस प्रक्रिया में निचली या मध्यम जाति या जनजाति या कोई अन्य समूह, अपनी प्रथाओं, रीतियों और जीवनशैली को उच्च या प्रायःद्विजजातियों की दिशा में बदल लेते हैं। प्रायः ऐसे परिवर्तन के साथ ही वे जातिव्यवस्था में उस स्थिति से उच्चतर स्थिति के दावेदार भी बन जाते हैं, जो कि परम्परागत रूप से स्थानीय समुदाय उन्हें प्रदान करता आया हो....।
"[4]संस्कृतीकरण का एक स्पष्ट उदाहरण कथित "निम्न जातियों" के लोगों द्वारा किसी दूसरे जातियों के अनुकरण में उनके परंपरा को अपनाना है, जो कि परम्परागत रूप से नही मानते आ रहे होते है। संस्कृतिकरण कहलाता है।।
जैसा की ऊपर आप लोगों को समझ आ ही गया होगा की संस्कृति और संस्कृतिकरण क्या होता है फिर भी अगर नही आया हो तो सरल शब्दो में समझते है।।संस्कृति जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि सदियों से आ रही परंपरा या कर रहे नियम, जिसे हमारे खुद के द्वारा खुद को अनुशासित करने के लिए बनाया गया है।। ये परंपरा और रहन सहन,वेशभूषा, बोलचाल,नाच, गान खान-पान,और नियम ही संस्कृति कहलाता है।।
अब संस्कृतिकरण को समझे अपने सदियों से आ रही नियम परंपरा को छोड़कर या कुछ परिवर्तन कर,किसी दूसरे जाति या जनजाति के परंपरा को लागू करना संस्कृतिकरण कहलाता है।। जैसा की हमारे हल्बा समाज में पहले केवल प्राकृतिक पूजा किया जाता था,
1 Comments
Very nice informations
ReplyDeleteअपना विचार रखने के लिए धन्यवाद ! जय हल्बा जय माँ दंतेश्वरी !